कहते हैं कि अगर बच्चों को मान-सम्मान का माहौल मिले तो उन्हें जीवन का लक्ष्य निर्धारण करने में आसानी होती है. यदि बच्चों को प्रेम और स्वीकृति का माहौल मिले तो वे दुनिया से प्रेम करना सीख जाते हैं. अगर बच्चे दोस्ती के माहौल में रहते हैं तो वे दुनिया को एक अच्छी जगह मानने लगते हैं. अगर बच्चों को प्रशंसा और प्रोत्साहन मिले तो उनके भीतर आत्मविश्वास की भावना जागृत होती है. अगर बच्चों को ईर्ष्या के माहौल में रहना पड़े तो वे भी दूसरों से ईर्ष्या करने लगते हैं और कुढ़न का आभास करते हैं. अगर बच्चों को हम आलोचना के माहौल में रखें तो वे औरों की निंदा करना सीख जाते हैं. वास्तव में बच्चे वो कोरी स्लेट होते हैं जिस पर आप जो लिखेंगे वही लिख जायेगा. बच्चे उस गीली मिटटी के सामान हैं, जिसे हम चाहें तो रूप दे दें, भगवान की मूरत का या किसी डरावनी सूरत का. कहना सिर्फ इतना है कि हम तमाम कामकाज के लिए जाने कहाँ से वक़्त निकाल लेते हैं, थोड़ा सा वक़्त ज़रूर निकालें, नन्हे-मुन्नों के लिए, इन्हें खेल-खेल में ही कुछ न कुछ सिखाने की ज़रुरत होती है. इन्हें मोटी-मोटी किताबों की नहीं, बल्कि हमारे थोड़े से प्यार और दुलार की ज़रुरत होती है. लिखते-लिखते मशहूर शायर और गीतकार निदा फ़ाज़ली साहब की एक ग़ज़ल की एक लाइन याद आ गयी है...
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें,
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए.