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सोशल मीडिया और भारतीय राजनीति

17 जुलाई 2018

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pic credit-anthony bordarao(medium.com)

वर्तमान दौर में सोशल मीडिया आम आदमी के जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन गया है।आप चाहे पत्रकार हों चाहे व्यवसायी हों,विद्यार्थी हो अथवा,किसी सरकारी विभाग में नौकरी करने वाले आम कर्मचारी।सोशल मीडिया ने खास से लेकर आम लोगों की ज़िंदगी पर गंभीर प्रभाव डाला है।व्यवसाय, शिक्षा,पत्रकारिता,राजनीति आदि क्षेत्रों में व्यापक बदलाव लाने में सोशल मीडिया का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

इसका सबसे महत्वपूर्ण पहलू इसकी पहुँच जो की बहुत व्यापक है, आप सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के जरिये हज़ारों लाखों लोगों से जुड़ सकते है,दुनिया के किसी भी कोने में बैठे व्यक्ति से बातचीत कर सकते हैं, सवाल पूछ सकते हैं वो भी बिना जान पहचान के।

सोशल मीडिया के इन्हीं गुणों के कारण व्यवसाईयों से लेकर नेताओं पत्रकारों ,आम लोगों द्वारा भी अपनी योजनाओं को अंजाम देने में इसका उपयोग किया जा रहा है।

भारतीय समाज एवं इसके विभिन्न क्षेत्रों को भी सोशल मीडिया ने बहुत प्रभावित किया। शुरुआत दौर में सोशल मीडिया ने भारतीय राजनीति, मीडिया आदि पर व्यापक प्रभाव डाला। पहले कुछ गिने चुने मीडिया संस्थान,रडियो,टीवी आदि के मालिकों द्वारा ही तय किया जाता था की जनता तक कौन सी खबर पहुचेगी और कौन सी नहीं पहुचेगी मतलब गिने चुने लोग तय कर लेते थे। वे अपने नफे नुकसान को ध्यान में रखकर ख़बरों को छापते अथवा प्रसारित किया करते परंतु सोशल मीडिया ने इस प्रक्रिया को पूर्णतः बदल कर रख दिया अब तो हर कोई जिसके हाथ में फ़ोन है पत्रकार बन गया इसके सकारात्मक एवं नकरात्मक दोनों पहलु है। अब एक आम व्यक्ति बिना अतिरिक्त संसाधनों के अपनी बात को समाज के सामने बड़ी आसानी से रख सकता है जबकि उसे जांचने वाला कोई नहीं है की बह सच कह रहा है अथवा झूठ।

इसकी व्यापक पहुँच (पारंपरिक मीडिया से भी व्यापक) के कारण भारत की राजनीति में भी इसका उपयोग शुरू हो गया।

आंदोलनकारियों ने भी चाहे वो भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़ा गया लोकपाल का आंदोलन हो अथवा निर्भया के बलात्कार के पश्चात् राष्ट्रीय स्तर पर किया गया आंदोलन एवं ऐसे अनेकों उदहारण हैं जहाँ पारंपरिक मीडिया संस्थानों की जगह सोशल मीडिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

सोशल मीडिया ने भौतिक सीमाओं को भी मिटाया है एक गाँव में बैठा आम व्यक्ति भी अब सरकारी योजनाओं से असंतुष्ट होने पर अपना रोष प्रकट कर सकता है।

रेल में यात्रा कर रहा व्यक्ति रेलवे की ख़राब सेवाओं की शिकायत सीधे रेल मंत्री से कर सकता है,विदेश में फंसे नागरिकों ने अनेक बार विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से ट्विटर अथव फेसबुक के जरिये सीधे मदद माँगी और उन्हें मदद उपलब्ध भी करायी गयी।

धीरे धीरे सोशल मीडिया प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का भाग बन गया इसके फायदे भी हैं और नुकसान भी परंतु शुरुआती दौर में तो लगा की फायदे ही फायदे है इसी कारण इसका व्यापक उपयोग शुरू हुआ।इसने भौतिक सीमाओं को तो मिटाया ही साथ में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को भी मजबूत किए क्युकी यहाँ प्रत्येक व्यक्ति को सुना जाता है,हर कोई अपनी बात बिना किसी परेशानी के घर बैठे कह सकता है,इसकी पहुँच जो की सबसे महत्वपूर्ण पहलु है इसके जरिये आम नागरिक किसी भी बड़े राजनेता,मंत्री अथवा अधिकारी सेे बड़ी आसानी से अपनी बात कह सकता और वे भी देश के सबसे दूर दराज के क्षेत्रों में रहने वालों से आसानी से संपर्क कर सकते हैं। स्वच्छता के अभियान को ही देख लें।

