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सहारा ना था

10 जून 2016

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कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय

वक़्त को क्यो फक़्त इतना गवारा ना था
जिसको भी अपना समझा, हमारा ना था||

सोचा की तुम्हे देखकर आज ठहर जाए
ना चाह कर भी भटका पर, आवारा ना था||

धार ने बहा कर हमे परदेश लाके छोड़ा
जिसे मंज़िल कह सके ऐसा, किनारा ना था||

दुआए देती थी झोली भरने की जो बुढ़िया
खुद उसकी झोली मे कोई, सितारा ना था ||

सारी जिंदगी सहारा देकर लोगो को उठाया
उसका भी बुढ़ापे मे कोई, सहारा ना था ||

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कारवाँ गुजर गया

25 मई 2016
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कारवाँ गुजर गया, गुबार देखते रहेकत्ल करने वाले, अख़बार देखते रहे|तेरी रूह को चाहा, वो बस मै थाजिस्म की नुमाइश, हज़ार देखते रहे||मैने जिस काम मे ,उम्र गुज़ार दीकैलेंडर मे वो, रविवार देखते रहे||जिस की खातिर मैने रूह जला दीवो आजतक मेरा किरदार देखते रहे||सूखे ने उजाड़ दिए किसानो के घरवो पागल अबतक सरकार

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वो शायर था, वो दीवाना था, दीवाने की बातें क्यूँ

26 मई 2016
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वो शायर था, वो दीवाना था, दीवाने की बातें क्यूँकवि:- शिवदत्त श्रोत्रियमस्ती का तन झूम रहा, मस्ती मे मन घूम रहामस्त हवा है मस्त है मौसम, मस्ताने की बाते क्योइश्क किया है तूने मुझसे, किया कोई व्यापार नहीसब कुछ खोना तुमको पाना, डर जाने की बाते क्योबड़ी दूर से आया है, तुझे बड़ी दूर तक जाना हैमंज़िल देखो

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अब शृंगार रहने दो|

1 जून 2016
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कवि:- शिवदत्त श्रोत्रियजैसी हो वैसी चली आओअब शृंगार रहने दो|अगर  माँग हे सीधीया फिर जुल्फे है उल्झीना करो जतन इतनासमय जाए लगे सुलझीदौड़ी चली आओ तुम,ज़ुल्फो को बिखरा रहने दोजैसी हो वैसी चली आओअब शृंगार रहने दो|कुछ सोई नही तुमआधी जागी चली आओसुनकर मेरी आवाज़ऐसे भागी चली आओजल्दी मे अगर छूटे कोई गहना,या

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अनजान लगता है

1 जून 2016
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कवि:- शिवदत्त श्रोत्रियअब इन राहो पर सफ़र आसान लगता हैजो गुमनाम है कही वही पहचान लगता है||जिस शहर मे तुम्हारे साथ उम्रे गुज़ारी थीकुछ दिन से मुझको ये अनजान लगता है||कपड़ो से दूर से उसकी अमीरी झलकती हैमगर चेहरे से वो भी बड़ा परेशान लगता है||मुझको देख कर भी तू अनदेखा मत करतेरा मुस्करा देना भी अब एहसान

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वो कैसा होगा शहर

2 जून 2016
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कवि:- शिवदत्त श्रोत्रियजहाँ हम तुम रहे, बना खुशियो का घरकैसी होगी ज़मीन, वो कैसा होगा शहरहाथो मे हाथ रहे, तू हरदम साथ रहेकुछ मै तुझसे कहूँ, कुछ तू मुझसे कहेमै सब कुछ सहुं, तू कुछ ना सहेसुबह शुरू तुझसे, ख़त्म हो तुझपे सहरजहाँ हम तुम रहे, बना खुशियो का घर ...कुछ तुम चलोगी, तो कुछ मै चलूँगाकभी तुम थकोग

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मशहूर हो गये..

