उम्र के तीसरे पड़ाव में हूँ मैं .बचपन और जवानी के सारे खुबसुरत लम्हो को गुजर कर प्रौढ़ता के सीढ़ी पर कदम रख चुकी हूँ .तीन पीढ़ियों को देख लिया है या यूँ कहे की उनके साथ जी लिया है. बदलाव तो प्रक्रति का नियम है इसलिए घर परिवार, संस्कार और समाज में भी निरंतर बदलाव होता रहा है और होता रहेगा. शायद इसीलिए हर पीढ़ी ने दूसरे पीढ़ी को ये जुमला जरूर कहा होगा कि - " भाई हमारे ज़माने में तो ऐसा नहीं होता था ".लेकिन हमारी पीढ़ी ने वक़्त को जितनी तेज़ी से बदलते देखा है उतना शायद ही किसी पीढ़ी ने देखा हो .हमारी पीढ़ी ने दादा-दादी को वो पुराना जमाना भी देखा जहाँ कुछ कायदे-कानून और पावनादिया थी. लड़को के लिए अलग और लड़कियों के लिए अलग नियम-कानून थे.पर्दा प्रथा,रूढ़िवादिता और अंधविस्वास भी था. फिर अपने माँ-बाप का दौड देखा जिसमे उन्होंने थोड़ा बहुत खुद को बदला और कोशिश की कि लड़कियों को भी लड़को के बराबर तो नहीं लेकिन थोड़ी बहुत प्यार और आज़ादी दी जाये .रूढ़िवादिता, अंधविस्वास और पर्दाप्रथा में भी कमी आई .नियम- कानून तो टूटे लेकिन सयुक्त परिवार को ही सर्वोपरि रखा गया. हमारे माँ-बाप के कोशिशों के कारण हमने उच्च शिक्षा पाई और आज़ादी भी. हमारी पीढ़ी ने थोड़ी और तरक्की की और बेटा - बेटी के फर्क को ख़त्म किया पर्दाप्रथा को ख़त्म तो कर दिया लेकिन बेपर्दा नहीं हुई .सयुक्त परिवार को तो जोड़ कर नहीं रख पाए हम लेकिन दो-तीन बच्चो के साथ एकल खुशहाल परिवार जरूर रखा हमने. दादा-दादी की तरह समाज के बीच रहना या माँ-बाप की तरह समाज के बीच न रह कर भी समाज से जुड़े रहना तो हमे नहीं आया लेकिन कुछ खास अवसरों पर समाज में घुलना-मिलना हमने कर लिया. इतने बदलाव के वावजूद हमारे माँ-बाप को दादा-दादी और हमारे बीच सामंजस्य बनाने में कोई खास परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा.यानि दोनों पीढ़ियों के बीच संबंधक ( connector) का जो रोल था वो जयादा मुश्किल नहीं था. उन्होंने अपने माँ-बाप को समझाया कि बच्चो के लिए थोड़ी बहुत आज़ादी जरुरी है और बच्चो को समझाया कि - " बच्चे आप को आज़ादी तो मिली है लेकिन आप उसका गलत फायदा नहीं उठा सकते." इस तरह तीनो पीढ़ी में सामंजस्य था.
विज्ञान और टेक्नॉलजी की भी बात करे तो वहा भी कोई बहुत बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ था.परिवर्तन हो रहा था लेकिन रफ़्तार धीमी थी जैसे धीमीगति से सामाजिक परिवर्तन हो रहा था. जो परिवर्तन हुआ भी था तो वो जन -सामान्य तक नहीं पंहुचा था .उस वक़्त तक कम्युनिकेशन का साधन पत्र ही था.टेलीफ़ोन था लेकिन बड़े शहरों और समिर्द्ध परिवार में ही था. मीडिया भी समाचारपत्र और रेडिओ तक ही सिमित था.हां, शहरों में टेलीविजन आ गया था. 1985 मे देश में "कम्प्यूटर " का आगमन हुआ जो एक कार्तिकारी परिवर्तन था. वैसे तो कम्प्यूटर भारत में बहुत पहले आ चूका था लेकिन जन-जन तक इसे राजीव गांधजी ने पहुंचाया. उस वक़्त हमारी पीढ़ी ने ये सपने में भी नहीं सोचा था की एक छोटा सा डब्बा हमे देश ही नहीं पूरी दुनिया के कोने-कोने से हमे जोड़ देगा और हमारी जीवनशैली को इतना जयादा प्रभावित करेगा .इस परिवर्तन से हम जहां उत्साहित थे तो हमारे माँ-बाप अचम्भित. अभी हम इसे समझ ही रहे थे कि " मोबाइल " का आगमन हो गया. हां, कम्प्यूटर के साथ-साथ टेलीफ़ोन घर-घर आ गया था. लेकिन बिना तर के एक नन्हा सा डब्बा हमे घूमते-फिरते कभी भी कही से हमे बात करा सकता है ये तो हमने सोचा ही नहीं था. फिर अचानक से एक और धमाका हुआ और " इंटरनेट महाशय " पधार दिये .उन्होंने तो हमारे जीवन और रेहन-सहन का नक्सा ही बदल डाला. आज गाँवो में भी भले ही शौचालय न हो लेकिन इंटरनेट है, मजदूरों के घर में भले ही खाना न हो लेकिन मोबाइल जरूर है.दूरदराज के पहाड़ी गाँवो में भी जहां आवा-गमन की सुविधा भी नहीं है, बच्चे स्कूल भी नहीं जाते लेकिन इंटरनेट के माध्यम से शिक्षा भी पा रहे है और बहरी दुनिया से भी जुड़े है.
