(यह लेख इसी
शीर्षक से पहले भी प्रकाशित हो चुका है परंतु अब संशोधन कर दिया है)
दिनांक 17 जनवरी 2018 के दैनिक जागरण के मुखपृष्ठ पर समाचार है
“अंतरजातीय विवाह पर खाप-पंचायतों के हमले अवैध- अंतरजातीय विवाह करने वाले वाले
वयस्क पुरुष और महिला पर खाप पंचायत या संगठन द्वारा किसी भी हमले को सुप्रीम
कोर्ट ने पूरी तरह अवैध करार दिया है। शीर्ष अदालत ने कहा, अगर एक वयस्क पुरुष और
महिला शादी करते हैं तो कोई खाप, पंचायत, व्यक्ति या समाज उन पर कोई सवाल नहीं उठा सकते। मामले की अगली सुनवाई अब पाँच
फरबरी को होगी। प्रधान न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्र,
जस्टिस एएम खानविल्कर, और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने
मंगलवार को केंद्र से न्यायमित्र राजू रामचंद्रन के सुझावों पर जवाब दाखिल करने के
लिए कहा। रामचंद्रन
ने अंतरजातीय या अंतरगोत्रीय विवाह करने वाले युगलों की परिवार की आन के नाम पर
हत्या या उत्पीड़न रोकने के उपाय सुझाए थे। पीठ ने केंद्र से कहा कि वह न्यायमित्र
के सुझावों पर अपने सुझाव नहीं देगी, अदालत का इरादा न्यायमित्र के सुझावों के आधार पर फैसला सुनाने का है।
मालूम हो कि गैर सरकारी(एनजीओ) ‘शक्ति वाहिनी’ ने 2010 में सुप्रीम कोर्ट से आन के नाम पर अपराधों को रोकने के लिए
राज्य सरकारों को निर्देश देने कि मांग की थी। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले
पर शक्ति वाहिनी, न्यायमित्र और खाप पंचायतों से सुझाव मांगे
थे।” खाप-पंचायतें अंतरजातीय विवाह का विरोध क्यों
करती है? तथा
बीच का रास्ता क्या है? इसे समझने के लिए हिन्दू धर्मग्रन्थ
तथा ऋषि इस सम्बन्ध में क्या कहते हैं यह देखना आवश्यक है। श्रीमदभगवद् गीता , पुराणसंहिता, कौटिल्यम अर्थशास्त्र, रामचरितमानस आदि ग्रन्थों तथा अनेक ऋषि-मुनियों ने अंतरजातीय विवाह को लोक
परलोक के लिए हानिकारक बताया है और ऐसा करने वाले को नरकगामी होना बताया है यथा-
संकरो नरकायैव कुलघ्ननां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो हयेषां लुप्तपिण्डोदकक्रिया ॥ (गीता
1,42)
अर्थ- वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिए
ही होता है। लुप्त हुई पिंड और जल की क्रियाबाले अर्थात श्राद्ध और तर्पण से वंचित
इनके पितरलोग भी अधोगति को प्राप्त होते है। पितरों को पिण्ड पानी न मिलने में
कारण यह है कि वर्णसंकर की पूर्वजों के प्रति आदर वुद्धि नहीं होती। इस कारण उनमें
पितरों के लिए श्राद्ध-तर्पण करने की भावना ही नहीं होती। अगर लोक लिहाज में आकर
वे श्राद्ध-तर्पण करते भी हैं, तो भी शास्त्र विधि के अनुसार उनका श्राद्ध-तर्पण में अधिकार न होने से
वह पिण्ड पानी पितरों को मिलता ही नहीं।
दोषैरेतैः कुलघ्ननाः वर्णसंकर वर्णसंकरकारकेः
।
उत्साधंते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः
॥ (गीता 1,43)
अर्थ- इन वर्णसंकरकारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल-धर्म
और जातिधर्म नष्ट हो जाते हैं। कुल धर्मों के नाश से कुल में अधर्म की वृद्धि हो
जाती है। अधर्म की वृद्धि से स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं। स्त्रियॉं के दूषित
होने से वर्णसंकर पैदा हो जाते हैं।
उत्सन्न कुलधर्माणाः मनुष्याणां जनार्दन ।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥ (गीता 1,44)
अर्थ- हे जनार्दन जिनका कुल धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चित
कल तक नरक में वास होता है, अपने पापों के कारण उनको बहुत
समय तक नरकों का कष्ट भोगना पड़ता है। फलतः व्यक्ति के इहलोक व परलोक दोनों बिगड़
जाते हैं।
परमहंस योगानंदजी ने अमेरिका तथा पाश्चात्य देशों में हिन्दू
दर्शन का प्रचार-प्रसार किया था अपनी आत्मकथा ‘योगी कथामृत’ के परिच्छेद-41(पृष्ठ 557)
में लिखा है- “पुराणसंहिता ने अंतरजातीय विवाह के फलस्वरूप उत्पन्न सन्तानों की
तुलना खच्चर जैसे वर्णसंकर से की है,
जो अपनी वंशवेलि की वृद्धि नहीं कर सकता। कृत्रिम जातियाँ अन्ततः
निर्मूल हो जातीं हैं। इतिहास में ऐसे अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं कि बहुत-सी महान
जातियों का नाश हो गया है और आज उनका कोई वंशधर विद्धमान नहीं है।”
कौटिल्यम अर्थशास्त्र के तृतीय-अधिकरण ‘धर्मस्थीयम’ के सातवें अध्याय में अंतरजातीय विवाहको राजा के स्वधर्म से व्यतिक्रमसे
ही उत्पन्न कहा गया है तथा ऐसे राजा को नरकगामी बताया गया है यथा-केवलमेवं
वर्तमान: स्वर्ग-माप्नोति राजा नरकमन्यथ ।
ऋषि भारद्वाज ने कहा था -“ राजनीति में जाति का क्या काम? जाति केवल भोजन तथा विवाह
के समय देखी जाती है”। तात्पर्य है कि विवाह सजातीय ही होना चाहिए।
वेद, पुराण और उपनिषद मनुष्य को
उसका कर्तव्य समझानेके लिए प्रकट हुए हैं। भारतीय संस्कृति और सभ्यता के परिचायक इन
ग्रन्थों में संयम और सदाचार के संबंध में बहुत कुछ ऐसा लिखा है जो सदा ही
स्वीकार्य और अनुकरणीय बना रहेगा। मनुष्य जन्म पाकर भी यदि विवेक तथा ज्ञान न हुआ
तो इससे पशु होना ही अच्छा था, क्योंकि पशु जीवन में सदाचार
के नियमों को भंग करने का पाप तो न होगा। भारतीय सदाचार सद्वृत में अन्य जाति की
लड़की को माता के रूप में देखा जाता है। रामचरितमानस में
अयोध्याकाण्ड में जब
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीरामजी वनबास के समय त्रिकालदर्शी श्रेष्ठ मुनि
बाल्मीकिजी के आश्रम में जाते हैं तब भगवान श्रीराम हाथों को जोड़कर उनसे कहते हैं-
तुम्ह त्रिकाल दरसी मुनिनाथा। विस्व बदर जिमी तुम्हरे हाथा॥ अस कहि प्रभु सब कथा
बखानी। जेहि जेहि भांति दीन्ह बनु रानी॥ (अर्थ- हे मुनिनाथ! आप त्रिकालदर्शी हैं सम्पूर्ण
विश्व आप के लिए हथेली पर रक्खे हुए बेर के समान है। प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने ऐसा
कहकर फिर जिस-जिस प्रकार से रानी कैकेयी ने बनवास दिया, वह सब कथा विस्तार से सुनाई)।
इसके पश्चात प्रभु श्रीरामचन्द्रजी मुनिजी से किसी ऐसे स्थान के बारे में पूछते
हैं जहां वे अपनी धर्मपत्नी सीताजी तथा भाई लक्ष्मण सहित सुन्दर पत्तों तथा घास की