सोशल मीडिया आम जनता की राय को समझने का एक बहुत महत्वपूर्ण साधन बन गया है क्योंकि इसकी पहुच किसी भी मीडिया संस्थान अथवा कंपनी द्वारा किये जाने वाले सर्वे से बहुत व्यापक है। शुरुआत में एक लोकतांत्रिक साधन की तरह अपनी बात को रखने,जनता की राय को समझने,समस्याओं को सुलझाने,संवाद कायम करने तक ही इसका उपयोग किया गया।

इसकी व्यापक पहुँच का आभाष हुआ तब समाज सेवियों द्वारा जनता को जागरूक करने में व्यापक प्रयोग हुआ जिसकी परिणति मैं लोकपाल का आंदोलन,चाहे निर्भया के बलात्कार के पश्चात् महिला अधिकारों के लिए छेड़ा गया आंदोलन ऐसे उदहारण हैं।

सोशल मीडिया की व्यापक पहुँच के कारण नेताओं,राजनीतिक पार्टियों ने अपने हितों को साधने हेतु इसका इस्तेमाल शुरू कर दिया। सर्वप्रथम व्यापक तौर पर चुनावों में सोशल मीडिया का इस्तेमाल 2013–14 में एक विशेष राजनीतिक पार्टी द्वारा किया गया कहने का तात्पर्य यह कि अन्य पार्टियों ने भी इस्तेमाल किया परंतु उतने व्यापक तौर पर नहीं। और एक सपना अच्छे दिन का सपना बेचा लोगों ने अपनी सहमति भी दिखाई और सपना खरीद भी लिया वोट देकर।2014 के चुनाव परिणामों को देखकर अब तो लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों ने सोशल मीडिया को अपनी राजनीतिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण जगह दी और लगभग सभी पार्टियों न अपनी अपनी IT CELL की स्थापना की है,सोशल मीडिया के जानकर लोग इसका संचालन करते हैं।

परंतु एक मूल बदलाव यह आया की पहले यह एक आभासी लोकतांत्रिक दुनिया की तरह थी जिसमे हर एक व्यक्ति को अपनी बात रखने का अधिकार था।

परंतु जब संगठित तौर असीमित संसाधनों के साथ राजनीतिक पार्टियों ने इसका इस्तेमाल शुरू किया तब परेशानी शुरू हुई। इसमें गलती किसी एक पार्टी की नहीं है सबकी है।

अच्छे दिन का सपना दिखाना तो ठीक है परंतु उसे पूरा भी करना पड़ता है पारंपरिक मीडिया के दौर में बड़े नेताओं और नागरिकों के बीच एक फासला होता था नेता कभी कभी जनता से सीधे बातचीत करता था परंतु सोशल मीडिया ने इस फासले को पाट दिया अब नेता सीधे जनता से बात कर रहा था इसलिए जनता ने विश्वास भी कर लिया और अच्छे दिन के सपने से अपनी सहमति भी प्रकट की यहाँ तक तो सब ठीक था।परंतु सोशल मीडिया ने सहमति जताने और बातचीत के लिए फासला कम किया परंतु असहमति के लिए भी वो फासला अब कम हो गया था।पहले तो चुनाव के पश्चात् नेता जनता के बीच 4 बर्ष तक तो जाता ही नहीं था। लोग भी कभी-कभी पत्र लिखकर अथवा सीधे नेता से मिलकर अपनी असहमति प्रकट करते थे अथवा मीडिया लोगों की बात रखता था।परंतु अब समीकरण बदल गया था लगभग सभी नेताओं ने चुनाव प्रचार के लिए ट्विटर फेसबुक पर अपने अकॉउंट खोले और अच्छे दिन का सपना बेचा परंतु वो यह भूल गए की अब जनता हर रोज़ आकर उनसे सवाल पूछेगी की कहाँ हैं अच्छे दिन।

