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रामेश्वरनाथ काव "The Indian Spymaster"

Sagar Anant

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"RN kao" रामेश्वरनाथ काव को पूरी दुनिया में "भारत के मास्टरस्पाई" के नाम से जाना जाता है , वे भारतीय खुफिया एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग यानी रॉ (RAW) के पहले प्रमुख थे ! इस महान व्यक्ति ने रॉ (RAW) की दो पीढ़ियों को जासूसी के गुर सिखाये और जिसकी टीम को 'काव ब्वॉयज' के नाम से जाना जाता था और वो भारत के तीन प्रधानमंत्रियों के करीबी सलाहकार और सुरक्षा प्रमुख रहे , 70 के दशक में जिसका नाम विश्व के 5 प्रमुख महान जासूसों में गिना जाता था ! Indian Spymaster के नाम से मशहूर आरएन काव या रामेश्वर नाथ काव का आज जन्मदिन है। 10 मई 1918 को जन्मे रामेश्वर नाथ काव की समझ और बेहतरीन रणनीति की वजह से ही भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ को पूरी दुनिया में एक अलग पहचान और कामयाबी मिली। वो महान व्यक्ति थे भारत के मास्टरस्पाई के नाम से मशहूर आरएन काव या रामेश्वर नाथ काव थे ! दरअसल, काव ही वे पहले व्यक्ति रहे, जिन्होंने रॉ को एक प्रोफेशनल खुफिया एजेंसी में तब्दील किया। उन्होंने न सिर्फ भारत के राष्ट्र निर्माण में अहम योगदान दिया, बल्कि भारत की इस एजेंसी को भविष्य के लिए एक सुरक्षित दिशा और दशा भी प्रदान की। तख्तापलट कर सिक्किम को भारत का राज्य बनाने और पूर्वी पाकिस्तान को बांग्लादेश (Bangladesh) के तौर पर एक नया देश बनाने का बड़ा श्रेय काव को दिया जाता है. भारत के पहले जासूस, पहली जासूसी एजेंसी के संस्थापक और दुनिया भर में अपनी प्रतिभा के लिए मशहूर काव ने अपने जीवनकाल में भारत देश की प्रगति और सुरक्षा के लिए कई महत्त्वपूर्ण कार्य किए और देश की उन्नति में अहम भूमिका निभाई ! बात 1968 की है जब इंदिरा गांधी सरकार ने अमेरिका की सीआईए और एमआई6 की देखादेखी भारत की खुफिया एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग यानी रॉ (RAW) की शुरुआत की तब इसके पीछे भी विचार काव का था और काव को ही उसका पहला प्रमुख नियुक्त किया गया. अब काव के सामने चैलेंज ये था कि वह इस एजेंसी की उपयोगिता साबित कर सकें और काव ने भविष्य में यह साबित भी कर दिया, इसलिए काव को *"देश का पहला जासूस"* भी कहा जाता है ! *आपको जानकर हैरानी होगी की बांग्लोदश बनने के पीछे भी काव की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी* कैबिनेट सचिवालय के पूर्व विशेष सचिव वाप्पला बालचंद्रन का एक लेख मंगलवार को इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित हुआ है, जिसमें कहा गया है कि 1971 के युद्ध के समय पाकिस्तान ने भारत पर हवाई हमले की जो योजना बनाई थी, उसे रॉ ने ही इंटरसेप्ट किया था और भारत एक बड़े हमले से बच सका था. इसी लेख के मुताबिक कहा गया है कि पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने 1971 के हालात का ज़िक्र करते हुए लिखा था कि इंदिरा गांधी सरकार में मुख्य सचिव रहे पीएन हक्सर के आर्काइव से रमेश को कई ऐसे पत्र मिले जिनसे खुलासा हुआ कि बांग्लोदश के गठन के पीछे