3 जून 2016
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कवि:- शिवदत्त श्रोत्रियजो भी आए पास           सब दूर हो गयेतोड़ा हुए बदनाम           तो मशहूर हो गये||कल तक जो दूसरो से          माँगकर के जिंदा थेजीता चुनाव आज जो          वो हुजूर हो गये||हम भी तो कल तक          दफ़न थे चन्द पन्नो मेबाजार मे बिके जो          सबको मंजूर हो गये||पहाड़ो से टकराकर के 

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जिंदगी के उस मोड़ पर

5 जून 2016
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कवि:- शिवदत्त श्रोत्रियजिंदगी के उस मोड़ पर(यह कविता एक प्रेमी और प्रेमिका के विचारो की अभिव्यक्ति करती है जो आज एक दूसरे से बुढ़ापे मे मिलते है ३० साल के लंबे अरसे बाद)जिंदगी के उस मोड़ पर आकर मिली हो तुमकी अब मिल भी जाओ तो मिलने का गम होगा|माना मेरा जीवन एक प्यार का सागरकितना भी निकालो कहा इससे कु

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तेरे शहर मे गुज़ारी थी मैने एक जिंदगी (ग़ज़ल )

7 जून 2016
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कवि:- शिवदत्त श्रोत्रियतेरे शहर मे मैने गुज़ारी थी एक जिंदगीपर कैसे कह दूं हमारी थी एक जिंदगी ||जमाने से जहाँ मेने कई जंग जीत लीवही मोहब्बत से हारी थी एक जिंदगी ||मुझको ना मिली वो मेरा कभी ना थीतुमने जो ठुकराई तुम्हारी थी जिंदगी ||महल ऊँचा पर आंशु किसी के फर्स परतब मुझको ना गवारी थी एक जिंदगी ||कलम

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सहारा ना था

10 जून 2016
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कवि:- शिवदत्त श्रोत्रियवक़्त को क्यो फक़्त इतना गवारा ना थाजिसको भी अपना समझा, हमारा ना था||सोचा की तुम्हे देखकर आज ठहर जाएना चाह कर भी भटका पर, आवारा ना था||धार ने बहा कर हमे परदेश लाके छोड़ाजिसे मंज़िल कह सके ऐसा, किनारा ना था||दुआए देती थी झोली भरने की जो बुढ़ियाखुद उसकी झोली मे कोई, सितारा ना था

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जख्म गहरा था

13 जून 2016
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जख्म गहरा था मगर, हमने दिखाया ही नहीउसने पूछा नही, हमने बताया ही नही||कुछ ना समझे वो अगर, इसमे खता मेरी कहाँहाल ए दिल हमने कभी उनसे छिपाया ही नही||मेरी निगाहें है निगेहबान अभी तक उनकीजाने वाला तो कभी लौट कर आया ही नही||याद तन्हाई मैं जब भी तेरी आयी हमकोकैसे कह दूँ क़ि कभी अश्क बहाया ही नही||तेरी दुन

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माँ का साया

16 जून 2016
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कवि:- शिवदत्त श्रोत्रियआज बैठकर सोचा मैनेक्या खोया क्या पाया हैएक चीज़ जो साथ रहीवो तो बस माँ का साया है||आज मुझे हा याद नहीअपने बचपन की बातेमाँ ने क्या-२ कष्ट झेलेतब मिली मुझे ये काया है||संसार मे जब मैने जन्म लियाना जाने कितना रोया थापर सारी दुनिया को भूलमाँ के आचल मे निडर हो सोया था||मुझे ठीक से

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तब तक समझो मे जिंदा हूँ

20 जून 2016
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कवि:- शिवदत्त श्रोत्रियजब तक आँखो मे आँसू हैतब तक समझो मे जिंदा हूँ||धरती का सीना चीर यहाँनिकाल रहे है सामानो कोमंदिर को ढाल बना अपनीछिपा रहे है खजानो को|इमारतें बना के उँचीछू बैठे है आकाश कोउड़ रहे हवा के वेग साथजो ठहरा देता सांस को|जब तक भूख ग़रीबी चोराहो परतब तक मै शर्मिंदा हूँ||जब तक आँखो मे आँस

