पाकिस्तानी डायरेक्टर इमरान मलिक की एक फिल्म आ रही है – ‘आज़ादी.’ मसाला फिल्म है. इसमें हीरो पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर में भारतीय हिस्से वाले कश्मीर को मिलाना चाहता है. इसलिए उस कश्मीर को भारत से ‘आज़ाद’ कराने की लड़ाई लड़ता है. ये रोल किया है मोअम्मर राणा ने.
मोअम्मर ने पाकिस्तानी अखबार डॉन को दिए इंटरव्यू में कहा है कि “कश्मीर (भारतीय) में हमारी बहनों को रेप किया जा रहा है, बच्चों के कत्ल हो रहे हैं और ये सब यूनाइटेड नेशंस में क्यों नहीं दिखाया जा रहा? क्यों भारत हर बार ये करके निकल जाता है? मैं ये फिल्म कश्मीर (भारतीय) के बहुत बहादुर लोगों और वहां दमन से उनकी आज़ादी के नाम डेडिकेट करता हूं.”
करीब 20 साल के करियर में मोअम्मर ने ‘बदमाश गुज्जर’, ‘मुझे चांद चाहिए’, ‘जंगल क्वीन’, ‘लव में गम’ और ‘भाई लोग’ जैसी फिल्में की है. उनकी सबसे उल्लेखनीय फिल्मों में 1998 में आई ‘चूड़ियां’ थीं. ये सबसे ज्यादा कमाई करने वाली पाकिस्तानी पंजाबी फिल्म बनी थी. ये सबसे ज्यादा कमाई थी 20 करोड़. उनकी आने वाली एक फिल्म का नाम है – ‘प्यार की एफआईआर’.
मोअम्मर के बारे में आखिरी बात ये कि वे दो भारतीय फिल्मों में भी काम कर चुके हैं. महिमा चौधरी स्टारर ‘दोबारा’ (2004) और मनीषा कोइराला, जैकी श्रॉफ के साथ ‘एक पल.. जो ज़िंदगी बदल दे’ (2010).
‘आज़ादी’ में फीमेल लीड हैं सोन्या हुसैन जो एक ब्रिटिश जर्नलिस्ट बनी हैं. फिल्म की शूटिंग पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर, ब्रिटेन और पाकिस्तान में की गई है. ये फिल्म 15 जून को ईद के मौके पर पाकिस्तान में रिलीज हो रही है. आइए सचित्र बताते हैं कि ये हीरो अब से तीन दिन बाद कैसे कश्मीर को भारत से ‘आज़ाद’ करवा देगा.
1. कहानी शुरू होती है लंदन से.
2. नायिका सो रही है. नर्म बिस्तर पर. ए क्लास लाइफ. नाम है – ज़ारा.
3. फिर उसे शायद एक ख़त मिलता है. अपने लवर का. जो अब किसी ऐसे रास्ते पर निकल चुका है जो न होता अगर वो अलग न हुए होते. सिर्फ अनुमान. ख़ैर, तो लवर की आवाज में मैसेज सुनाई देता है – “तुम मेरी जिंदगी में कुछ पल के लिए उस चांद की तरह शामिल हो, जो ग़ुलामी की रात में निकलता है. कई साल ये जिंदगी, तुम्हारी याद के हवाले किए रखी. अब ये ज़िंदगी जहाद के हवाले कर चुका हूं.”
4. ज़ारा सोचती है – “जिन रिश्तों से मेरे बरसों के फासले थे, उन रिश्तों को उन्होंने मेरे, आज से जोड़ दिया. मैं उससे मिलकर उसे सबकुछ बता दूंगी.” और उसके पास जाने का फैसला करती है.
5. लंदन से फ्लाइट लेकर पहुंचती है, कहां? भारत के “कब्जे” वाले कश्मीर.
6. अपने लवर के घर पहुंचती है कश्मीर घाटी में. घर उदास है. सूनापन है. पेंटिंग्स से कलर गायब हैं. वो पूछती है – आज़ाद कहा हैं? घर की ये महिला जवाब देती हैं – “कश्मीर की आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं.”
