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गीत -- अलोक सिन्हा

18 जून 2018

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कब तक आशा –दीप जलाऊँ ,

इस अल्लढ़ मन को समझाऊँ |


जनम जनम से मन की राधा ,

खोज रही अपना मन भावन |

तृष्णा नहीं मिटी दर्शन की ,

रीत गया यह सारा जीवन |


अब कब तक उस श्याम बरन को ,

नित श्वासों का अर्घ्य चढाऊं |


सोचा था मन के उपवन में ,

रंग बिरंगे फूल खिलेंगे |

जब जब चाँद हंसेगा नभ में ,

सारे सुख भू पर उतरेंगे |


अब कब तक कल्पना कुन्ज में ,

गाऊँ , चातक सा अकुलाऊँ |


जाने कब से पागल सुधियाँ ,

बैठीं पथ में पलक बिछाए |

कुछ अतृप्ति , कुछ पीर संजोकर ,

स्वागत में दृग दीप जलाये |


अब कब तक उस भोर किरन की ,

सतत प्रतीक्षा करता जाऊं |


( अलोक सिन्हा )

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