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राजेन्द्र अवस्थी के बारे में

मैं लघुशस्त्र निर्माणी कानपुर में सेवारत हूँ कविता मुझमे सहज विराजती है जब तक जन्म ना ले ले मुझे व्याकुल रखती है शब्द ही मेरी पहचान हैं.. "भले ना हो पास मेरे शब्दों का खजाना, ना ही गा सकूँ मैं प्रशंसा के गीत, सरलता मेरे साथ स्मृति मेरी अकेली है, मेरी कलम मेरी सच्चाई बस यही मेरी सहेली है"

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राजेन्द्र अवस्थी की पुस्तकें

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राजेन्द्र अवस्थी के लेख

होरी..

14 मार्च 2017
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हम गिरि गेन भइया होरी मा,खुब रंगिगेन रंग अबीरी मा,जब सबै लोग रंग ख्यालै लाग,ह्रिदय इच्छा हमरेओ जाग,हम मचा दीन फिरि दउड़ भाग,सब रंगि दीन्हेन लरिका हमका,तब पत्नी का गुस्सा भड़का,उई मुहिं ते मिर्चा दई मारेन,धरि बंदूक की गोली मा, हम गिरि गेन भइया होली मा......खुब रंगि..जब बकि लीन्हेन जिउ भरि हमका,तौ तमक

रमपलवा

19 अक्टूबर 2015
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खेल खिलौने पढ़ना लिखना हँसना तक वो छोड़ चुका है,सुबह से लेकर रात तलक बस काम से नाता जोड़ चुका है,अब गाई चराई रमपलवा,बापु सिधारेस स्वर्गलोक,औ घरु मा माई करै सोकु,पेटु का खाली भा गढ़वा,अब गाई चराई रमपलवा,है उमिर बरस बारा कै बसि,नेकर ढीली लीन्हेस कसि,नंगे पाँव जरैं तरवा,अब गाई चराई रमपलवा,गोरू ख्यातन म

मँहगी राखी सस्ता प्यार..

30 अगस्त 2015
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मैं अभागा,चुप था देेख राखी का धागा,मँहगाई से त्रस्त सादा सा बेरंग,मजबूरी और भावनाओं से तंग,क्या ऐसा होता है त्योहार,कहाँ गया वो तुम्हारा प्यार,आँखों में आँसू भर बहना बोली,प्यार से भरी है और पैसे से खाली है मेरी झोली,पर तुम उदास मत होना,आपकी दूसरी बहन सोना,जरूर मँहगी राखी लायेगी,भाई के त्योहार में चा

घोड़ा गाड़ी

23 अगस्त 2015
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पुतऊ बोले एक दिना,बप्पा हम लेबे गाड़ी,साइकिलौ खचड़िया होइ गै है,अब लेबै हम इंजन वाली,हम बोलेन गाड़ी का करिहौ,मँहगाई ससुर बहुत बाढ़ी,एकु घोड़ा तुमका लई देबे,गाड़ी तौ जंग लगी ठाढ़ी,पेट्रोल मा आगी लागि रही,डीजल कऱू तेल होइगा,गैसौ भभकि रही द्याखौ,मिट्टी क तेलु तिली होइगा,खुब समुझावा हाँथ जोरि,तब छाँड़े

हिंदी का हीरा

30 अप्रैल 2015
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काल्हि घरइतिन झनकि परीं,ना जानै हमते का होइगा,हम जाइत रहै कबिताई करै,ना जानै को काँटा बोइगा,हम कहा कि काँपी लै आओ,सब बेद पुरान उई दइ मारेन,जंउ कपार मा करकटु भरा रहै,उई छिन मा मुंहि ते बकि डारेन,औ लाल लाल आँखी किहिने,हमका खुब धद्धरि घुर्चैं,नेतवन के जइसे बोल बचन,उई प्रभु परसादी अस खर्चैं,हम तिनका द

भू-सुर

28 अप्रैल 2015
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गजेन्द्र सिंह की मृत्यु से आहत..

सरकारी नौकरी

27 अप्रैल 2015
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लिखत लिखत जब कलम टूटि,तब मलकिन बोलीं याक दिना,तुम्हरे बिनु हम रहि लेबै,मुल साथ ना रहिबे एकु दिना,हमहूँ स्वाचा कुछु करैक चही,कर्जा ते कब तक कामु चली,बिना कमाये घरु बाहेर,पूरी पानी मा अब ना तली,यहै सोचि के याक दिना,डिगरी लई लीन गठरिया मा,औ निकरि परेन घर ते बाहेर,करै नामु फुलबरिया मा,बना रहै कालेजु नवा

नया क्या है

27 अप्रैल 2015
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नया खोजने की चाह

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