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राजू का साहस

24 जनवरी 2022

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उन दिनों मैं स्कूल में पढ़ता था। राजू स्कूल छोड़ देने के पश्चात् जन-सेवा में लगा रहता था। कब किस पर कैसी मुसीबत आयी, उससे उसे मुक्त करना, किसी बीमार की सेवा-टहल, कौन कहाँ मर गया, उसका दाह-संस्कार इत्यादि कार्य वह दिन-रात किया करता था।
मैं राजू का दाहिना हाथ था। जरूरत पड़ने पर राजू मुझे बुला भेजता। दाह-संस्कार के कार्य अकेले न कर सकने के कारण उसे मेरी जरूरत प्रायः पड़ती ही थी।
एक बार ज्येष्ठ एकादशी के दिन हमारे मामा के यहाँ नाटक हो रहा था। कलकत्ता से पार्टी आई थी। गांव के सभी लोग नाटक देखने आए थे। मैं एक कोने में बैठा तन्मयतापूर्वक नाटक देख रहा था। ठीक उसी समय न जाने राजू कहाँ से टपक पड़ा और मुझसे बोला “सुनो, इधर आओ ?”
मैं बाहर चला आया। राजू ने कहना जारी रखा- “उस मुहल्ले में तारापद के लड़के की मृत्यु हैजा से अभी हो गई है। महज तीन साल का छोटा बच्चा है। एक ही लड़का था तारापद का। तारापद और उसकी पत्नी लाश को लेकर रो-रोकर जमीन आसमान एक किए दे रहे हैं। मेरे विचार में इस छूत की बीमारी वाली लाश का शीघ्र अंतिम संस्कार कर देना चाहिए। सोच रहा हूँ, इसी समय श्मशान ले चलूं। गांव के सभी लोग तो नाटक देख रहे हैं। कोई बुलाने से भी नहीं आ रहा। चल, तू तो मेरे साथ चल।”
बिना कोई प्रतिवाद किए मैं चुपचाप उसके साथ हो लिया। अधूरा नाटक ही मेरे भाग्य में था।
तारापद और उसकी पत्नी को जैसे तैसे दिलासा देकर, जैसे तैसे हमने उसके बच्चे की लाश एक तरह से हमने अंतिम संस्कार के लिए छीन ली। उसके बाद हम गांव से श्मशान की ओर चल पड़े। रात बहुत बीत चुकी थी। एक बजने को था। सर्वत्र अंधियारा था।
रास्ते में मैंने राजू से कहा - “एक लालटेन साथ ले लेते तो अच्छा था।”
राजू ने कहा- “अच्छा तो होता पर इस समय मिलेगी कहाँ? घर में कौन बैठा है? मेरे पास माचिस है, जरूरत पड़ी तो इसी से काम चलाएंगे।”
जवाब में मैंने कुछ नहीं कहा। मृत बच्चे को गोद में लिए राजू आगे-आगे चल रहा था। पीछे-पीछे मैं चुपचाप चला जा रहा था।
श्मशान गंगा किनारे है। श्मशान विराट और भयावह नीरव है जिसके कारण लोग दिन में भी आने से यहाँ डरते हैं। आसपास दूर-दूर तक कोई गांव या झोंपड़ी तक नहीं है। नाम मात्र को दो-चार खजूर और कटहल के विशालकाय वृक्ष हैं जो वातावरण को और भारी बनाते हैं। दूर दूर तक गंगा की बालू दिखाई देती है।
श्मशान के बीचों बीच एक फूस की झोंपड़ी थी। क्रिया-कर्म करने वाले इसी झोंपड़ी में धूप-बरसात में पनाह लेते थे। लोगों का कहना था कि झोंपड़ी में भूतों का अड्डा है। रात की तो बात ही छोड़िए, दिन में भी कोई आदमी उस झोंपड़ी के भीतर अकेले जाने से डरता था।
राजू इन सब अफवाहों पर ध्यान नहीं देता था। वह सीधे उस झोंपड़ी में घुस गया। यद्यपि मैं भी उसके पीछे-पीछे उस झोंपड़ी में आया। लेकिन स्वाभाविक रूप में नहीं। मैं डरा हुआ था और मुझे लग रहा था कि किसी ने मेरा हाथ पैर कसकर पकड़ रखा है। साथ में राजू था इसी लिए कुछ हिम्मत थी वरना मैं कब का भाग खड़ा होता।
जमीन पर लाश रखते हुए राजू ने कहा - “काफी देर से बीड़ी नहीं पी है। चल पहले एक-एक बीड़ी पी ली जाए। इसके बाद आगे काम करेंगे। क्यों ठीक है न?”
