गिरिजा नंद झा
बहुत पुरानी बात नहीं है। प्याज की बढ़ी कीमत पर कांग्रेसी कानून मंत्री कपिल सिब्बल कहते थे, प्याज सरकार नहीं बेचती। सिब्बल पहली बार इस जानकारी को लोगों से ‘शेयर’ कर रहे थे, क्योंकि लोगों को तो यही पता था कि प्याज सरकार बेचती है! अब वे कहीं दिखाई नहीं देते। उन्हंे सुने तो महीनों गुजर गए हैं। बहुत पहले सुना था कि वकीली की पेशा में वापस लौट गए हैं। अच्छा है, कुछ तो उनके पास अब भी है करने के लिए।
दिल्ली विधानसभा में भाजपा क्या हारी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बोल बच्चन गड़बड़ाने लगे हैं। वह कहते हैं कि दिल्ली बिजली पैदा तो करती नहीं है कि उसके मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल उसे सस्ती कर देंगे। कमाल है, इतिहास के पन्नांे को पलटे अभी साल भी नहीं गुजरे हैं और सारी यादें धुमिल हो गई। कांग्रेस के नीचे की जमीन गीली नहीं, दलदली हो गई है। कई ‘रिजनल’ पार्टियां भी कांग्रेस से बेहतर स्थिति में हैं।
विकास के लिए कुछ छूट जरूरी है। मगर, कितनी? इस पर ग़ौर करना होगा। एक बात जो सीधी तरह से हमारी समझ में नहीं आ रही कि एक तरफ बिजली कंपनियां घाटे में होने का राग अलाप रही है और दूसरी तरफ इस ‘धंधे’ को छोड़ने तक के लिए तैयार नहीं है। कमाल है। कंपनियां लाभ कमाने के लिए होती है या समाज सेवा के लिए? अगर, वाकई नुकसान हो रहा है तो अपना बही खाता दिखाने में क्यों परेशानी हो रही है? अपने रेल मंत्री पियूष गोयल एक दिन बता रहे थे कि बिजली कंपनियों के पास पांच साल का ही ‘डेटा’ होता है और वह इतना दिखाने के लिए तैयार है। बही खाता दिखाना बिजली कंपनियों को है और ‘गीली’ केंद्र सरकार हो रही है। कुछ तो बात है जो गले में अटकी हुई है।
बिजली की कीमत को कम करने वाली बात तो नरेंद्र मोदी की भाजपा ने भी की थी। शायद, 30 प्रतिशत के करीब। वह कहां से हो पाती? कोई आइडिया है क्या? यह भी काले धन के माफिक ही कोई जुमला ही था जैसा भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने बताया था। मतलब साफ है। बिजली कंपनियां जो लोगों से पैसे वसूल रही है, वह जरूरत से ज़्यादा वसूल रही है। कितना ज़्यादा वसूल रही है यह तो बही खाते की जांच से ही पता चल पाएगा। अगर, कंपनियों को उतना ही नुकसान हो रहा है, जितना की वह दावा कर रही है तो बात अलग है? फिर दिल्ली की सरकार सोचे कि उसे सब्सिडी के जरिए लोगों को किए वायदे पूरे करे या फिर अपने कहे से पलट जाएं? ऐसा तो है नहीं कि यह आखिरी चुनाव था।
मगर, अचानक से दिल्ली में ‘आप’ की सरकार बनने के बाद मोदी की बात खटकने लगी है। क्या मोदी दिल्ली की हार को अपनी ‘साख पर आंच’ मान रहे हैं। अगर, ऐसा है तो यह ‘खतरनाक’ है। वह देश के प्रधानमंत्री हैं और उन्हें इस पद की गंभीरता और उसके प्रति कर्तव्यनिष्ठा का खयाल रखना चाहिए। वह सुझाव दें, विकास में सहयोग दें। जरूरत पड़ने पर आगे बढ़ कर लोगों की बेहतरी का फैसला लें। देश का विकास कंपनियों के भरोसे नहीं छोड़ा जाना चाहिए। कंपनियों के लाभांश कमाने की लोलुपता को एक निश्चित दायरे में लाने का इंतज़ाम किया जाए। ऐसा ना हो कि कंपनियों को छूट-दर-छूट मिलती रहे और विकास के नाम पर लोगों का दोहन होता रहे। ऐसा हुआ तो मोदी के विकास माॅडल का मुखौटा इतना ज़्यादा छत-बिछत हो जाएगा कि वो आईना देखने की हिम्मत नहीं कर पाएंगे।