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समर की अमर दोस्ती

24 सितम्बर 2023

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डोरबेल की कर्कश आवाज से उन दोनों की नींद खुल गई। हड़बड़ाते हुए मिश्रा जी और उनकी पत्नी उठे। मिश्रा जी ने तुरंत लाइट जलाकर घड़ी पर नज़र डाली। “अरे! बाप रे बाप, पाँच बज गए, तुमने उठाया क्यों नहीं”, मिश्रा जी ने कहा। पता ही नहीं चला कब अलार्म बजा था। शायद कल की थकान के कारण, मिश्रा जी की पत्नी ने कहा। बहुत जल्दी-जल्दी काम निपटाओ नहीं तो फ्लाइट छूट जायेगी, मिश्रा जी ने गीजर का बटन दबाकर ब्रश पर पेस्ट लगाते हुए कहा। हाँ-हाँ जल्दी करो, मैंने चाय चढ़ा दी है, जल्दी से फ्रेश होकर आ जाओ, ये कहकर मिसेज मिश्रा दरवाजा खोलने चली गईं। दरवाज़ा खोलते ही सामने अमर था। तैयार नहीं हुए क्या अभी तक, ये फ्लाइट छुड़वा देंगे। बचपन से देख रहा हूँ इनके रंग-ढंग, इसीलिए मैं तय समय से पहले आ गया। सुबह जल्दी उठना तो कभी भी नहीं हुआ इनसे। अन्दर आओ अमर भईया, चाय तैयार है। जब तक ये तैयार होते हैं आप चाय पीजिये। न्यूज़ पेपर आ चुका था और समर भी। शालिनी चाय नाश्ता लेकर आ चुकी थी। अब जल्दी करिए नहीं तो फ्लाइट छूट गई तो मुझसे मत कहना, अमर ने समर से कहा। हाँ-हाँ इसीलिए तो तुम्हें जिम्मेदारी सौंप देता हूँ, जानता हूँ कि अलार्म धोखा दे सकता है पर अमर नहीं।

समर नारायण मिश्रा के पिता कस्बे की कचहरी में एक वकील के मुंशी हुआ करते थे। उन्हीं वकील साहब के पास अमर लाल के पिता डाक-बाबू, चपरासी और रसोइये का काम देखते थे। दोनों ही वकील साहब के बंगले के पीछे बने सर्वेंट क्वार्टर में रहकर किसी तरह अपना जीवन-यापन कर रहे थे। पास के सरकारी स्कूल से दोनों ने आठवीं तक की पढाई की और उसके बाद एक ही इंटर कॉलेज से दसवीं और बारहवीं। समर एक मेधावी छात्र था। दसवीं और बारहवीं दोनों ही बोर्ड परीक्षाओं में जिले में सबसे अव्वल आया था। अमर का मन पढ़ने में कम पहलवानी में ज्यादा लगता था। अमर के पिताजी को उसका कुश्ती का शौक कभी पसंद नहीं आया पर अमर ने अपनी कुश्ती का साथ नहीं छोड़ा। उसके पिताजी को लगता कि अमर नाहक ही कुश्ती में समय जाया करता रहता है। कुछ पढ़-लिख ले तो उसकी छोटी-मोती नौकरी का प्रबंध हो जाए। अमर की कुश्ती की प्रैक्टिस जारी रही। पूरे कस्बे और आस-पास के गाँव में ऐसा कोई नहीं था जो अमर को पछाड़ सके, परन्तु उसके पिताजी ने कभी भी अमर को किसी भी पहलवानी प्रतियोगिता में शामिल नहीं होने दिया ये कहकर कि मालिक लोगों के बच्चों को उठा-उठाकर पटकेगा क्या? ये सब करना है तो कहीं और चला जा। अमर लाल सचमुच ही कस्बे को छोड़कर गायब हो गए एक दिन  और लाख पता लगाने पर भी उनका पता नहीं चला। अमर के पिता को हमेशा इस बात का अफ़सोस रहा कि आखिर उन्होंने अमर को ऐसी बात क्यों कही और क्यों उसे यहीं कस्बे में ही पहलवानी नहीं करने दी। अमर और समर के पिता एक ही गाँव के थे और हमेशा अच्छे दोस्त बनकर रहे। उसी तर्ज पर अमर और समर में भी बड़ी ही प्रगाढ़ दोस्ती थी। समर को भी हमेशा दोस्त अमर की कमी खलती थी।