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मुझे मेरी सोच ने मारा

22 जून 2016
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नही जख़्मो से हूँ घायल, मुझे मेरी सोच ने मारा ||शिकायत है मुझे दिन सेजो की हर रोज आता हैअंधेरे मे जो था खोयाउसको भी उठाता हैकिसी का चूल्हा जलता होमेरी चमड़ी जलाता है |कोई तप कर भी सोया है,कोई सोकर थका हारा ||नही जख़्मो से हूँ घायल, मुझे मेरी सोच ने मारा ||मै जन्मो का प्यासा हूँनही पर प्यास पानी कीना

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कहाँ आ गया हूँ ?

28 जून 2016
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कल सुबह से घर पर बैठे-२ थक चुका था और मन भी खिन्न हो चुका था शुक्रवार और रविवार का अवकाश जो था, तो सोचा कि क्यो ना कही घूम के आया जाए| बस यही सोचकर शाम को अपने मित्र के साथ मे पुणे शहर की विख्यात F. C. रोड चला गया, सोचा क़ि अगर थोड़ा घूम लिया जाएगा तो मन ताज़ा हो जाएगा, थकान दूर हो जाएगी||         श

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मेरी जिंदगी मे चले आए है

30 जून 2016
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कवि:- शिवदत्त श्रोत्रियहर किसी को आज है, इंतेजार महफ़िल मे मेराफिर भी लगता है कि , बस हम ही बिन बुलाए है||मोहब्बत अगर गुनाह, फिर हम दोनो थे ज़िम्मेदारमहफिले चाँदनी तुम, हम सरे बज्म सर झुकाए है||खामोशी उनकी कहती है, कुछ टूटा है अन्दर तकलगता है जैसे मेरी तरह, वो जमाने के सताए है ||वैसे क्या कम सितम, ज

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कुछ गवाया ही नही

4 जुलाई 2016
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जख्म गहरा था मगर, हमने दिखाया ही नहीउन्होने पूछा ही नही, हमने बताया ही नही|फिर जिन यादो को, भुलाने मे जीवन बितायालेकिन हमने कहाँ, यादो ने सताया ही नही|मरके भी वो कब्र मे, कब से जाग रहा हैपर जाने वाला तो कभी, लौट कर आया ही नही|इतने मशरूफ थे हम, चाहत मे तुम्हारीदुनिया ने कहाँ कि, नाम कमाया ही नही|महल

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हम बनाएँगे अपना घर

5 जुलाई 2016
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कवि:- शिवदत्त श्रोत्रियहम बनाएँगे अपना घरहोगा नया कोई रास्ता होगी नयी कोई डगरछोड़ अपनी रह तुम चली आना सीधी इधर||मार्ग को ना खोजना ना सोचना गंतव्य किधरमंज़िल वही बन जाएगी साथ चलेंगे हम जिधर||कुछ दूर मेरे साथ चलो तब ही तो तुम जानोगीहर ओर अजनबी होंगे लेकिन ना होगा

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क्यो कहते हो मुझे दूसरी औरत

7 जुलाई 2016
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मै गुमनाम रही, कभी बदनाम रहीमुझसे हमेशा रूठी रही शोहरत,तुम्हारी पहली पसंद थी मैफिर क्यो कहते हो मुझे दूसरी औरत ||ज़ुबान से स्वीकारा मुझे तुमनेपर अपने हृदय से नही,मै कोई वस्तु तो ना थीजिसे रख कर भूल जाओगे कहींअंतः मन मे सम्हाल कर रखोबस इतनी सी ही तो है मेरी हसरतपर क्यो कहते हो मुझे दूसरी औरत||तुम्हार

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विज्ञान और धर्म

15 जुलाई 2016
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विज्ञान और धर्म की ऐसी एक पहचान होविज्ञान ही धर्म हो और धर्म ही विज्ञान हो|आतंक हिंसा भेदभाव मिटें इस संसार सेएक नया युग बने रहे जहाँ सब प्यार से||विज्ञान जो है सिमट गया उसकी नयी पहचान होमेरा तो कहना है, कि हर आदमी इंशान हो||हर आदमी पढ़े बढ़े नये-2 अनुसंधान होउन्नति के रास्ते चले, पर सावधान हो||प्या

