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शिक्षा और स्वास्थ्य की सूरत

23 मार्च 2015

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"वर दे वीणावादिनी वर दे.........!" अमर कवि निराला की ओजस्वी पंक्तियाँ, आज भी मन को आह्लादित कर देती हैं| शिक्षा की देवी माँ सरस्वती की आराधना, अभिलाषा यही कि भारत से अशिक्षा का तिमिर तोम सदा के लिए विलुप्त हो जाये| सर्वत्र ज्ञान-विज्ञानं का प्रकाश हो| शिक्षा सर्व जन की पहुँच में तो हो ही, सबको आसानी से उपलब्ध भी हो जाये| हमारा संविधान भी यही कहता है| तो ऐसा क्या हो गया जिससे हम कहीं के नहीं रहे? आज़ादी से लेकर अब तक सरकारों ने शिक्षा के मद में लाखों करोड़ों खर्च किया और नतीजा वही ढाक के तीन पात| ऐसा क्यों? आखिर इसके लिए जिम्मेज़र कौन है? एक अकेला अंग्रेज मैकाले ने अपनी बुद्धि प्रयोग कर देश की शिक्षा व्यवस्था में आमूल परिवर्तन कर के साम्राज्य का काम आसान कर दिया| भले ही उसका उद्देश्य देशी क्लर्क पैदा करना था मगर उसने अनजाने में हमें विश्व का सर्वश्रेष्ठ अंग्रेजी ज्ञाता देश बना दिया| आज देश अंग्रेजी के जानकारों से पटा पड़ा है, और यह नयी आर्थिक व्यवस्था का इंजन बन गया है| समय समय पर हमारी सरकारों ने शिक्षा को सर्वव्यापी और सर्वग्राही बनाने का प्रयत्न तो किया है, किन्तु यह उनकी प्राथमिकता में काफी पीछे रही है| पर उस पर जो पैसा खर्च होता है वह तो नदी के पानी जैसा बहकर बेकार हो जाता है| ऐसा नहीं है, ये तो वो राजनीतिज्ञ गटक जाते हैं जिनको डकार भी नहीं आती| और मज़े की बात तो यह है की भले ही सरकारी शिक्षा व्यवस्था लचर गयी हो इनकी दूकान तो खूब चलती है| आज के दौर में शायद ही कोई ऐसा नेता हो जिसकी शिक्षा की दुकानदारी न हो| कमोवेश स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी यही हाल है| हमारे नेताओं ने अच्छी तरह से समझ लिया है कि शिक्षा और स्वास्थ्य की दुकानदारी सर्वकालिक फायदेमंद है| गुणवत्ता निर्धारण किसी भी वस्तु या सेवा का अभिन्न अंग है| बहुत सारे अमले भी बना रखे हैं, मगर काम कोई भी नहीं करता| नतीजा, दोनों ही मोर्चे पर जनता ठगी जा रही है| इस देश में लोग शराब पीकर भी मर रहे हैं और हमारे बच्चे सरकारी मिडडे भोजन खाकर| दोनों में कोई खास अंतर नहीं है| आज़ादी से लेकर आजतक कोई भी नेता चाहे वह भ्रष्टाचारी हो या व्यभिचारी हो किसी तरह की कठोर सजा नहीं पाया है| यह हमारी न्याय व्यवस्था पर बड़ा प्रश्न चिन्ह है! तो किया क्या जाये कि कुछ सुधार हो? इसके लिए ज्यादा बड़े कदम उठाने कि जरूरत नहीं है, बल्कि छोटे-छोटे कदमों से न सिर्फ अपेक्षित फल पाये जा सकते हैं वरन आमूल परिवर्तन भी लाया जा सकता है: १. प्राथमिक से लेकर उच्च माध्यमिक तक का पाठ्यक्रम समान तो हो ही (स्थानीय भाषा को उचित सम्मान मिलना चाहिए) इनका पठन-पाठन केवल सरकार द्वारा स्थापित और संचालित विद्यालयों में हो और बड़े छोटे सबके लिए यही एक विकल्प होना चाहिए| इसी प्रकार स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार ग्रामीण, आंचलिक तथा जिला स्तर पर करके सरकार द्वारा सबके लिए उपलब्ध कराया जाये| इससे न सिर्फ इन सेवाओं कि गुणवत्ता बढ़ेगी वरन सरकार द्वारा इन मदों में खर्च राशि का सदुपयोग होगा| २. ऐसी योजनाएं बने जिससे शिक्षकों कि गुणवत्ता भी सुधरे, ये एक उत्प्रेरक का कार्य कर सकें| शिक्षकों की सेवा सुविधा और वेतन में गुणात्मक बदलाव की आवश्यकता है, जिससे कि मेधावी और योग्य शिक्षक इस पेशे की तरफ आकर्षित हों| इन दो क़दमों से हम कई चीज़ें हासिल कर सकते हैं; जैसे कि शिक्षा का स्तर बढ़ेगा और परीक्षा में नक़ल की जरूरत खत्म हो जाएगी, इससे राष्ट्रीय एकता मजबूत होगी, भेदभाव दूर होंगे और कालांतर में हमारे समाज को किसी भी प्रकार के आरक्षण की आवश्यकता नहीं पड़ेगी| जय हिन्द!!

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