काव की भूमिका थी. इसी लेख के मुताबिक हक्सर ने ही इंदिरा गांधी को सुझाव दिया था कि बांग्लादेश के स्वतंत्रता सेनानियों की मदद के लिए उच्च स्तरीय कमेटी बनाई जाए और काव को उसका प्रमुख बनाया जाए. इसके बाद 2 मार्च 71 को गांधी ने ये कमेटी बनाकर काव को ज़िम्मेदारी सौंपी थी. काव ने मुक्तिवाहिनी के जवानों को पूरी मदद मुहैया करवाई थी और बांग्लादेश अलग देश बन सका था. "दुनिया की नज़रों में ऐसे थे काव" जब फ्रांस की खुफिया एजेंसी एसडीईसीई के प्रमुख "काउंट एलेक्ज़ांड्र" से 70 के दशक में दुनिया के सबसे बेहतरीन पांच खुफिया प्रमुखों के नाम पूछे गए थे, तब काउंट ने एक नाम *काव* का भी लिया था. काउंट और अलग-अलग मौकों पर अन्य जानकारों ने काव के लिए ये शब्द कहे : _"शारीरिक और मानसिक शिष्टता का अदभुत सम्मिश्रण है ये इंसान! इसके बावजूद अपने या अपने दोस्तों के बारे में और अपनी उपलब्धियों के बारे में बात करने में इतना लिहाज़ बरतता है!" - काउंट एलेक्ज़ांड्रे भारत के महान जासूस रामेस्वर नाथ काव के संपूर्ण जीवनकाल को हमने 15 भागों में विभाजित किया है भाग 1 "आसान नहीं सफर" हमारे कहानी के नायक रामेश्वर नाथ काव के पूर्वज पंडित घासी राम काओ मूल रूप से कश्मीर घाटी के श्रीनगर जिले के रहने वाले थे। नौकरी की तलाश में 18वीं सदी की शुरुआत में उसने कश्मीर घाटी छोड़ दी और बनासर में बस गए ! 1870 के दशक के अंत में, रामेश्वर नाथ के दादा, पंडित केदार नाथ काओ, अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद, अंग्रेजों के अधीन डिप्टी कलेक्टर बन गए और काफी समय तक बनारस के रामनगर में रहे। उन्होंने 43 साल की उम्र में 16 साल की एक महिला से शादी कर ली। उसने उसे दो पुत्रों- त्रिलोकी नाथ काओ और द्वारिका नाथ काओ को जन्म दिया। आगे चलकर "द्वारिका नाथ काव" का विवाह लाहौर के श्रीकिशन कौल की बेटी *खेमवती कौल* से हुआ था। इस जोड़े के दो बेटे, रामेश्वर नाथ काओ और श्याम सुंदर नाथ काओ पैदा हुए। मगर वक्त कुछ ओर ही मंजूर था सिर्फ 29 वर्ष की आयु में काव के पिता की मृत्यु हो गई, जब रामेश्वर नाथ सिर्फ *पांच वर्ष* के थे, असमयपिता की मृत्यु के बाद काव बहुत दुखी हो गए, मानो जैसे उनके परिवार पर पहाड़ टूट पढ़ा हो, पर उन्होंने कभी हिम्मत नही हरी ,पिता की मौत के बाद रामेश्वर नाथ के चाचा ने उनकी परवरिश और पढ़ाई का जिम्मा उठाया, चाचा का परिवार बहुत बड़ा था, परिवार मे रामेश्वर नाथ और उसके भाई के अलावा चाचा के तीन बेटे और तीन बेटियाँ भी थीं। पर कुछ समय बाद एक ओय बुरा दौर आया जब बड़ौदा में उसके चाचा का व्यवसाय लड़खड़ा गया तब रामेश्वर नाथ की माँ दोनों बच्चों के साथ उन्नाव आ गई जहाँ उसके भाई रहते थे, लेकिन उन्नाव में सिर्फ एक साल के बाद, परिवार बनारस में बस गया ! उम्र के शुरुआती दौर नुकसान का रामेश्वर नाथ के जीवन पर स्थायी प्रभाव पड़ा। उन्होंने लिखा है... "बड़ौदा में,शुरुआत में, स्कूल में मेरा समय काफी खराब रहा, मुझे स्थानीय भाषा (गुजराती) नहीं आती थी। स्कूल में के सभी संचार अंग्रेजी में होना था, अंग्रेज़ी तब मेरी कमजोरी थी । साथ ही, इस समय मेरा शरीर मोटा हो गया था। मुझे याद है, जब मैं 11 में था तब मेरा वजन 120 