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सर्ग-संदेश

19 फरवरी 2022

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देशों में यदि सर्वोच्च देश बनना चाहो, 

पहले, सबसे बढ़ कर, भारत को प्यार करो । 

  

है चकित विश्व यह देख, 

धर्म के प्रतनु, प्रांशु पथ पर चल कर 

नय-विनय-समन्वित शूर 

लिये सबके हित कर में सुधा-सार, 

जानें, कैसे हम पहुंच गए उस ठौर, जहाँ 

है खड़ा जयश्री का दीपित गोपुरद्वार ! 

  

गोपुरद्वार केवल; 

कमला-मन्दिर में यहीं प्रवेश नहीं 

सिद्धियां अभी अविजित अनन्त, 

संघर्ष यहीं तक शेष नहीं । 

वह देखो, सम्मुख बिछी हुई रण-मही 

दीनता से पंकिल, अतिशय प्रचंड, 

चाहिए देश को तपन अभी जाज्वल्यमान, 

चाहिए देश को अभी रश्मि खरतर अखंड । 

जय तक यह रण है शेष, 

शिंजिनी-उन्मोचन का नाम कहाँ? 

जब तक यह रण है शेष, 

धुनर्धर वीरों को विश्राम कहाँ? 

  

यह विजय विजय है तभी, 

देश भर के जन-जन के मन-प्राण 

भारत के प्रति हों भक्तिपूर्ण; 

प्रत्येक देश-प्रेमी अपना 

सर्वस्व देश-पद पर धर दे; 

जिसमें जो भी हो तेज, 

आज वह उसको न्योछावर कर दे । 

  

निर्भीक साधना करो, 

अभय ही बोलो, बोलो कलाकार ! 

वाणीविहीन शत-लक्ष मानवों को देखो, 

इनका सुभोग्य स्वातंत्र्य समाहित कब होगा? 

कब तक पहुँचेगी ज्योति? 

तमिस्रा-ग्रसित, मूक 

मानवता का कब तक स्वराज्य सम्भव होगा? 

  

तुम हिचक रहे? 

आ पड़ा कहाँ से चरणों में यह द्विधा-पाश ? 

स्वाधीन जाति के तुम कल्पक ! 

तुम प्रभापूर्ण दर्पण मनुष्यता के मन के, 

तुम शुद्ध, बुद्ध, चेतना, 

कंठ जन का अजेय, 

तुम मानवता के स्वर अरुद्ध, 

तुम नहीं क्रेय-विक्रेय वह्नि, 

दुर्दम, उदग्र, पौरुष के अपराजेय गर्व, 

तुम चिर-विमुक्त, तुम नहीं दस्यु, तुम नहीं दास । 

  

तुम मौन हुए तो मूक मनुज की व्यथा कौन फिर बोलेगा? 

निष्पेषित नरता की पुकार का भेद कौन फिर खोलेगा? 

मर्दित हृदर्यों में दबे हुए नीरव जो क्रन्दन चलते हैं
,
 

बाहर जाने के लिए विकल भीतर जो भाव मचलते हैं । 

ओ कलाकार ! निर्भीक कंठ से उन्हें रुप दो, वाणी दो । 

प्रच्छन्न व्यथा को प्रकट करो, उत्तप्त गिरा कल्याणी दो
 

प्रतिक्रिया और प्रतिलोम शक्तियों को कर, शतत:, खंड-खंड, 

रोपो, हे रोपो, कलावंत ! दृढ़ता से धर्मध्वज अखंड । 

  

ओ सावधान कृषको ! 

जितनी हो चुकीं हमें संप्राप्त' सिद्धि, 

उसकी रक्षा के बिना कहाँ 

संभव आने वाली समृद्धि ? 

अपनी स्वतन्त्रता की विटपी 

सद्य स्फुट दो पत्तोंवाली, 

भारत के कृषको ! सावधान ! 