7. अब होगी हीरो की एंट्री. अपन के नहीं, पाकिस्तानी दर्शकों के.
8. एंट्री 1ः ‘घुंघटे में चंदा है, फिर भी है फैला..’
9. एंट्री 2ः ‘वो आ गया. देखो, वो आ गया..’
10. एंट्री 3ः बहुत ज्यादा नाटक करने वाली आवाज़ में इन विजुअल्स के साथ उसका डायलॉग आता है – “तुम में आज ना होने का कोई दुख नहीं है मुझे. क्योंके मैं…….. अपना फर्ज निभा चुका हूं.”
11. एंट्री 4ः एक इंडियन सोल्जर को पकड़ लिया है और पाकिस्तानी हीरो मार रहा है. क्योंकि फिल्म मीडियन एक ऐसी कल्पना है जहां किसी के द्वारा, कुछ भी किया जा सकता है.
12. एंट्री 5ः घूंघट के पीछे चेहरा ये था. अति नाटकीय भाव-भंगिमा. दांत भींचे हुए. कंधे उचके हुए. गर्दन धंसाई हुई. जैसे ‘चाइना गेट’ (1998) में जगीरा की थी – “जो मेरे मन को भाया, तो मैं कुत्ता काट के खाया.”
13. शायद इस ‘हीरो’ के पिता हैं. आंखें भरकर कहते हैं – “एक ख़्वाब देखा था मैंने. कश्मीर की आज़ादी का.”
14. हीरोइन ज़ारा इन बुज़ुर्गवार को बोलती है – “आपको अपने मिशन को आखिरी हद तक लेकर चलना होगा.” और चूंकि वो (पाकिस्तानी मूल की?) ब्रिटिश जर्नलिस्ट है तो पहुंच जाती है भारतीय कश्मीर घाटी के अंदरूनी हिस्से में. आज़ाद का इंटरव्यू करने के बहाने उससे मिलने.
15. आगे कथाकार का दिखाना ये है कि भारतीय सेना ‘अत्याचार’ कर रही है.
16. पिच्चर का हीरो लोगों को बचा रहा है.
17. ‘हो गई तैयार, हमारी आरमी.’ (ये सीन देखकर श्रीदेवी-शाहरुख खान की 1996 वाली पिच्चर ‘आर्मी’ का गाना याद आ गया.)
18. हालांकि पिच्चर का हीरो गन को तीरंदाजी की शैली में पकड़ता है.
19. नायिका पूछती है – ‘जहां तक मैं तुम्हे जानती हूं तुम एक पीस लविंग इंसान थे.’
20. नायक कुछ जवाब देता है. लेकिन फिल्म संस्थान में उच्चारण कक्षाएं अटेंड नहीं की थी, तो यहां दर्शक को समझ नहीं आता
.
21. बावजूद इसके कि घाटी में आग लगी है और लोग दुखी हैं. अब नाच-गाने की बारी.
22. गाने के बोल हैं – “माइया वे.” सेट है ऋतिक रोशन से लेकर टाइगर श्रॉफ जैसे कई हीरोज़ की फिल्मों का.
23. दाढ़ी कटाकर हीरो एकदम वरुण धवन लग रहा है.
24. इस बीच अपने आज़ाद के पिता उर्फ नेताजी सक्रिय हो गए हैं. कह रहे हैं – ‘अपना हक न मिले तो छीन लेना चाहिए.’
25. अब फौज और पुलिस पीछे पड़ी है. ब्रिटिश जर्नलिस्ट इंटरव्यू लेते लेते ‘मिशन’ का हिस्सा बन गई है शायद?
26. एक पाकिस्तानी फिल्म में भारतीय फौजी ऐसे दिखते हैं.
27. एक पाकिस्तानी फिल्म में भारतीय नेता ऐसे दिखते हैं जिनके लंबे-लंबे तिलक लगाए होते हैं और जो जबड़े भींचे ही रहते हैं. जो over-dramatic होते हैं.
28. मीटिंग्स में भी.