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ऐसी मेरी एक बहना है

25 जुलाई 2016
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ऐसी मेरी एक बहना हैनन्ही छोटी सी चुलबुल सीघर आँगन मे वो बुलबुल सीफूलो सी जिसकी मुस्कान हैजिसके अस्तित्व से घर मे जान हैउसके बारे मे क्या लिखूवो खुद ही एक पहचान हैमै चरण पदिक हू अगर वो हीरो जड़ा एक गहना हैऐसी मेरी एक .बहना है………..कितनी खुशिया थी उस पल मेजब साथ-२ हम खेला करतेछोटी छोटी सी नाराजीतो कभी

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क्या सचमुच शहर छोड़ दिया?

17 अगस्त 2016
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अपने शहर से दूर हूँ,  पर कभी-२ जब घर वापस जाता हूँ  तो बहाना बनाकर तेरी गली से गुज़रता हूँ  मै रुक जाता हूँ  उसी पुराने जर्जर खंबे के पास  जहाँ कभी घंटो खड़े हो कर उपर देखा करता था  गली तो वैसी ही है  सड़क भी सकरी सी उबड़ खाबड़ है  दूर से लगता नही कि यहाँ कुछ भी बदला है  पर पहले जैसी खुशी नही  वो

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देश का बुरा हाल है

27 अक्टूबर 2016
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कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय हर किसी की ज़ुबाँ पर बस यही सवाल है करने वाले कह रहे, देश का बुरा हाल है|| नेता जी की पार्टी मे फेका गया मटन पुलाव जनता की थाली से आज रूठी हुई दाल है|| राशन के थैले का ख़ालीपन बढ़ने लगा हर दिन हर पल हर कोई यहाँ बेहाल है|| पैसे ने अपनो क

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तुझे कबूल इस समय

6 दिसम्बर 2016
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कवि: शिवदत्त श्रोत्रियपरिस्थितियाँ नही है मेरी माकूल इस समयतू ही बता कैसे करूँ तुझे कबूल इस समय ||इशारो मे बोलकर कुछ गुनहगार बन गये हैलब्जो से कुछ भी बोलना फ़िज़ूल इस समय ||परिवार मे भी जिसकी बनती थी नही कभीक्यो खुद को समझता है मक़बूल इस समय ||इंसान से इंसान की इंसानियत है लापतादिखता नही खुदा मुझे

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एक प्लेटफार्म है

23 जुलाई 2017
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शहर की भीड़ भाड़ से निकल कर सुनसान गलियों से गुजर कर एक चमकता सा भवन जहाँ से गुजरते है, अनगिनत शहर | एक प्लेटफार्म है , जो हमेशा ही चलता रहता है फिर भी वहीं है कितने वर्षो से | न जाने कितनो की मंजिल है य

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बहुत बेशर्म है या ज़िद्दी

21 अगस्त 2017
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वो लड़का जो कभी किताबों से मोहब्बत करता थासुना है, आजकल मोहब्बत में किताबें लिख रहा है ||पहले रास्ते की किसी सड़क के किसी मोड़ परया शहर के पुराने बाज़ार की किसी दुकान के काँच की दीवारों में कैदकिसी किताब को दिल दे बैठता था ||आजकल वो अपना दिल हथेली पर रख कर घूमता हैउसी सड़क

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कितना कुछ बदल जाता है, आधी रात को

31 अगस्त 2017
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कितना कुछ बदल जाता है, आधी रात कोकवि: शिवदत्त श्रोत्रियजितना भी कुछ भुलाने कादिन में प्रयास किया जाता हैअनायास ही सब एक-एक करमेरे सम्मुख चला आता हैकितना कुछ बदल जाता है, आधी रात को....असंख्य तारे जब साथ होते हैउस आसमान की छत परमैं खुद को ढूढ़ने लगता हूँ तबकिसी कागज़ के ख़त परधीरे धीरे यादों का एक फिरघे