करनी है इसकी रखवाली । 

  

सींचो-सींचो, स्वातंत्र्य-मूल, इस नयी पौध को पानी दो, 

सम्पूर्ण देश के जीवन को अपना जीवन-रस दानी ! दो, 

यदि चूक हुई, तो खाद कुटिल कृमियों के दल खा जाएंगे, 

इस नयी पौध को घेर पड़ोसी तृण पीड़ा पहुँचाएंगे । 

इसलिए, सतत रह जागरूक देते जाओ अपना श्रमकण, 

इस पौधे का करते जायो वर्धन-विकास, रक्षण-पालन । 

दुष्काल दूर होगा ज्यों-ज्यों, यह सुधा वृक्ष उन्नत होगा, 

कुसुमित हो गंधागार, फलित होकर सबके हित नत होगा । 

सिद्धियां तुम्हारी लुप्त और ॠद्धियां नष्ट, यद्यपि, किसान
!
 

तब भी जो कुछ है किए हुए तुमको इतना उन्नत, महान, 

अतिशय अमोघ वह गुण अपना भारत के चरणों पर धर दो, 

सबके भाग्योदय के निमित्त अपने को न्योछावर कर दो । 

  

ओ जगज्जयी तुम शास्त्रकार ! 

ओ वैज्ञानिक ! 

संघर्ष प्रकृति की लीला से करनेवाले ! 

विज्ञान-शिखा कर दीप्त, 

भूमि का अंधकार हरनेवाले ! 

यदि तुम्हें ज्ञात हो गई मनुज की सहज वृति, 

यदि जाग गया तुममें मंगल का सहज बोध, 

यदि जाग गई तुममें शुभ सर्गात्मक प्रवृति, 

तो इससे बढ़ सौभाग्य दूसरा क्या होगा ? 

नीचे भू नव, ऊपर आकाश नया होगा । 

  

विधि के प्रपंच को खोदो, मिट्टी के भीतर, 

पृथ्वी के उस नूतन स्तर का संधान करो, 

जिससे होता उत्पन्न स्वर्ण, 

जिस मिट्टी से फूटता विभव का सहज स्रोत, 

इच्छाओं की घाटियाँ सभी पट जाती हैं । 

वह चमत्कार जिसको पा कर 

मानव के श्रम की पीड़ाएँ घट जाती हैं । 

है भंवर-जाल में जगत्, 

किसी विधि इस सागर को पार करो । 

संधानो कोई तीर, कर्ममय भूतल का 

हे मेधावी ! निज प्रतिभा से उद्धार करो । 

  

ओ वन्दनीय शिक्षको ! समाश्रय एकमात्र, 

उन दीपों के जिनको आज ही सँवरना है, 

आज ही दीप्ति संचित कर प्राणों के भीतर, 

जिनको भविष्य का भवन ज्योति से भरना है । 

  

ओ भाविराष्ट्र-हय की वल्गा धरनेवालो ! 

कल्पना-बीज हो जहाँ, वहाँ पर जल देना । 

प्रतिभा के अकुंर जहाँ कहीं भी दीख पड़ें, 

अपनी प्रतिभा का वहाँ मुक्त सम्बल देना । 

  

सब की श्रुतियों में भारत का संदेश भरो, 

सब को भारत की संस्कृति पर अनुरक्त करो । 

  

दावाग्नि-ग्रस्त वन के समान 

है जगत् दु:ख. से दह्यमान, 

शीतल मधु की निर्झरी यहीं से फूटेगी । 

  

बैठेगा विषफण तोड़ व्याल, 

निर्वापित होगा जगज्ज्वाल, 

भारत की करुणा धार बाँध कर छूटेगी 

छोड़ो शंका, भय, भ्रांन्ति, मोह, 

छोड़ो, छोड़ो, हीनता, द्रोह, 

लो, शुभ्र शान्ति का शरदच्चन्द्र वह आता है । 

  

देखो समक्ष वह जीवन-घन 

शीतल छाया, फूलों का वन, 

सामने शुभ्र, सुखमय भविष्य मुस्काता है । 

  

(मूल मलयालम कवि: श्री वेणिकुलम गोपाल कुरूप) 

(24 जनवरी, 1958 ई.)  