जिसका की भारत के राजनेताओं को कम अभ्यास है क्युकी अभी तक तो एकतरफा सम्बाद होता था नेता मंच से भाषण देता था जनता सुनती थी,कार्यालय में नेता जनता से मिलता नहीं था अथवा मिलता भी था तो अकेले में चुनाव से पहले कभी जनता के बीच जाता नहीं था।परंतु अब समीकरण बदल गया था जनता के पास एक ऐसा साधन था जिसके जरिये बह कभी भी कहीं से भी सीधे नेता से सवाल कर सकती थी अपनी असहमति प्रकट कर सकती थी (उदहारण देखें तो लंदन में भारत के प्रधान मंत्री ने अपने इंटरव्यू में कहा था की मुझे तो हर रोज़ 2–3 किलो गलियां सुननी पड़ती है) और सोशल मीडिया पर लाखों कऱोडों लोग इसे देखते हैं की नेता ने सवाल का जवाब क्यों नहीं दिया अथवा दिया तो सही दिया अथवा गलत तरीके से दिया,समस्या को हल किया अथवा नहीं अब सोशल मीडिया नेताओं के गले की फंस बन गयी थी(सभी नेताओं चाहे वे विपक्ष के ही क्यों न हो)।

अब इस समस्या के समाधान हेतु IT CELL के ढांचे में परिवर्तन किया गया पहले उनका काम था ज्यादा से ज्यादा लोगों तक अपनी बात पहुचना,संवाद कायम करना संक्षेप में कहें तो चुनाव प्रचार करना परंतु अब जरुरत अलग तरह के लोगों की थी क्योंकि अब समस्या अलग तरह की थी। अब लाखों की संख्या में नागरिकों ने जिनसे 15 लाख का वादा किया था ने सवाल पूछना शुरू कर दिया था की कहाँ है 15 लाख अथवा कहे तो जनता ने सीधे सरकारों से सवाल किया जो अब तक कम होता था लाखों लोग एक साथ मिलकर किसी चौराहे पर खड़े होकर कब सवाल पूछते हैं।

परंतु सोशल मीडिया पर ऐसा संभव है चाहे SSC का आंदोलन हो जहाँ आंदोलन तो सिर्फ कुछ हज़ार लोग ही कर रहे थे पर सोशल मीडिया पर लाखों की संख्या में विद्यार्थी ट्वीट कर रहे थे अथवा फेसबुक पोस्ट कर रहे थे,शिक्षा मित्रों को देख ले उनसे जो वादा किया था चुनाव के पश्चात् उन्होंने भी लाखों की संख्यां में सवाल पूछने शुरू कर दिए। रेल में यात्रा कर रहा आम नागरिक कोई भी समस्या होने पर अब सीधे रेल मंत्री को टैग करके ट्वीट कर देता है ऐसे लोगों की संख्या लाखों में होती जो हर रोज़ रेल में सफ़र करते समय होने वाली समस्याओं के प्रति सोशल मीडिया पर ख़राब सेवाओं के प्रति अपना रोष प्रकट करते हैं। शुरुआती दौर में भारत के राजनेताओं ने इसकी कल्पना भी नहीं की होगी उन्हें लगा होगा की बस चुनाव प्रचार करो और जीत जाओ एकतरफा सम्बाद परंतु पहले जो नेता एकतरफा सम्बाद का मजा लेते थे अब बदल गया है अब दोतरफा संबाद का साधन सोशल मीडिया। तब इस समस्या से निपटने हेतु IT सेल में बिशेष प्रकार के योद्धाओं की आवश्यकता महशुस हुई और फिर क्या था आभासी पत्थरबाजों की एक भीड़ तैयार की गयी यह काम सभी पार्टियों ने किया उन्होंने भी जो सत्ता में नहीं थी क्युकी जनता उनसे भी सवाल पूछ ही लेती थी की तुम्हारे पास कोई इससे बेहतर उपाय है तो बताओ खाली जुमला नहीं चलेगा। परंतु जो सत्ता में होता है उससे ज्यादा सवाल किये जाते है हर कोई सवाल करता है जनता करती है , विपक्ष करता है ,पत्रकार करते हैं।सत्तापक्ष को इन सोशल मीडिया के योद्धाओं की ज्यादा जरुरत थी और जरुरत के अनुसार योद्धा तैयार किये गए।और सोशल मीडिया के प्रयोग के इस छोटे से दौर में ही उसमें 360 डिग्री का बदलाव आ गया। जहां पहले सबको मूलतः आम लोगों को अपनी बात कहने की जगह थी अब IT सेल में बैठे लोगों को उनको रोकने का काम दे दिया गया। जो लोग अपने सवाल पूछना चाहते थे अथवा असहमति प्रकट करना चाहते थे उनपर हमला करने के लिए एक संगठित भीड़ तैयार कर दी ऐसी भीड़ एक ऑफिस में काम करती है,उस काम की भीड़ को तनख्वाह भी मिलती है इंसेंटिव भी मिलता है। काम आसान है अगर कोई व्यक्ति मंत्री से सवाल करता है तो हज़ारों की संख्या में उस पर आभासी पथराव शुरू कर दो,ताकि बह अगली बार सवाल ही न पूछे क्युकी इससे पहले भी बो रोज़ रोज़ मंत्री से सवाल नहीं करता था। कोई पत्रकार सरकार की किसी योजना का खुलासा करता है उस पर संगठित रूप से हमला कर दो,उसको बदनाम करने के लिए उसका किसी राजनीतिक पार्टी से सम्बन्ध बता दो अथवा उसको फ़ोटो एडिट करके whatsapp पर वायरल कर दो ,झूठी खबर फैला दो,विपक्ष के खिलाफ झूठ फैला दो। सरल भाषा में कहें तो सोशल मीडिया ट्रायल शुरू हो गया जैसे ही आप उस भीड़ के सरदार के खिलाफ टिपण्णी करते हज़ारों की संख्या में आभासी पत्थरबाज आप पर पथराव शुरू कर देते है ओन दी स्पॉट फैसला किया जाता है व्यक्ति देशद्रोही है अथवा दलाल या कुछ और सभी पार्टियों ने इस प्रकार की आभासी भीड़ तैयार कर ली है बह भीड़ आटोमेटिक भीड़ है बटन दबाने की जरूरत नहीं है आदेश की जरुरत नही है आप बस उस भीड़ के सरदार खिलाफ टिपण्णी कीजिये भीड़ तुरंत ही आपको घेर लेगी और तुरंत फैसला किया जायेगा।