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फूलो के इम्तिहान का

6 सितम्बर 2017
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फूलो के इम्तिहान का कवि: शिवदत्त श्रोत्रियमंदिर में काटों ने अपनी जगह बना लीवक़्त आ गया है फूलो के इम्तिहान का ||सावन में भीगना कहाँ जुल्फों से खेलना बारिश में जलता घर किसी किसान का ||हालात बदलने की कल बात करता थालापता है पता आज उसके मकान का ||निगाह उठी आज तो महसू

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जिस रात उस गली में

14 सितम्बर 2017
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रौशनी में खो गयी कुछ बात जिस गली में वो चाँद ढूढ़ने गया जिस रात उस गली में || आज झगड़ रहे है आपस में कुछ लुटेरे कुछ जोगी गुजरे थे एक साथ उस गली में || कुछ चिरागो ने जहाँ अपनी रौशनी खो दी क्यों ढूढ़ता है पागल कयनात उस गली में || मौसम बदलते होंगे तुम्हारे शहर में लेकिन रह

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कोई मजहब नहीं होता

12 अक्टूबर 2017
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कवि: शिवदत्त श्रोत्रियतुम्हारे वास्ते मैंने भी बनाया था एक मंदिरजो तुम आती तो कोई गज़ब नहीं होता ||मन्दिर मस्ज़िद गुरद्वारे हर जगह झलकते हैबेचारे आंशुओं का कोई मजहब नहीं होता ||तुम्हारे शहर का मिज़ाज़ कितना अज़ीज़ थाहम दोनों बहकते कुछ अजब नहीं होता ||जिनके ज़िक्र में कभी गुजर जाते थे मौसमउनका चर्चा भी अब ह

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खुद को तोड़ ताड़ के

10 दिसम्बर 2017
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कब तक चलेगा काम खुद को जोड़ जाड केहर रात रख देता हूँ मैं, खुद को तोड़ ताड़ के ||तन्हाइयों में भी वो मुझे तन्हा नहीं होने देता जाऊं भी तो कहाँ मैं खुद को छोड़ छाड़ के ||हर बार जादू उस ख़त का बढ़ता जाता हैजिसको रखा है हिफ़ाजत से मोड़ माड़ के ||वैसे ये भी कुछ नुक़सान का सौदा तो नहींसँ

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खुदखुशी के मोड़ पर

15 मार्च 2018
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जिंदगी बिछड़ी हो तुम तन्हा मुझको छोड़ कर आज मैं बेबस खड़ा हूँ, खुदखुशी के मोड़ पर || जुगनुओं तुम चले आओ, चाहें जहाँ कही भी हो शायद कोई रास्ता

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जब भी तुम्हारे पास आता हूँ मैं

20 मई 2018
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जब भी तुम्हारे पास आता हूँ मैंकितना कुछ बदल जाता हैसारी दुनिया एक बंद कमरे में सिमिट जाता हैसारी संसार कितना छोटा हो जाता हैमैं देख पता हूँ, धरती के सभी छोरदेख पाता हूँ , आसमान के पारछू पाता हूँ, चाँद तारों को मैंमहसूस करता हूँ बादलो की नमीनहीं बाकी कुछ अब जिसकी हो कमीजब भी तुम्हारे पास आता हूँ मैं

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पत्थर से प्यार कर

8 नवम्बर 2019
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ज़िन्दगी है सीखेगा तू गलती हजार करकिसने कहा था लेकिन पत्थर से प्यार कर |पत्थर से प्यार करके पत्थर न तू हो जानापथरा न जाये आँखे पत्थर का इन्तेजार कर |ख़्वाब में भी होता उसकी जुल्फों का सितममजनूं बना ले खुद को पत्थर से मार कर |सिकंदर बन निकला था दुनिया को जीतनेपत्थर सा जम गया है पत्थर से हार कर |मुकद

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