पाउंड था। वजन को लेकर मेरे क्लास के दोस्त मेरा बहुत मजाक उड़ाते थे, इसके अलावा मेरे नाम 'काओ' के लिए रैगिंग भी की जाती थी, जिसे 'गाय' के रूप में गलत उच्चारण किया जाता था। पर हमारे नायक के जीवन का संघर्ष अभी जारी था, 1920 और 1930 के भारत की कठिन अवधि के दौरान, काओ परिवार को बहुत सारी वित्तीय कठिनाइयों का सामना करना पड़ा क्योंकि रामेश्वर नाथ के के चाचा को अपने व्यवसाय में बार-बार नुकसान उठाना पड़ा, जिसके चलते कुछ समय बाद उनका व्यवसाय पूरी तरफ से बंद हो गया, इसके कारण 1932 में रामेश्वर नाथ के चाचा ने अपना व्यवसाय बदल दिया और एक सीमेंट कारखाने से जुड़ गए, जिसे बॉम्बे के पास अंधेरी में था। चूंकि दादा-दादी की मृत्यु हो गई थी, इसलिए पूरा परिवार बॉम्बे में स्थानांतरित हो गया, पूरा परिवार सांताक्रूज के एक बंगले में रहने लगा ! इसके आगे के पढ़ाई के लिए रामेश्वर नाथ ने कॉलेज में एडमिशन लिया , तथा वही कॉलेज छात्रावास में रहने लगे,रामकृष्ण छात्रावास में रहते हुए, आरएनके ने योग में रुचि विकसित की क्योंकि अपने मोटापे को दूर करने के लिए उन्होंने योग का सहारा लिया और योग और व्यायाम से कुछ ही समय में एक सुडौल स्वस्थ शरीर बना लिया ! रामेश्वर नाथ लिखते हैं कि इस अवधि के दौरान, उन्होंने पहली बार स्वामी विवेकानंद के कुछ कार्यों, विशेष रूप से उनके राज योग को पढ़ा। योग करने की आदत जो उन्होंने रामकृष्ण मिशन में सीखी थी, जीवन के अंत तक आरएनके के साथ बनी रही। जैसे-जैसे परिवार की आर्थिक स्थिति खराब होती गई, रामेश्वर नाथ ,उनके भाई और चचेरे भाई बंबई में अपनी पढ़ाई जारी नहीं रख सके। इसलिए,वे उत्तर प्रदेश लौट आए। दोनों ने अपनी स्नातक की डिग्री के लिए लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया था, उन्होंने स्नातक के लिए अंग्रेजी साहित्य, भारतीय हिज टोरी और फारसी का अध्ययन किया। उन्होंने प्राचीन भारतीय इतिहास में विशेषज्ञता हासिल करने का फैसला किया। बाद के वर्षों में, मूर्तियों में मेरी रुचि के परिणाम के रूप में, मैंने क्ले मॉडलिंग भी की। लखनऊ विश्वविद्यालय में मेरा दो साल का प्रवास, जहां से मैंने 1936 में स्नातक किया था, बाहरी रूप से काफी घटनापूर्ण था, लेकिन इसने मेरे शैक्षणिक जीवन में पहली बार एक नया चरण चिह्नित किया, मैंने पाया कि मुझे अंग्रेजी लिखने और बोलने का कुछ ज्ञान था। कम से कम स्नातक स्तर पर। इसने मुझे मेरे शिक्षकों से प्रशंसा और प्रशंसा दिलाई और मेरे स्नातक स्तर की पढ़ाई के अंत में, उन्होंने मुझे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य में मास्टर कार्यक्रम में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया, उन दिनों रामेश्वर नाथ की आर्थिक स्थिति इतनी खराब थी की *वह साइकिल भी नहीं खरीद सकते थे,* इसलिए वह शाम को ज्यादातर या तो कमरे में बैठकर पढ़ाई करता थे या थोड़ी देर टहलने जाते थे। रामेश्वर नाथ को खेले में भी रुचि थी, उन्हें हॉकी खेलना और देखना बहुत पसंद था और कभी-कभी वॉलीबॉल और बास्केटबॉल भी खेलते थे। इसके साथ ही प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करना भी शुरू कर दिया था ! काव ने लिखा, 'मेरी उपलब्धि का उच्चतम बिंदु 1939 में था, जब इलाहाबाद में अंतर-विश्वविद्यालय की बहस में, मैंने प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया था। 