समर को मेधावी छात्र देखकर वकील साहब ने उसके पिता से बोल दिया था कि कभी भी पैसों की वजह से समर की पढाई नहीं रुकनी चाहिए और समर के नाम से प्रतिमाह वजीफ़ा तय कर दिया। फिर क्या था? समर मेधावी तो था ही एक के बाद एक सफलता के झंडे गाड़ते चला गया और अंततोगत्वा जब उसने यू०पी०एस०सी० की परीक्षा पास कर ली तो वकील साहब ने अपनी इकलौती बेटी शालिनी का समर से रिश्ते का प्रस्ताव रखा। वकील साहब कस्बे के प्रतिष्ठित नागरिक तो थे ही ऊपर से जीवन भर उनका सहयोग समर के लिए, सिर्फ ये दो कारण ऐसे थे कि समर के पिता के पास रिश्ते से इन्कार करने का कोई हौसला बनता नहीं दिखाई दिया। समर तो था ही आज्ञाकारी लिहाज़ा रिश्ता हुआ और वकील साहब की सारी संपत्ति पर अब समर का अधिकार था। क़स्बा शहर का रूप ले चुका था और समर नारायण मिश्रा उस शहर के सर्वाधिक प्रतिष्ठित व्यक्ति का नाम था।

अमर कस्बे से भागकर हरियाणा के रोहतक पहुँचा परन्तु पहलवानी की एकाध प्रतियोगिता जीतकर स्थानीय तौर पर पहलवान तो बना पर इस क्षेत्र में आगे किसी मुकाम पर न जा सका।  शायद उसके लिए तब पहलवानी से ज्यादा अपनी रोज़ी जरूरी हो गई थी और अपने परिवार के पास वापस भी नहीं जा सकता था अपने हठ के कारण। समर की याद उसे भी आती थी। पर समर के लिए भी वह अपनी जिद्द न छोड़ सका। एक दिन वह रोहतक छोड़कर दिल्ली चला गया। रात को फुटपाथ पर सो जाता और किसी तरह मजदूरी आदि करके थोड़ा-बहुत कमा लेता। बस इसी तरह अब वह अपना गुजारा कर रहा था। फुटपाथ पर झाड़ू बुहारते-बुहारते लक्ष्मी ने देखा कि एक सजीला-गठीला नवजवान जूट के बोरे पर घोड़े बेचकर सो रहा है। “ऐ हटो, मुझे झाड़ू लगानी है”, लक्ष्मी ने सोते हुए अमर से कहा। पर अमर जाग रहा होता तो सुनता। लक्ष्मी ने झाड़ू से अमर को एक फटका लगाया तो वह हडबडाकर उठ बैठा। “अरे हटो यहाँ से मुझे सफाई करनी है, मेट ने आकर मुआयना किया और गंदगी पाई तो मेरी दिहाड़ी से कटौती कर लेगा”, लक्ष्मी ने नाराज़गी और अनुनय के मिश्रित स्वर में कहा। ओह्ह! सॉरी, कहकर हट गया अमर। अरे वाह! फुटपाथ पर सोता है और अंग्रेजी बोलता है। लक्ष्मी को अमर के बारे में जानने की उत्सुकता हुई। लक्ष्मी ने झाड़ू बुहारना रोककर, झाड़ू को पेड़ के बाड़े से सटाकर खड़ा कर दिया। अमर के पास पहुँचकर पूछा लक्ष्मी ने, “कौन हो? कहाँ से हो? क्या करते हो? यहाँ फुटपाथ पर क्यों सोते हो? कोई रहने की जगह नहीं हैं क्या?”। बहुत सारे प्रश्न दाग दिए लक्ष्मी ने। “मुझे नहीं पता”, अमर ने कहा।  अरे! काम-वाम पर नहीं जाते हो। हाँ जाता हूँ, दिहाड़ी मजदूरी करता हूँ पर आज देर हो गई है तो आज काम मिलने के चांस नहीं हैं। अमर अपना बोरा उठाकर वहीँ पर एक नीम के पेड़ पर दो डाल के बीच में फँसाकर फुटपाथ के किनारे छोटे से पार्क की दो-फुटी दीवाल पर उदास होकर बैठ गया। लक्ष्मी को प्रतीत हुआ कि अमर उसके सवालों से शायद परेशान हो गया है। अपनी साड़ी के पल्लू को लपेटकर अपनी कमर में खोंसकर उसने झाड़ू उठा ली। लक्ष्मी झाड़ू बुहारते-बुहारते आगे बढ़ गई। तक़रीबन