देशों में यदि सर्वोच्च देश बनना चाहो,
पहले, सबसे बढ़ कर, भारत को प्यार करो ।
है चकित विश्व यह देख,
धर्म के प्रतनु, प्रांशु पथ पर चल कर
नय-विनय-समन्वित शूर
लिये सबके हित कर में सुधा-सार,
जानें, कैसे हम पहुंच गए उस ठौर, जहाँ
है खड़ा जयश्री का दीपित गोपुरद्वार !
गोपुरद्वार केवल;
कमला-मन्दिर में यहीं प्रवेश नहीं
सिद्धियां अभी अविजित अनन्त,
संघर्ष यहीं तक शेष नहीं ।
वह देखो, सम्मुख बिछी हुई रण-मही
दीनता से पंकिल, अतिशय प्रचंड,
चाहिए देश को तपन अभी जाज्वल्यमान,
चाहिए देश को अभी रश्मि खरतर अखंड ।
जय तक यह रण है शेष,
शिंजिनी-उन्मोचन का नाम कहाँ?
जब तक यह रण है शेष,
धुनर्धर वीरों को विश्राम कहाँ?
यह विजय विजय है तभी,
देश भर के जन-जन के मन-प्राण
भारत के प्रति हों भक्तिपूर्ण;
प्रत्येक देश-प्रेमी अपना
सर्वस्व देश-पद पर धर दे;
जिसमें जो भी हो तेज,
आज वह उसको न्योछावर कर दे ।
निर्भीक साधना करो,
अभय ही बोलो, बोलो कलाकार !
वाणीविहीन शत-लक्ष मानवों को देखो,
इनका सुभोग्य स्वातंत्र्य समाहित कब होगा?
कब तक पहुँचेगी ज्योति?
तमिस्रा-ग्रसित, मूक
मानवता का कब तक स्वराज्य सम्भव होगा?
तुम हिचक रहे?
आ पड़ा कहाँ से चरणों में यह द्विधा-पाश ?
स्वाधीन जाति के तुम कल्पक !
तुम प्रभापूर्ण दर्पण मनुष्यता के मन के,
तुम शुद्ध, बुद्ध, चेतना,
कंठ जन का अजेय,
तुम मानवता के स्वर अरुद्ध,
तुम नहीं क्रेय-विक्रेय वह्नि,
दुर्दम, उदग्र, पौरुष के अपराजेय गर्व,
तुम चिर-विमुक्त, तुम नहीं दस्यु, तुम नहीं दास ।
तुम मौन हुए तो मूक मनुज की व्यथा कौन फिर बोलेगा?
निष्पेषित नरता की पुकार का भेद कौन फिर खोलेगा?
मर्दित हृदर्यों में दबे हुए नीरव जो क्रन्दन चलते हैं
,
बाहर जाने के लिए विकल भीतर जो भाव मचलते हैं ।
ओ कलाकार ! निर्भीक कंठ से उन्हें रुप दो, वाणी दो ।
प्रच्छन्न व्यथा को प्रकट करो, उत्तप्त गिरा कल्याणी दो
।
प्रतिक्रिया और प्रतिलोम शक्तियों को कर, शतत:, खंड-खंड,
रोपो, हे रोपो, कलावंत ! दृढ़ता से धर्मध्वज अखंड ।
ओ सावधान कृषको !
जितनी हो चुकीं हमें संप्राप्त' सिद्धि,
उसकी रक्षा के बिना कहाँ
संभव आने वाली समृद्धि ?
अपनी स्वतन्त्रता की विटपी
सद्य स्फुट दो पत्तोंवाली,
भारत के कृषको ! सावधान !
करनी है इसकी रखवाली ।
सींचो-सींचो, स्वातंत्र्य-मूल, इस नयी पौध को पानी दो,
सम्पूर्ण देश के जीवन को अपना जीवन-रस दानी ! दो,
यदि चूक हुई, तो खाद कुटिल कृमियों के दल खा जाएंगे,
इस नयी पौध को घेर पड़ोसी तृण पीड़ा पहुँचाएंगे ।
इसलिए, सतत रह जागरूक देते जाओ अपना श्रमकण,
इस पौधे का करते जायो वर्धन-विकास, रक्षण-पालन ।
दुष्काल दूर होगा ज्यों-ज्यों, यह सुधा वृक्ष उन्नत होगा,
कुसुमित हो गंधागार, फलित होकर सबके हित नत होगा ।
सिद्धियां तुम्हारी लुप्त और ॠद्धियां नष्ट, यद्यपि, किसान
!
तब भी जो कुछ है किए हुए तुमको इतना उन्नत, महान,
अतिशय अमोघ वह गुण अपना भारत के चरणों पर धर दो,
सबके भाग्योदय के निमित्त अपने को न्योछावर कर दो ।
ओ जगज्जयी तुम शास्त्रकार !
ओ वैज्ञानिक !
संघर्ष प्रकृति की लीला से करनेवाले !
विज्ञान-शिखा कर दीप्त,
भूमि का अंधकार हरनेवाले !
यदि तुम्हें ज्ञात हो गई मनुज की सहज वृति,
यदि जाग गया तुममें मंगल का सहज बोध,
यदि जाग गई तुममें शुभ सर्गात्मक प्रवृति,
तो इससे बढ़ सौभाग्य दूसरा क्या होगा ?
नीचे भू नव, ऊपर आकाश नया होगा ।
विधि के प्रपंच को खोदो, मिट्टी के भीतर,
पृथ्वी के उस नूतन स्तर का संधान करो,
जिससे होता उत्पन्न स्वर्ण,
जिस मिट्टी से फूटता विभव का सहज स्रोत,
इच्छाओं की घाटियाँ सभी पट जाती हैं ।
वह चमत्कार जिसको पा कर
मानव के श्रम की पीड़ाएँ घट जाती हैं ।
है भंवर-जाल में जगत्,
किसी विधि इस सागर को पार करो ।
संधानो कोई तीर, कर्ममय भूतल का
हे मेधावी ! निज प्रतिभा से उद्धार करो ।
ओ वन्दनीय शिक्षको ! समाश्रय एकमात्र,
उन दीपों के जिनको आज ही सँवरना है,
आज ही दीप्ति संचित कर प्राणों के भीतर,
जिनको भविष्य का भवन ज्योति से भरना है ।
ओ भाविराष्ट्र-हय की वल्गा धरनेवालो !
कल्पना-बीज हो जहाँ, वहाँ पर जल देना ।
प्रतिभा के अकुंर जहाँ कहीं भी दीख पड़ें,
अपनी प्रतिभा का वहाँ मुक्त सम्बल देना ।
सब की श्रुतियों में भारत का संदेश भरो,
सब को भारत की संस्कृति पर अनुरक्त करो ।
दावाग्नि-ग्रस्त वन के समान
है जगत् दु:ख. से दह्यमान,
शीतल मधु की निर्झरी यहीं से फूटेगी ।
बैठेगा विषफण तोड़ व्याल,
निर्वापित होगा जगज्ज्वाल,
भारत की करुणा धार बाँध कर छूटेगी
छोड़ो शंका, भय, भ्रांन्ति, मोह,
छोड़ो, छोड़ो, हीनता, द्रोह,
लो, शुभ्र शान्ति का शरदच्चन्द्र वह आता है ।
देखो समक्ष वह जीवन-घन
शीतल छाया, फूलों का वन,
सामने शुभ्र, सुखमय भविष्य मुस्काता है ।
(मूल मलयालम कवि: श्री वेणिकुलम गोपाल कुरूप)
(24 जनवरी, 1958 ई.)