सन 2000 यानि इकीसवीं सदी, इन १८ सालो में हमारी जीवनशैली में जितनी तेज़ी से बदलाव हुआ उतना पिछले 50 सालो में नहीं हुआ. हमारे बच्चे यानि " नयी पीढ़ी " में जो बदलाव आये वो हमारे सोच से भी परे था. इन 18 सालो में लड़किया लड़को से भी जयादा स्वछन्द हो गई .अब इस बदलाव को हम खुद पूरी तर नहीं समझ पाए तो अपने बड़ो को कैसे समझते. मेरी बेटी ने जब पहली बार मेरी माँ के साथ सेल्फी ली तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा ,कहने लगी "वाह अब तो अपनी फोटो भी खुद खींच सकते है." और विडिओ कॉलिंग ने तो उन्हें अचम्भित ही कर दिया. यहां तक तो ठीक था असली समस्या तो तब आती है जब हमारे बड़े आज कल के लड़के लड़कियों की खुली दोस्ती ,एक दूसरे के साथ बेझिझक घूमना-फिरना, देर रात तक पार्टियों में रहना,उनके कपड़ो का स्टाइल ये सब देखते है जो उन्हें नागवारा है. हमारे माँ-बाप हमे समझते है कि हम उन्हें ऐसा करने से रोके "ये हमारे संस्कार नहीं है ये पश्चिमी सभय्ता है " और जब हम अपने बच्चो को ये बात समझते है तो वो कहते है कि " आप किस युग में जीरहे हो मम्मी ,दादा-दादी तो पुराने ख़यालात के है, आप तो समझो ". उनकी बात भी सही है ज़माने के साथ चलना ही होता है. मैंने जहां तक अनुभव किया है कि आज की पीढ़ी हमारी पीढ़ी की तरह माँ-बाप के समझाए पर आँख बंद करके चलने वाली नहीं है. ये तो वही करते है जो वो चाहते है .सीखते भी है तो अपनी गलतियों से और अपने अनुभव से ही. हम अगर ज्यादा रोक-टोक करते है तो वो वही काम चोरी से करेंगे. लेकिन करेंगे अपने मन की ही. तो हमारे समझ से हमे उन्हें सही गलत समझा कर छोड़ देना है.हमे सिर्फ उनका माँ- बाप ही नहीं बल्कि दोस्त भी बनना है. हम दोस्त बनकर ही शायद उन्हें बेहतर तरीके से समझा सकते है. पहले के अभिवावको की तरह सख्ती करने पर तो वे उग्र ही हो जाते है. हमारी पीढ़ी की समस्या ये है कि न हम बच्चो को मॉर्डन कल्चर में ढलने से रोक सकते है और न अपने बड़ो को समझा सकते है. हम खुद भी इस कल्चर का हिस्सा होते हुए भी अपने पुराने संस्कार को नहीं छोड़ पाते है. सच तो ये है कि हम दो पाटन के बीच पीस रहे है. अब ऐसी स्थिति में हमारी जिम्मेदारी ये है कि- हम अपने बड़ो के संस्कार और आदर्शो को भी न छोड़े और अपने बच्चो के साथ भी हमकदम भी रहे. तो संक्षेप में ये कह सकते है कि " हमारी पीढ़ी संबंधक ( connector) न बनके प्रवर्तक ( promoter) का काम करे तो शायद हम दोनों पीढ़ियों के बीच सामंजस्य स्थापित कर पाए.