यह भीड़ अन्य काम भी करती है जैसे जब कोई योजना असफल हो रही हो तो उसकी सफलता में माहौल बना दो।और ये सब एक संगठित भीड़ द्वारा किया जा रहा इसे कहते हैं जनमत की मौत चाहे बहुसंख्यक लोग नोटबंदी एवं GST से सहमत ना हो अथवा उन्हें नुकसान हुआ हो पर इस आभासी भीड़ ने उसे सफलता घोषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जो दो तरफ़ा संबाद शुरू हुआ था अब पुनः एक तरफ़ा संबाद में बदल गया। सरकार चाहे कुछ भी ना कर रही हो यह आभासी भीड़ उसकी सफलता के झंडे सोशल मीडिया पर गाड़ देती है।

फेक न्यूज़ का दौर चल पड़ा है क्युकी यहाँ करोड़ों की संख्या में लोग हैं कोई जांचने वाला भी नहीं है की कौन सच कह रहा है कौन झूठ उस पर भी राजनीतिक पार्टियों ने संगठित भीड़ इसी काम में लगा दी है उनके पास भरपूर संसाधन है।

सोशल मीडिया अपने शुरुआती दौर में जितना उपयोगी साबित हुआ अब उससे ज्यादा समस्याएं खड़ी कर रहा है फेक न्यूज़ की समस्या एक बहुत गंभीर समस्या है वहीं whatsapp के जरिये झूठी अफवाहें फैलाई जा रहीं हैं जिसके कारण जनुअरी 2017 से जुलाई 2018 तक लगभग 33 लोगों की भीड़ ने जान ले ली।

फेक न्यूज़ में तो हैम नंबर 1 बन ही गए हैं चाहे प्रधान मंत्री को यूनेस्को द्वारा दुनिया का सबसे बेहतरीन प्रधान मंत्री घोषित करने की अफवाह हो,चाहे नोटबंदी के बाद नोटों में नैनो चिप अथबा रेडियोएक्टिव इंक से टाइप करने की बात ऐसी ढेरों अफवाहें है जो आग की तरह फैली और उन पर बड़े बड़े लोगों ने विश्वास भी कर लिया।सोशल मीडिया के जरिये फैली नोटों में नैनो चिप की अफवाह के लपेटे में तो बड़े बड़े मीडिया हाउस तक आ गए।

कोई भी साधन अपने साथ अवसर भी लेकर आता है और समस्याएं भी फर्क पड़ता है तो उसके उपयोगकर्ता के रवैये से की उपयोगकर्ता उस साधन के जरिये कौनसे उद्देश्य की प्राप्ति करना चाहता हैै।सोशल मीडिया के साथ भी वैसा ही है। 16 जुलाई को ही गूगल के एक enggineer की व्हाट्सअप पर फैली अफवाहों के आधार पर भीड़ ने पीट पीटकर हत्या कर दी।इससे स्पष्ट होता है हम सोशल मीडिया का सही से और जिम्मेदारी से प्रयोग करने में असफल रहे हैं।

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