1938 में, रामेश्वर नाथ ने अंग्रेजी साहित्य में अपनी मास्टर डिग्री पूरी की, विश्वविद्यालय में पहला स्थान हासिल किया। आखिरकार उसने कक्षा में प्रथम पर *दो स्वर्ण पदक* जीते थे। ' रामेश्वर की एमए सफलता उनको प्यारी लग रही थी, क्योंकि दो साल पहले उनकी मां ने उन्हें नौकरी खोजने के लिए कहा था क्योंकि उनके दिवंगत पिता ने जो पैसा छोड़ा था, वह समाप्त हो गया था । जैसा कि उन्होंने याद किया, 'यह सुझाव (नौकरी लेने का) मैंने मना कर दिया क्योंकि मैंने अपनी मां से कहा था दिया कि कुछ हजार रुपये में मैं अपना जीवन नही जी पाऊंगा मुझे कुछ बड़ा करना है,यह कुछ वर्ष मेरे भविष्य के लिए बहुत महत्पूर्ण हैं अच्छा होगा कि मैं कुछ पैसे को आगे की पढ़ाई करके निवेश कर दूं। नाथ का यह सही निर्णय साबित हुआ, हालांकि, निश्चित रूप से, उस समय, यह अंधेरे में एक डुबकी थी, पर वो MA करने के बाद, सिविल सर्विस परीक्षा की तैयारी करके भारतीय पुलिस में शामिल होने में कामयाब रहे ! बस यहीं से हमारे नायक रामेश्व नाथ काव के जीवन ने बेहतरी के लिए एक नया मोड़ लिया ! भाग 2 "इंडियन पुलिस में चयन" हमारे नायक रामेश्वर नाथ ने सन् 1939 आईपी (इंडियन पुलिस) में प्रवेश के लिए लिखित परीक्षा उत्तीर्ण की, एक साक्षात्कार के लिए बुलाया गया। उन दिनों, साक्षात्कार संघीय लोक सेवा आयोग बोर्ड द्वारा आयोजित किया जाता था। लखनऊ में यूपी-सरकार सचिवालय के परिषद भवन में साक्षात्कार आयोजित किया गया था और बोर्ड के अध्यक्ष एक एन ग्लिशमैन थे। साक्षात्कार बोर्ड के साथ बातचीत में रामेश्वर को एक लंबी कहानी को छोटा करने के लिए कहा, जो रामेश्वर ने बहुत की रचनात्मक तरीके से आसानी से कर दिया था, इसके बाद कुछ महीने इंतज़ार के बाद मार्च 1940 में परिणाम घोषित किए गए जिसमे रामेश्वर नाथ का चयन इंडियन पुलिस सर्विस में हुआ। काव कहते हैं की "उस वर्ष वह पुलिस में सिलेक्ट होने लिए भाग्यशाली थे। "क्योंकि शुरू में यूपी से, वे केवल दो उम्मीदवारों को लेने जा रहे थे। बाद में, यह पता चला कि युद्ध [द्वितीय विश्व युद्ध] के कारण, भारत में इंडियन पुलिस ने एक और आदमी को लेने का फैसला किया और मैं अंदर जाने में कामयाब रहा ! इस ख़बर से पूरा परिवार उत्साहित था। उसकी माँ के का खुशियां ठिकाना ही नहीं रहा, क्यों की उसके पति की मृत्यु के बाद उन्होने बहुत ही खराब दिन देखे थे ,यह उनके जीवन में शायद सबसे यादगार खुशी का दिन था। रामेश्वर नाथ अपनी मां के बारे में कहते हैं 'उसने अपनी सारी उम्मीदें मुझ पर टिका दी थीं, और मैंने आखिरकार अपनी पहचान बना ली थी और मेरे छोटे भाई को भी इस बात से खुशी हुई कि मैंने आखिरकार अच्छा किया ! यहां काव अपनी मां को दोनों भाइयों को अच्छी शिक्षा, परवारिश तथा जीवन में सफल होने के लिए प्रेरित करने का श्रेय देते हैं, क्योंकि एक युवा विधवा के रूप में उनके पास आगे देखने के अलावा और कुछ नहीं था। काव कहते हैं की "अपने बच्चों को जीवन में अच्छा करते देखने के लिए मां ने मुझ पर कड़ी निगरानी रखी और बहुत सख्त