(26 अक्तूबर 2015 को हिन्दुस्तान कानपुर के जमूरे जी कहिन कॉलम में प्रकाशित)
का रे जमूरे! तनिक पोटलिया तो खंगाल...।
कौन सी हुजूर? प... वाली की द... वाली?
का बताएं हम तुहंय...बकलोल कय बकलोल रहिगेव। द अक्षर हम सीखेन हैं का...? प वाली...और उहव सरकारी प वाली..., जेम्मा सब सरकारी प हों। देख कउनव प है जौने का ल किया जाय...?
हुजूर, अब यह ल... क्या है? प माने अब तक मिले पुरस्कार। द का मतलब देने से है। ई ल क्या है?
अरे जमूरे... ल माने लौटावय वाले पुरस्कार। देख कउनव पुरस्कार झाड़-पोंछ कय लौटावा जाय सकत है का? सब पड़े-पड़े सड़त हैं। जवन सबसे पुराना होय गा हो, वहका निकाल, साफ कर...मीडिया का बुला। दुनिया का पता तव चलय कि हम्मय पुरस्कार मिला रहा। कउनव यादय नाही राखत कि हमहूं का पुरस्कार मिला रहा। यही आंधी मा गांधी बन जाव बच्चा।
अच्छा, तो आप भी सांप्रदायिक हवा के खिलाफ हैं हुजूर। पहले तो कभी जिक्र नहीं किए। इतने दिन से मैं आपके साथ हूं, पर कभी लगा ही नहीं कि धर्म-सांप्रदायिकता जैसे शब्द आपके लिए कोई मतलब रखते हैं। जिससे मिले हंसकर मिले। फिर अचानक आपको भी माहौल में सांप्रदायिकता की बू कैसे आने लगी?
धत्त जमूरे...। हम तो अबहूं मुतमइन हूं कि हमारे देश का ई सब छोटी-मोटी घटना से कउनव फरक नाही पड़ी। हम तो मौका देख रहेन। हवा बही है, तो साथ-साथ फायदा लूट लियव आउर कुछ नाही।
अब देखव जमूरे...। इतना लोगन का साहित्य अकादमी मिला, पर केहू का याद नाही रहा। धड़ाधड़ सब लौटावय शुरू किहिन तव पूरी-पूरी लिस्ट अखबारन मा छपय लाग। चैनल वाले धड़ाधड़ मुंह मा माइक घुसेड़ रहे। जेतना पब्लिसिटी तब नाही मिली रही जब पुरस्कार मिला रहा, वोहसे जादा तव अब मिलत है। फिर हींग लगे न फिटकिरी रंग चोखा आ ही जाई, पुरस्कार के साथ मिला पइसवा थोड़य न लौटाइब हम। अब जादा बकर-बकर न कर... जा पोटली झाड़, पुरस्कार छांट और मीडिया का बुला। तब तक हम तनी तानकर सो लें...।
-विशाल शुक्ल ‘अक्खड़’