2 मई 2018
कुछ लफ्ज भूल जाते हैं
जिससे रंजो गम न हो
उसे जरा भी नही भूलते
दिल पर जिसके रहम न हो
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कविता बस दिल से कविता D
अभी मुझको ही तोले जा रहा हैगलत मुझको ही बोले जा रहा है ये खारा समंदर भी शरबत सा अभी मुझको ही घोले जा रहा है
काले-काले घटा जैसा तुम घिर जाओ ना ऊँच-ऊँँचे महलों जैैसा तुम गिर जाओ ना क्लेश कितना भी यहाँ कर लो अपना पर आकर दूर दिल से तुम फिर जाओ ना
कुछ लफ्ज भूल जाते हैं जिससे रंजो गम न होउसे जरा भी नही भूलतेदिल पर जिसके रहम न हो
दुनिया के उसूलों पर मयस्सर मैं नही चलता बिना वजह की कोई कविता मैं अक्सर नही कहतामुझे सस्ता समझने की तोहमत है बड़ी भारीमैं वो दरियादिल हूंँ जो किसी बशर नही मिलता
मेरे मर्ज की ढूँढो मत दवा क्या है पहले पूूछो तो मुझे हुआ क्या हैमुसीबत में ही अक्सर पता चलता हैमाँ-बाप के हाथों की दुआ क्या है
समंदर के सूखने से साहिल की फरियाद आती है जैसे बहुत रोने से बच्चे को माँ की याद आती है अब तो माँ भी कहती है किसी से तू डरा मत कर बच्चे को मौत माँ के मर जाने के बाद आती है। हो जाए लाख गलती पर माँ तब भी हाथ रखती है बस इक माँ है जमाने में जो हरदम मेरे साथ रहती है। दुनिया तो हरदम मुझ पर चाकू चलाती है बस