अनुशासन भी लागू किया। वह कई मौकों पर मुझे मार भी देती थी(फिर भी) मेरी माँ भी सबसे अच्छी माँ थी जिसकी कोई भी उम्मीद कर सकता था। वह स्नेह कर रही थी और उसने मुझे अटूट प्यार दिया और अपने बच्चों को अपने अस्तित्व का केंद्र बना लिया। आज तक, मुझे उसका रवैया और प्यार याद है, अनगिनत सक्षम रातें जब वह बड़ौदा के गर्म, उमस भरे मौसम में मुझे जगाती रही। उसकी परीक्षा इस तथ्य के कारण अधिक सटीक हो गई थी कि मुझे बार-बार मलेरिया और पेचिश का सामना करना पड़ता था, जिसके लिए सख्त आहार और एक सख्त आहार के रखरखाव की आवश्यकता होती थी ! रामेश्वर नाथ ने भी अपने भाई पर निशाना साधा, उनके भाई, श्याम सुंदर नाथ काओ, उनके पिता के निधन के बाद पैदा हुए थे। 'मुझे यह उल्लेख करना चाहिए कि मेरा छोटा भाई मुझसे छह साल छोटा है। प्रारंभ में, मैं अपनी माँ के प्यार के पूर्ण एकाधिकार की उम्मीद करने लगा था, विशेष रूप से उसके विधवा होने के बाद। तो, मेरा छोटा भाई मुझे मेरी माँ के प्यार और स्नेह के लिए मेरा दुश्मन लगता था। यह, ज़ाहिर है, जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया, रिश्ते को समझता गया और आज, मुझे लगता है, कि मैं और मेरा भाई अच्छे दोस्त हैं और एक-दूसरे के बहुत करीब हैं। इसका श्रेय पूरी तरह से मेरे भाई को जाना चाहिए ! दरअसल, बंधन इतना मजबूत था कि जनवरी 2002 में जब छोटे भाई को राम मनोहर लोहिया अस्पताल के आईसीयू में भर्ती कराना पड़ा, तो आरएनके चिंता से घिर गया। और अपने स्वयं के अच्छे स्वास्थ्य के बावजूद, अपने भाई के करीब होने के लिए खुद को उसी अस्पताल में भर्ती कराया। किसी को पता नहीं चलेगा कि रामेश्वर नाथ के दिमाग में क्या चल रहा था कि जनवरी 2002 में उनके भाई ने आईसीयू में अपने जीवन के लिए संघर्ष किया, ये भी सच यह है कि रामेश्वर नाथ काव का निधन उनके भाई के कुछ दिनों बाद 20 जनवरी 2002 को हुआ था। पुलिस में सिलेक्ट होने के बाद, आरएनके मुरादाबाद के पुलिस प्रशिक्षण कॉलेज में पहुंचा और 7 अप्रैल 1940 को उसे ड्यूटी पर भेज दिया गया। उसे ऑफिसर्स मेस में एक कमरा दिया गया था, जो वास्तव में प्रथम विश्व युद्ध के समय की एक पुरानी पुरानी इमारत थी। उसके पास एक बड़ा कमरा था, एक गोरखा, जीप बहादुर, लखनऊ से नाथ के साथ थी। हालांकि, ब्रिटिश पुलिस अधिकारियों के साथ काओ की मुलाक़ात सौहार्दपूर्ण नहीं थी। काव कहते हैं "वे लोग जो मुझे केवल अर्ध-साक्षर, बहुत असभ्य, अपशब्दों का इस्तेमाल करने वाले, आमतौर पर व्यवहार में घमंडी लगते थे। शुरुआत में, इससे मुझे बहुत परेशानी हुई ! एक रात मेस में खाने के बाद जब नाथ बिलियर्ड्स खेल रहे थे। उस दौरान, कांग्रेस के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन पर एक चर्चा शुरू हुई। अचानक प्रधानाध्यापक ने पलट कर कहा, 'यदि आप कांग्रेस के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय आंदोलन के बारे में कुछ जानना चाहते हैं, तो काओ से पूछिए, क्योंकि वह हिंदुस्तान टाइम्स पढ़ता है।' *हिंदुस्तान टाइम्स* यह ध्यान दिया जाना चाहिए, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के समर्थक के रूप में देखा गया था ! कभी-कभार मेस में भारतीय खाना बनाया जाता