कुटी बनाकर रह सकें । इस पर श्रेष्ठ मुनि बाल्मीकिजी कहते हैं-काम क्रोध मद मान न
मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा॥ जिन्ह के कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह के हृदय बसहु
रघुराया॥ तुम्हहि छाड़ि गति दुसरि नाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं॥ जननी
सम जानहि परनारी। धन पराव विष से विष भारी॥ जिन्हहि राम तुम्ह
प्रानपियारे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे॥ (रामचरितमानस 2,130)
(अर्थ- जिनके न तो काम, क्रोध,
मद, अभिमान और मोह है न लोभ है न क्षोभ है; न राग है; न द्वेष है॥ और न कपट, दंभ और माया ही
है – हे रघुराज! आप उनके हृदय में निवास कीजिये।। और आपको छोडकर जिनके दूसरी कोई
गति(आश्रय) नहीं है, हे रामजी! आप उनके हृदय में वसिये।। जो
पराई स्त्री को जन्म देनेवाली माता के समान जानते हैं और पराया धन जिन्हें विष
से भी भारी विष है॥ हे रामजी! जिन्हें आप प्राणों के समान प्यारे हैं। उनके मन
आपके रहने योग्य शुभ भवन हैं॥ हे तात! जिनके स्वामी, सखा, पिता, माता और गुरु सब कुछ आप ही हैं, उनके मन रूपी मंदिर में सीता सहित आप दोनों भाई निवास कीजिये॥) । इन्ही
कारणों से हिन्दू सनातन धर्म में अन्तरजातीयविवाह को मान्यता नहीं दी गई है। आर्यसमाज
में कभी कभी अन्तरजातीय विवाह हो जाते हैं परंतु वे नाम में जातीय उपनाम(जाति सूचक शब्द) नहीं लगाते हैं
इसके स्थान पर आर्य लगाते हैं। यदि किसी का अन्तरजातीय विवाह हो जाए तो उसे अपने
नाम में जातिसूचक शब्द नहीं लगाना चाहिए या आर्य लगाना चाहिए। प्रूफ देखने की असावधानी से
अशुद्धियाँ सभी पुस्तकों में छप जाती हैं, ठीक इसी प्रकार आपकी असाधारण सी भूल का प्रभाव अनेकों पर पड़ता है। इसलिए
आप अपनी दिनचर्या और व्यवहार में सावधानी रक्खें क्योंकि अनेक व्यक्तियों का जीवन
शुद्ध और निर्मल बनाने और बिगाड़ने के जिम्मेदार आप ही हैं। महर्षि चरक का
सिद्धान्त है कि जीवन का मूल सदाचार है- ‘हितोपचारमूलम
जीवितम’। महर्षि चरक ने निरोग और दीर्घायु का आधार विशेष रूप
से सदाचार को ही माना है-
स्वास्थ्य वृतं यथो
द्विष्टं यः सम्यगनुतिष्ठति।
स समाः
शतमव्याधिरायुषा न वियुज्यते॥
अर्थात- जो व्यक्ति स्वास्थ्यवृत(सदाचार)-
का विधिपूर्वक पालन करता है, वह सौ वर्षोंकी रोगरहित आयु से पृथक नहीं होता अथवा सौ वर्षों तक पूर्ण
निरोग रहता है।
सदाचार के सम्यक
सेवन,
यम-नियम-पालन, धर्माचरण के नियमों के पालन से हमारे देश के
महामनीषी कालजयी, चिरजीवी बने थे और उनके संस्मरण से आज नही
व्यक्ति सर्वव्याधिविवर्जित होकर सौ वर्षों तक जीवित रह सकता है। यथा-
अश्वत्थामा बलिर्व्यासो
हनुमानश्च विभीषणः।
कृपः परशुराम सप्तैते
चिरजीवितः ॥
सप्तैतान संस्मरेन्नित्यं
मार्कण्डेय मथाष्ट्मम।
जीवेद्वर्षशतं साग्रमप
मृत्युविवरर्जित ॥
महात्मा विदुर ने
कहा है-आचारः परमो धर्मः अर्थात सदाचार ही मानव का परम धर्म है। अपने परम धर्म को त्याग कर अथवा नष्ट करके अधर्मी स्वयं सदा के लिए नष्ट हो जाता है।