दो-ढाई घंटे बीतने पर लक्ष्मी उसी जगह से वापस जा रही थी तो उसने देखा कि अमर अभी भी उसी दीवाल पर उसी पोज में बैठा हुआ था। पता नहीं क्यों लक्ष्मी के मन में अमर के प्रति दया का भाव उमड़ आया। अमर के पास पहुँचकर लक्ष्मी ने पूँछा कि अमर ने कुछ खाया या नहीं। अमर के स्वाभिमान पर पेट की भूख भारी पड़ गई और उसने नहीं में सिर हिला दिया। अरे, इतना समय हो गया तुमने कुछ नहीं खाया। मेरा खाना तो तुम खा नहीं सकते तो ये दस रूपये ले लो और सामने खोमचे से छोले-भठूरे खा लो। ले लो शरमाओ मत। कुछ देर की ना-नुकुर के बाद अमर ने भरपेट छोले-भठूरे खाकर अपना पेट भर लिया। तुम्हारे दस रूपये कल लौटा दूँगा। मैंने तुम्हारा खाना इसलिए नहीं खाया कि अगर मैं तुम्हारा खाना खा लेता तो फिर तुम क्या खातीं। और रही बात बिरादरी की तो हम और तुम एक ही हैं। अच्छा! लक्ष्मी को थोड़ा संतोष हुआ और मजाक में बोली तो छोले-भठूरे मैं खा लेती। चल अब कल तुम हमारे दस रूपये वापस नहीं करना पर छोले-भठूरे और दही-जलेबी खिलवा देना। अमर कुछ कह नहीं पाया सिर्फ सहमति में सिर हिला सका। एकदम से लक्ष्मी ने कहा कि मेरे साथ चलो। पर कहाँ जाना है तुम्हारे साथ? चलो तो सही, क्या पता तुम्हारे फायदे की कोई बात हो। अमर के पास उस दिन कोई काम तो था नहीं तो उसे इसमें कोई हर्ज नहीं दिखा। लक्ष्मी उसको असलम के पास ले गई जहाँ उसका भाई मेकैनिक था। असलम का किराये की टैक्सी का कारोबार था। असलम से लक्ष्मी ने अमर का परिचय अपने गाँव के रिश्तेदार के तौर पर कराया। असलम ने अमर का एक संक्षिप्त सा परिचय लिया। गाड़ी-वाड़ी चला लेते हो या नहीं। हाँ-हाँ क्यों नहीं। मेरे पास तो ड्राइविंग लाइसेंस भी है। अमर को ड्राईवर की नौकरी मिल गई थी। लक्ष्मी को उसका नाम पता चल चुका था। वहाँ से चलते समय लक्ष्मी ने अमर को नाम से पुकारा। चलिए अमर जी, आपकी नौकरी लग गई है। कुछ आइसक्रीम वगैरह खिलाएंगे या नहीं। वैसे तो पार्टी बनती हैं पर अभी-अभी खाना खाया है तो वो तो किसी और दिन सही। छोड़ूँगी नहीं मैं। लक्ष्मी की इतनी सारी बकबक से अब अमर भी सहज हो गया था उसके साथ बात करने में और अब अमर भी बेतकल्लुफ़ होकर बात करने लगा था। हाँ-हाँ मत छोड़ना, ले लेना पार्टी, पर अब अपना नाम तो बता दो। क्या मैंने अभी तक अपना नाम नहीं बताया। वैसे क्यों बताती, तुमने पूछा ही कब था। पर देख लो, तुमने अपना नाम नहीं बताया परन्तु मैंने पता लगा लिया की तुम अमर हो। मैं अमर नहीं हूँ सिर्फ नाम है ये मेरा। पहले तो लक्ष्मी इस कथन का आशय नहीं समझी परन्तु बाद में समझ में आने पर जोर से हँसी। ठीक वैसे ही जैसे मेरा नाम लक्ष्मी है पर लक्ष्मी है नहीं। इतना कहकर फिर से ठठाकर हँसी लक्ष्मी। अमर के चेहरे पर भी मुस्कान बिखर गई थी। अमर ने गौर किया कि उसके जीवन में ये मुस्कान बहुत दिनों बाद लौटी थी। आइसक्रीम वाला भी पता नहीं क्यों मुस्कुरा रहा था।  अमर और लक्ष्मी की मुलाकातें अब रोज ही होने लगीं थीं। ये रिश्ता प्रगाढ़ होता गया और कुछ दिन बाद अमर और लक्ष्मी ने शादी कर ली थी।