राजू के प्रश्न का उत्तर मैं देने जा रहा था कि उस अन्धकारमय झोंपड़ी के भीतर स्पष्ट रूप से यह आवाज सुनाई दी - “क्या एक बीड़ी मुझे भी दे सकते हैं?”
भय से मेरा कलेजा मुँह को आ गया। सिर के बाल तक खड़े हो गए। मारे भय के सारा बदन पसीने से तरबतर हो गया।
लेकिन राजू ने ठण्डे स्वर में पूछा -“तुम हो कौन?”
उत्तर आया “मैं हूँ?”
“मैं हूँ...” कहते हुए राजू ने माचिस जलाई। क्षणिक सी रोशनी में हमने देखा – हमारे पास ही एक मैले बिस्तर पर मनुष्य की तरह की कोई आकृति पसरी हुई है। सिर से पैर तक सारा बदन कपड़ों से ढंका हुआ है।
राजू ने अच्छी तरह देखने के बाद कहा - “अरे, यह तो एक और मुर्दा है। पता नहीं कौन ले आया है? शायद लकड़ी लाने गए हैं।”
तभी आवाज फिर से आई - “नहीं बेटा, मैं मुर्दा नहीं हूँ।”
इस बार अत्यधिक भय के कारण मैं राजू से लिपट गया। मैं बेतरह कांप रहा था। मेरी घिग्घी बंध गई। लेकिन राजू, वाह रे राजू! धन्य है तू! उसने उसी निर्भय भाव से पूछा- “तब तुम कौन हो?”
माचिस की तीली बुझ चुकी थी। राजू ने दूसरी जलाई। इस बार गौर करने पर पता चला कि आवाज गन्दे कपड़ों के भीतर से आ रही थी- “मैं गंगा यात्री हूँ बेटा!”
राजू ने मुझे ढाढ़स बंधाते हुए कहा -“डरने की बात नहीं है रे! यह मुर्दा नहीं – गंगा यात्री है!”
इसके बाद एक बीड़ी सुलगाकर उसके मुँह में ठूंस दी। वह एक कृशकाय वृद्ध था। बीड़ी का कश लेने के बाद उसकी आवाज फिर आई। इस बार उसकी आवाज में परम तृप्ति थी- “ओह! जान बची। कई दिन हुए यहाँ ला कर पटक दिए हैं। मांगने पर कोई बीड़ी भी नहीं पिलाता। सबके सब कमीने हैं।”
अब राजू ने वृद्ध से सवाल करना शुरू किया- “कितने दिन हुए यहाँ आए? तुम्हारे साथ कितने आदमी हैं? वे लोग कहाँ गए?”
वृद्ध ने कहा- “तीन दिन हुए। मौत नहीं आ रही है। मेरे दो नाती और एक पड़ोसी मुझे यहाँ ले आए हैं। वे लोग भी मेरे साथ यहाँ थे। आज न जाने कहाँ पास ही में कलकत्ता से कोई नाटक कम्पनी आई है- वहीं वे लोग नाटक देखने चले गए हैं। मैं जल्दी मर नहीं रहा हूँ। यहाँ तो गंगा किनारे की हवा खाकर चंगा हुआ जा रहा हूँ। मरने का नाम ही नहीं ले रहा हूँ। पता नहीं मेरे भाग्य में क्या है – न जाने क्या होगा! एक बार गंगा-यात्री बनने के बाद सुना है, घर वापस नहीं जाना चाहिए।”
राजू ने कहा - “कौन कहता है कि घर नहीं जाना चाहिए। आपको देखने पर कोई नहीं कह सकता कि आप मरने वाले हैं। अभी तो आप काफ़ी भले-चंगे हैं। आपका घर कहाँ है? चलिए घर लौट चलिए। हम लोग आपको वापस ले जाएंगे, नहीं तो आपको घर वापस नहीं जाना चाहिए कहने वाले लोग ही शायद आपका गला दबा देंगे।”
वृद्ध ने कहा -“तुम ठीक कह रहे हो बेटा! कई दिनों से यही बात कहकर वे लोग मुझे डरा रहे हैं। पता नहीं कब मेरा गला दबा दें।”
राजू ने कहा- “खैर, कोई हर्ज नहीं। हम लोग अपना काम पूरा करते हैं फिर आपको अपने साथ ले चलेंगे। आज की रात आप मेरे घर रह लेना, कल सुबह आपको घर छोड़ आएंगे।”
तारापद के लड़के का दाह संस्कार हमने किया। इसके पश्चात् राजू गंगा में स्नान कर वापस आया। मुझसे कहा- “तू यह सब कपड़ा बिछौना पकड़ ले मैं इनको उठा लेता हूँ”
जिस तरह आते समय आए थे, हम उसी तरह वापस जा रहे थे। राजू वृद्ध को पीठ पर लादे चल रहा था। पीछे मैं गठरी-चद्दर लादे चुपचाप चल रहा था।
मामा के घर के पास आने पर मालूम हुआ – नाटक अभी समाप्त नहीं हुआ है। 

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