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रचनाएँ
मृत्ति-तिलक
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'मृत्ति-तिलक'। संग्रह की कविताओं में जहाँ देश के विराट व्यक्तियों के प्रति कवि का श्रद्धा-निवेदन है, वहीं कुछ कविताओं में उत्कट देश-प्रेम की ओजस्वी अभिव्यक्ति है। कुछ कविताएँ ख्यातनाम देशी-विदेशी कवियों की उत्कृष्ट रचनाओं का सरस अनुवाद हैं तो कुछ कविताओं में निसर्ग का सुन्दर चित्रण है। इन कविताओं की अद्भुत विशेषता है। अपने सरोकार और संवेदना में हिन्दी साहित्य के लिए थाती हैं ये कविताएँ। 'मृत्ति-तिलक' को पढ़ना हिन्दी काव्य के स्वर्ण-युग की यात्रा करना है।
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मृत्ति-तिलक

19 फरवरी 2022
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सब लाए कनकाभ चूर्ण,  विद्याधन हम क्या लाएँ?  झुका शीश नरवीर ! कि हम  मिट्टी का तिलक चढ़ाएँ ।     भरत-भूमि की मृत्ति सिक्त,  मानस के सुधा-क्षरण से  भरत-भूमि की मृत्ति दीप्त,  नरता के तपश्चरण से

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वलि की खेती

19 फरवरी 2022
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जो अनिल-स्कन्ध पर चढ़े हुए प्रच्छन्न अनल !  हुतप्राण वीर की ओ ज्वलन्त छाया अशेष !  यह नहीं तुम्हारी अभिलाषाओं की मंजिल,  यह नहीं तुम्हारे सपनों से उत्पन्न देश ।     काया-प्रकल्प के बीज मृत्ति में

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अमृत-मंथन

19 फरवरी 2022
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 १  जय हो, छोड़ो जलधि-मूल,  ऊपर आओ अविनाशी,  पन्थ जोहती खड़ी कूल पर  वसुधा दीन, पियासी ।  मन्दर थका, थके असुरासुर,  थका रज्जु का नाग,  थका सिन्धु उत्ताल,  शिथिल हो उगल रहा है झाग ।  निकल चुकी व

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भाइयो और बहनो

19 फरवरी 2022
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लो शोणित, कुछ नहीं अगर  यह आंसू और पसीना!  सपने ही जब धधक उठें  तब धरती पर क्या जीना?  सुखी रहो, दे सका नहीं मैं  जो-कुछ रो-समझाकर,  मिले कभी वह तुम्हें भाइयो-  बहनों! मुझे गंवाकर!  

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बापू

19 फरवरी 2022
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जो कुछ था देय, दिया तुमने, सब लेकर भी  हम हाथ पसारे हुए खड़े हैं आशा में;  लेकिन, छींटों के आगे जीभ नहीं खुलती,  बेबसी बोलती है आँसू की भाषा में।     वसुधा को सागर से निकाल बाहर लाये,  किरणों का

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पटना जेल की दीवार से

19 फरवरी 2022
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 मृत्यु-भीत शत-लक्ष मानवों की करुणार्द्र पुकार!  ढह पड़ना था तुम्हें अरी ! ओ पत्थर की दीवार!  निष्फल लौट रही थी जब मरनेवालों की आह,  दे देनी थी तुम्हें अभागिनि, एक मौज को राह ।     एक मनुज, चालीस

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स्वर्ण घन

19 फरवरी 2022
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उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!  बरसो, बरसो, भरें रंग से निखिल प्राण-मन हे!     भींगे भुवन सुधा-वर्षण में,  उगे इन्द्र-धनुषी मन-मन में;  भूले क्षण भर व्यथा समर-जर्जर विषण्ण जन हे!  उ