एक दिन अमर से एक एक्सीडेंट हो गया जिसमें एक व्यक्ति की मृत्यु भी हो गई। अमर की गलती नहीं थी पर उसे जेल में डालकर मुक़दमा चला दिया गया। अमर की बेटी किसी तरह माँ से विरासत में मिले थोड़े-बहुत चाँदी-काँसे के गहने बेचकर लाये पैसे लेकर वकील करने निकली थी पर उतने पैसों में कोई भी ढंग का वकील नहीं हो पा रहा था। तभी उसने कचहरी में एक बोर्ड लगा देखा जिस पर लिखा था कि “आर्थिक रूप से कमज़ोर मुवक्किलों से कोई फीस नहीं, हमसे हमारे केबिन में आकर अपने मुकदमें की जानकारी दें”। सुकन्या अपने पिता अमर का मुक़दमा लेकर वकील यश नारायण के केबिन में पहुंची। उसके कागजातों को देखकर उसकी आर्थिक स्थिति की पुष्टि करने के बाद वकील के सहायक उसे यश के पास ले गए। वकील साहब ने अमर के केस की पैरवी करने के लिए अपनी सहमति दे दी। यश नारायण की कानूनी विद्वता के कायल उस कचहरी के  सभी वकील और मजिस्ट्रेट हुआ करते थे। यश का यश आर्थिक लोगों की निश्वार्थ सेवा के कारण दूर-दूर तक फ़ैल चुका था। अमर और लक्ष्मी ने भी सुकन्या को अच्छी शिक्षा दी थी और वह अब एक मल्टीनेशनल कम्पनी में एक छोटी सी नौकरी कर रही थी। मुक़दमे के दौरान आते-जाते यश और सुकन्या की मुलाकात अब प्यार में बदल गई थी और दोनों ने जीवन-भर साथ रहने का निश्चय कर लिया था।