29. लेकिन उधर पाकिस्तानी नायक के हौसले बुलंद है. वो पाकिस्तान का झंडा लिए-लिए भारतीय कश्मीर के जंगलों में घूम रहा है.
30. सिर पर स्टाइलिश पट्टी बांधी हुई है. बोल रहा है – “अब हम जागेंगे. आज़ादी की सुबह तक जागेंगे. अगर सोये भी, तो शहादत की बाहों में सोएंगे.”
31. इसके साथ ये चार बहादुर और हैं. बस ये पांच लोग कश्मीर को आज़ाद करवाएंगे.
32. इस बीच फिर से नाच गाने का समय हो चुका है.
33. एक और लोकेशन. नई कॉस्ट्यूम्स में.
34. बाहुबली पिच्चर वाला झरना.
35. अब अपने साथियों के साथ जंग की ऐलान का वक्त. आखिरी जंग. बहुत सारा गुस्सा चेहरे पर.
36. एक सेल्फी ले ली जाए जाते-जाते.
37. धर्म की शरण में.
38. गिटार ले लिया है हाथ में. सुर निकलने का इंतजार.
39. लड़ते-लड़ते घायल. नर्स पहुंच चुकी हैं. मरहम पट्टी है नहीं, सिर्फ मनोबल बढ़ा सकती हैं.
40. बम फूट गया है.
41. कश्मीर आजाद हो गया है.
ये स्टोरी उन प्रोड्यूसर्स और डायरेक्टर्स पर लानत भेजती है जो फिल्ममेकिंग विधा का इस्तेमाल ऐसी मूवीज़ बनाने में करते हैं जिसमें धर्म और राष्ट्र जैसे भावों का पैसे कमाने के लिए यूज़ किया जाता है. ताकि दर्शकों के इमोशंस का दुरुपयोग सिनेमाघर में किया जा सके. वो फिल्ममेकर चाहे किसी भी देश का हो. भारत का या पाकिस्तान का. अगर ‘बाग़ी-2’ में टाइगर श्रॉफ के फौजी कैरेक्टर के जरिए एक व्यक्ति को गाड़ी के बोनट पर बांधकर थियेटर में सीटियां बजवाना डायरेक्टर अहमद खान का घटिया काम था, तो ‘आज़ादी’ जैसी पूरी फिल्म के जरिए पाकिस्तानी डायेरक्टर इमरान मलिक ने भी यही किया है.
‘गदर’ जैसी फिल्म में भी भारत का नायक पाकिस्तान जाता है अपनी महबूबा को लेते हुए तो वो उस मुल्क की बेइज्जती नहीं करता. वो पाकिस्तान जिंदाबाद तक बोलता है. बस वो हिंदुस्तान मुर्दाबाद नहीं बोलना चाहता. लेकिन फिर भी हम उस फिल्म की आलोचना करते हैं क्योंकि वो देश के लिए लोगों के प्रेम का व्यावसायिक दुरुपयोग करती है. बावजूद इसके कि वो ‘आज़ादी’ जैसी फिल्मों से कम harmless है. लेकिन फिर भी आलोचना इसलिए ताकि एक मुल्क के तौर पर हमारा intellect और human growth कभी न रुके. वो विकसित होती रहे. परिष्कृत होती रहे.
लकिन दुनिया का कोई फिल्ममेकर जब अधकचरे ज्ञान और व्यावसायिक मुनाफे के लिए ऐसा प्रोपोगैंडा फैलाता है तो वो निंदनीय है. फिल्में एक बेहतर दुनिया के निर्माण के लिए होती हैं. हमें सकारात्मक कहानियां सुनाने और समाज के तौर पर हमें बेहतरी की तरफ ले जाने के लिए होती हैं. ये सब करने के लिए नहीं.
जैसे डायरेक्टर शोएब मंसूर की दो पाकिस्तानी फिल्में जो भारत में भी दर्शकों ने बहुत चाव लेकर, बहुत आदर के साथ देखी – ‘ख़ुदा के लिए’ (2007) और ‘बोल’ (2010).