मज़हबगाह बदन मेरा, ख़ुदा ज़मीर है,
ज़रूरत नहीं मुझे किसी मज़हबगाह की.
कुछ लोग इस जहां में जिनमे ख़ुदा नहीं,
तोड़ते और बनाते है मज़हबगाह बस यूँही.(आलिम)
मज़हबगाह बदन मेरा, ख़ुदा ज़मीर है,
ज़रूरत नहीं मुझे किसी मज़हबगाह की.
कुछ लोग इस जहां में जिनमे ख़ुदा नहीं,
तोड़ते और बनाते है मज़हबगाह बस यूँही.(आलिम)