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राजकुमारी और बाँसुरी

19 फरवरी 2022
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राजमहल के वातायन पर बैठी राजकुमारी,  कोई विह्वल बजा रहा था नीचे वंशी प्यारी।  "बस, बस, रुको, इसे सुनकर मन भारी हो जाता है,  अभी दूर अज्ञात दिशा की ओर न उड़ पाता है।  अभी कि जब धीरे-धीरे है डूब रहा

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प्लेग

19 फरवरी 2022
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सब देते गालियाँ, बताते औरत बला बुरी है,  मर्दों की है प्लेग भयानक, विष में बुझी छुरी है।  और कहा करते, "फितूर, झगड़ा, फसाद, खूँरेज़ी,  दुनिया पर सारी मुसीबतें इसी प्लेग ने भेजीं।"  मैं कहती हूँ, अ

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गोपाल का चुम्बन

19 फरवरी 2022
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छिः, छिः, लज्जा-शरम नाम को भी न गई रह हाय,  औचक चूम लिया मुख जब मैं दूह रही थी गाय।     लोट गई धरती पर अब की उलर फूल की डार,  अबकी शील सँभल नहीं सकता यौवन का भार।  दोनों हाथ फँसे थे मेरे, क्या कर

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विपक्षिणी

19 फरवरी 2022
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(एक रमणी के प्रति जो बहस करना छोड़कर चुप हो रही)     क्षमा करो मोहिनी विपक्षिणी! अब यह शत्रु तुम्हारा  हार गया तुमसे विवाद में मौन-विशिख का मारा।  यह रण था असमान, लड़ा केवल मैं इस आशय से,  तुमसे

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संजीवन-घन दो

19 फरवरी 2022
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जो त्रिकाल-कूजित संगम है, वह जीवन-क्षण दो,  मन-मन मिलते जहाँ देवता! वह विशाल मन दो।     माँग रहा जनगण कुम्हलाया  बोधिवृक्ष की शीतल छाया,  सिरजा सुधा, तृषित वसुधा को संजीवन-घन दो।  मन-मन मिलते जह

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वीर-वन्दना

19 फरवरी 2022
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 (1)  वीर-वन्दना की वेला है, कहो, कहो क्या गाऊं ?  आँसू पातक बनें नींव की ईंट अगर दिखलाऊं ।  बहुत कीमती हीरे-मोती रावी लेकर भागी,  छोड़ गई जालियाँबाग की लेकिन, याद अभागी ।  कई वर्ष उससें पहले, जब

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भारत का आगमन

19 फरवरी 2022
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कुछ आये शर-चाप उठाये राग प्रलय का गाते,  मानवता पर पड़े हुए पर्वत की धूल उड़ाते ।  कुछ आये आसीन अनल से भरे हुए झोंकों पर,  गाँथे हुए मुकुट-मुंडों को बरछों की नोकों पर ।  कूछ आये तोलते कदम को मणि-मुक

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एक भारतीय आत्मा के प्रति

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(कवि की साठवीं वर्ष गांठ पर) रेशम के डोरे नहीं, तूल के तार नहीं, तुमने तो सब कुछ बुना साँस के धागों से; बेंतों की रेखाएं रगों में बोल उठीं, गुलबदन किरन फूटी कड़ियों की रागों से । चीखें जब बनती

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आगोचर का आमंत्रण

19 फरवरी 2022
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आदि प्रेम की मैं ज्वाला,  उतरी गाती यों प्रात-किरण,  जो प्रेमी हो, आगे बढ़,  मुझ अनल-विशिख का करे वरण ।     कहती गन्ध, साँस से जिसकी,  सुरभित हैं अग-जग, त्रिभुवन,  वृन्तहीन उस आदि पुष्प का,  मै

