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पुरूषोत्तम कुमार सिन्हा के बारे में

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पुरूषोत्तम कुमार सिन्हा की पुस्तकें

Purushottam

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मेरी कविताओं की दुनियाँ में आपका स्वागत है। यकीन है मुझको ककि आप खुद को यहाँ ढूंढ पाएंगे। एक तलाश, जो कहीं न कहीं आपके अन्दर कस्तूरी की तरह छुपी है, उससे आप रूबररू हो पाएंगे। आइए संग चलते हैं, मेरी कविताओं पर

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8 रचनाएँ

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मेरी कविताओं की दुनियाँ में आपका स्वागत है। यकीन है मुझको ककि आप खुद को यहाँ ढूंढ पाएंगे। एक तलाश, जो कहीं न कहीं आपके अन्दर कस्तूरी की तरह छुपी है, उससे आप रूबररू हो पाएंगे। आइए संग चलते हैं, मेरी कविताओं पर

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पुरूषोत्तम कुमार सिन्हा के लेख

निःस्तब्धता

2 जुलाई 2019
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टूटी है वो निस्तब्धता,निर्लिप्त जहाँ, सदियों ये मन था!खामोश शिलाओं की, टूट चुकी है निन्द्रा,डोल उठे हैं वो, कुछ बोल चुके हैं वो,जिस पर्वत पर थे, उसको तोल चुके हैं वो,निःस्तब्ध पड़े थे, वहाँ वो वर्षों खड़े थे, शिखर पर उनकी, मोतियों से जड़े थे, उनमें ही निर्लिप्त, स्वयं में संतृप्त, प्यास जगी थी, या

माँ , बेटा और प्रश्न

12 मई 2019
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माँ से फिर पूछता नन्हा "क्या हुआ फिर उसके बाद?""निरुत्तर माता, कुछ पल को चुप होती,मुस्कुराकुर फिर, नन्हे को गोद में भर लेती,चूमती, सहलाती, बातों से बहलाती,माँ से फिर पूछता नन्हा "क्या हुआ फिर उसके बाद? माँ, विह्वल सी हो उठती जज्बातों से,माँ का मन, कहाँ ऊबता नन्हे की बातों से?हँसती, फिर गढ़ती इक नई

उपांतसाक्षी

9 दिसम्बर 2017
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न जाने क्यूँ..... जाने.... कितने ही पलों का... उपांतसाक्षी हूँ मैं, बस सिर्फ.... तुम ही तुम रहे हो हर पल में, परिदिग्ध हूँ मैं हर उस पल से, चाहूँ भी तो मैं .... खुद को... परित्यक्त नहीं कर सकता, बीते उस पल से। उपांतसाक्षी हूँ मैं.... जाने.... कितने ही दस्तावेज

अनन्त प्रणयिनी

25 नवम्बर 2017
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कलकल सी वो निर्झरणी, चिर प्रेयसी, चिर अनुगामिणी, दुखहरनी, सुखदायिनी, भूगामिणी, मेरी अनन्त प्रणयिनी...... छमछम सी वो नृत्यकला, चिर यौवन, चिर नवीन कला, मोह आवरण सा अन्तर्मन में रमी, मेरी अनन्त प्रणयिनी...... धवल सी वो चित्रकला, नित नवीन, नित नवरंग ढ़ला, अनन्त काल स

बदल रहा ये साल

16 नवम्बर 2017
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युग का जुआ कांधे देकर, बदल रहा ये साल... यादों के कितने ही लम्हे देकर, अनुभव के कितने ही किस्से कहकर, पल कितने ही अवसर के देकर, थोड़ी सी मेरी तरुणाई लेकर, कांधे जिम्मेदारी रखकर, बदल रहा ये साल... प्रगति के पथ प्रशस्त देकर, रोड़े-बाधाओं को कुछ समतल कर, काम अधूरे से बहुतेरे रखकर, निरंतर बढ़ने को कहकर

ऋतुराज

10 नवम्बर 2017
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फिजाओं ने फिर, ओस की चादर है फैलाई, संसृति के कण-कण पर, नव-वधु सी है तरुणाई, जित देखो तित डाली, नव-कोपल चटक आई, ऋतुराज के स्वागत की, वृहद हुई तैयारी..... नव-वधु सी नव-श्रृंगार, कर रही ये वसुंधरा, जीर्

क्यूँ झाँकूं मैं बाहर

8 नवम्बर 2017
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क्यूँ झाँकूं मैं मन के बाहर..... जब इतना कुछ घटित होता है मन के ही भीतर,सब कुछ अलिखित होता है अन्दर ही अन्दर,कितने ही विषयवस्तु, कौन चुने आकर? बिन लघुविराम, बिन पूर्णविराम... बिन मात्रा, शब्दों बिन प्रस्फुटित होते ये अक्सर, ये निराकार से प्रतिबिंब यूँ ही काटते चक्क

वापी

7 नवम्बर 2017
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ले चल तू मुझको उस वापी ऐ नाविक, हो आब जहाँ मेरे मनमाफिक। अंतःसलिल हो जहाँ के तट, सूखी न हो रेत जहाँ की, गहरी सी हो वो वापी, हो मीठी सी आब जहाँ की। दीड घुमाऊँ मैं जिस भी ओर, हो चहुँदिश नीवड़ जीवन का शोर, मन के क्लेश धुल जाए, हो ऐसी ही आब जहाँ की। वापी जहाँ थिरता हो धीरज, अंतःकीचड़ खिलते हों जहाँ जलज

मेरे पल

5 नवम्बर 2017
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वो कुछ पल जो थे बस मेरे...... युँ ही उलझ पड़े मुझसे कल सवेरे-सवेरे, वर्षों ये चुप थे या अंतर्मुखी थे? संग मेरे खुश थे या मुझ से ही दुखी थे? सदा मेरे ही होकर क्युँ मुझ से लड़े थे? सवालों में थे ये अब मुझको ही घेरे! वो कुछ पल जो थे बस मेरे...... सालों तलक शायद था अनभिज्ञ मैं इनसे, वो पल मुझ संग यूँ जिय

स्नेह वृक्ष

3 नवम्बर 2017
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बरस बीते, बीते अनगिनत पल कितने ही तेरे संग, सदियाँ बीती, मौसम बदले........ अनदेखा सा कुछ अनवरत पाया है तुमसे, हाँ ! ... हाँ! वो स्नेह ही है..... बदला नही वो आज भी, बस बदला है स्नेह का रंग। कभी चेहरे की शिकन से झलकता, कभी नैनों की कोर से छलकता, कभी मन की तड़प और सं

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