यश और सुकन्या ने एक रेस्टोरेंट में अपने माता-पिता की मुलाकात तय की थी। दोनों बहुत आजाद ख्यालात के होते भी अपने परिवारों की सहमति से ही विवाह करना चाहते थे हालाँकि उनकी बिरादरी के अंतर के कारण शादी की मंजूरी मिलना बड़ा ही दुष्कर कार्य लग रहा था। उन्होंने तय किया कि अगर शादी नहीं हुई तो कोई बात नहीं हम आजीवन दोस्त बनकर रहेंगे। आज का दिन उनके जीवन के बड़े फैसले का दिन था।

समर नारायण मिश्रा ने अमर लाल को देखते ही पहचान लिया। दोनों रेस्टोरेंट के बाहर गले लगकर फूट-फूटकर रोने लगे। आखिर दो दोस्तों के अप्रत्याशित मिलन का दिन था। तुम यहाँ कैसे। अपनी बेटी के रिश्ते के लिए और तुम। अपने बेटे के रिश्ते के लिए। अमर और समर दोनों को ही इस अकस्मात् संयोग से कुछ आभास हुआ। क्या यश तुम्हारा बेटा है। फिर ये शादी नहीं हो सकती, अमर ने तपाक से कहा। क्यों नहीं हो सकती? समर ने प्रत्युत्तर में प्रश्न किया अमर से। तुम तो जानते हो कि हमारी बिरादरी क्या है? सब पता है मुझे कि तुम्हारी बिरादरी क्या है और हमारी बिरादरी क्या है। सुनो अमर, हमारी तुम्हारी बिरादरी एक है, दोस्ती की बिरादरी और ये शादी अवश्य होगी, मैं देखता हूँ तुम कैसे रोकते हो, समर गरज कर बोला। क्या कहा समर ने? अमर को सहसा अपने कानों के सुने पर विश्वास नहीं हुआ। क्या समर की बचपन की दोस्ती इतनी प्रगाढ़ है कि वो सामाजिक तानों-बानों के जाल को एक बार में उखाड़ कर फेंक देगा अपने इस दोस्ती के लिये? उसने समर को देखा तो समर ने सहमति में सिर हिला दिया। हाँ अमर, हमारी दोस्ती की बिरादरी किसी भी बिरादरी से बढ़कर है और फिर जब बचपन से आजतक भेद नहीं किया हमने-तुमने तो आज क्यों करें। अमर की आँखों से अश्रुधारा फूट पड़ी। अब क्या हुआ, अमर? पर तुम्हारी हैसियत, मैं तुम्हारी हैसियत की शादी कहाँ कर पाउँगा और दहेज़ क्या दूँगा में तुम्हे? अमर ने अपना दूसरा संदेह व्यक्त किया। तुम्हें पता है न कि मेरा बेटा यश कितना बड़ा वकील है, अगर दहेज़ के बारे में दोबारा बोला तो जेल करवा दूँगा। वैसे भी आज का दिन बहुत ही शुभ है। शादी तय होने से पहले दहेज में मुझे मेरा दोस्त मिल ही चुका है। बस वादा करो कि अब कभी मुझसे भागकर नहीं जाओगे। अमर थोड़ी देर सोच में या संकोच में खड़ा रहा। “कभी नहीं मेरे दोस्त, अब कभी भी तुमसे दूर नहीं जाऊँगा”, कहकर अमर समर के गले लग गया। दोनों की आँखों से अविरल अश्रुधाराएँ बह रहीं थीं।

चलो-चलो हमारे बच्चों ने मालद्वीव में हमारी छुट्टियाँ फिक्स्स की हैं और उन दोनों को इतने दिनों से देखा भी तो नहीं है। मिसेज मिश्रा ने दो अटैचियाँ निकाल कर दरवाजे की चाभी संभालते हुए दरवाजा बंद किया। हाँ-हाँ जल्दी करो। कहीं फ्लाइट छूट गई तो यहीं बैठे रहना। थोड़ी ही देर में उनकी टैक्सी एअरपोर्ट जाने वाली सड़क पर सरपट दौड़ रही थी।

(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”

दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"

दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"

काव्या सोनी जी को धन्यवाद

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