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निर्वासित

19 फरवरी 2022
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 बार-बार लिपटा चरणों से, बार-बार नीचे आया;  चूक न अपनी ज्ञात हमें, है दण्ड कि निर्वासन पाया ।     (1)  तरी झांझरी साथ मिली,  चल पड़ा कहीं तिरता-तिरता,  लहर-लहर पर सघन अमा में  ज्योति खोजता मैँ

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जमीन दो, जमीन दो

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सुरम्य शान्ति के लिए, जमीन दो, जमीन दो,  महान् क्रान्ति के लिए, जमीन दो, जमीन दो ।     (1)  जमीन दो कि देश का अभाव दूर हो सके,  जमीन दो कि द्वेष का प्रमाद दूर हो सके,  जमीन दो कि भूमिहीन लोग काम

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इस्तीफा

19 फरवरी 2022
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लगा शाप, यह वाण गया झुक, शिथिल हुई धनु की डोरी,  अंगों में छा रही, न जाने, तंद्रा क्यों थोड़ी-थोड़ी !     विनय मान मुझको जाने दो,  शेष गीत छिप कर गाने दो,  मुझसे तो न सहा जाएगा अब असीम यह कोलाहल, 

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मेरी बिदाई

19 फरवरी 2022
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 (1)  सुन्दर, सुखद, सूर्य से सेवित मेरे प्यारे देश बिदा!  प्राच्य सिन्धु के मुक्ता! तेरे आगे तुच्छ विपिन नन्दन ।  यह मैं चला खुशी में भर कर तुझ पर न्योछावर करने  आशायों से रहित, भाग्य से हीन, व्यग

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राजर्षि अभिनन्दन

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(स्वर्गीय राजर्षि पुरषोत्तमदास टंडन के अभिनन्दन में)     जन-हित निज सर्वस्व दान कर तुम तो हुए अशेष;  क्या देकर प्रतिदान चुकाए ॠषे ! तुम्हारा देश ?     राजदंड केयूर, क्षत्र, चामर, किरीट, सम्मान; 

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भारत-व्रत

19 फरवरी 2022
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 (सन् 1955 ई. में रुसी नेतओं के दिल्ली-आगमन  के अवसर पर विरचित)     स्वागत लोहित सूर्य ! यहाँ निर्मल, नीलाभ गगन है,  क्षीर-कल्प सर-सरित, अगुरु-सौरभ से भरित पवन है ।  लेकर नूतन-जन्म पुरातन व्रत हम

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तन्तुकार

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भू पर कटु रव कर्कश, अपार,  ऊपर अम्बर में धूम, क्षार ।    श्रमियों का कर शोषण, विनाश,  चिमनियाँ छोड़तीं मलिन सांस ।    श्रमशिथिल, विकल, परिलुब्ध, व्यस्त,  क्षयमान मनुज निरुपाय, त्रस्त ।  श्रम पि

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सर्ग-संदेश

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देशों में यदि सर्वोच्च देश बनना चाहो,  पहले, सबसे बढ़ कर, भारत को प्यार करो ।     है चकित विश्व यह देख,  धर्म के प्रतनु, प्रांशु पथ पर चल कर  नय-विनय-समन्वित शूर  लिये सबके हित कर में सुधा-सार, 

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बरगद

19 फरवरी 2022
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निश्चिन्त चारुजल ताल-तीर  है खड़ा एक बरगद गम्भीर,  पत्ते-पत्ते में सघन, श्यामद्युति हरियाली ।     डोलता दिवस भर छवि बिखेर,  जब निश आती, झूमता पेड़,  गुंजित विहंग-कलकूजन से डाली-डाली ।     भीतर-भ

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उर्वशी काव्य की समाप्ति

19 फरवरी 2022
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(उर्वशी काव्य के पूर्ण होने पर पंत जी  को लिखा गया एक पत्र)     मान्यवर ! आप कवि की जय हो,  यह नया वर्ष मंगलमय हो।     अब एक नया संवाद सुनें,  दे मुझ को आर्शीवाद, सुनें।     हो गया पूर्ण उर्व

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