था और रामेश्वर नाथ को याद आता है ऐसे ही एक मौके पर, एक अंग्रेज अफसर ने उससे पूछा, 'क्या यह खाने का स्वाद उतना ही खराब है जितना दिखता है?' मेस में भारतीय रेडियो पर भारतीय संगीत नहीं चला सकते थे। मुरादाबाद में अपने प्रवास के दौरान, नाथ को लगभग छह विभिन्न लोगों द्वारा पी गई शराब का अलग-अलग हिसाब रखना पड़ता था। कभी-कभी मेस में भारतीय भोजन तैयार किया जाता था और आरएनके को एक ऐसे अवसर पर याद आया, एक ब्रिटिश अधिकारी ने उससे पूछा, 'क्या यह भोजन उतना ही खराब है जितना दिखता है? यह सब बहुत ही दर्दनाक था, काओ फिर से सदस्य थे। मेस में भारतीय रेडियो पर भारतीय संगीत नहीं चला सकते थे। मुरादाबाद में अपने प्रवास के दौरान, आरएनके ने विभिन्न पेय, शराब और वाइन के बारे में बहुत कुछ सीखा, क्योंकि उन्हें लगभग छह महीने तक 'सी' (या तहखाने) अधिकारी के रूप में काम करने के लिए तैयार किया गया था। उसे विभिन्न लोगों द्वारा पी गई शराब का अलग-अलग हिसाब रखना पड़ता था। उन्होंने कहा कि यह अपने आप में काफी दिलचस्प शिक्षा थी। 'अक्सर जब पड़ोसी जिलों के कई सैन्य अधिकारियों और पुलिस अधिकारियों को आमंत्रित किया जाता था। तब पार्टी के बाद काव और साथियों को पूरी सफाई करनी पड़ती थी, तब काम करते करतेअक्सर यह लगभग रात के 3 बजे जब हम अपने कमरों में वापस आते थे और फ़िर सुबह 5 बजे ट्रेनिंग के लिए उठना पड़ता था राइडिंग पुलिस ट्रेनिंग कॉलेज का एक अभिन्न अंग था। वास्तव में, रामेश्वर नाथ ने मुरादाबाद पहुंचने के एक सप्ताह के भीतर एक घोड़ा प्राप्त कर लिया था भाग 3 "इंटेलिजेंस ब्यूरो का सफ़र" बात उस समय की है जब भारतीय पुलिस मे सेवा करते हुए नाथ ने भारत के कई शहरों में अपनी सेवाएं दीं, सबसे पहले उनको खीरी में तैनात किया गया था,जो लखीमपुर जिले का मुख्यालय था। इसके बाद, संयुक्त प्रांत में लगभग 7 साल बिताने के बाद, रामेश्वर नाथ को विभिन्न जिलों में तैनात किया गया। जब वे पुलिस में अपने केरियर के बारे में सोच ही रहे थे, तब उनके जीवन ने एक नया करवट लिया और रामेश्वर नाथ काओ को 1947 में इंटेलिजेंस ब्यूरो (IB) के निदेशालय में प्रतिनियुक्त किया गया, यह उनके लिए life changing moment था ! ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ काम कर रहे एक ब्रिटिश सिविल सेवक द्वारा 19वीं शताब्दी के अंत में एक संगठन के रूप में स्थापित, इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) को औपचारिक रूप से 1920 में आयोजित किया गया था, जिसे ब्रिटिश सुरक्षा एजेंसी, MI 5 के अनुरूप बनाया गया था। 20वीं सदी के पहले 47 वर्षों के दौरान भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों और राजनीतिक नेताओं पर नजर रखते हुए, IB दमनकारी ब्रिटिश शासन का एक अनिवार्य अंग बन गया। आजादी के बाद भारत के विरोधियों और उसके पड़ोसियों पर नजर रखने के लिए आईबी के जनादेश का विस्तार हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के वर्षों में भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों से खुफिया जानकारी इकट्ठी करना (IB) आईबी का एक महत्वपूर्ण कार्य बन गया। सन् 1947 और 1950 के बीच आईबी के पहले भारतीय निदेशक *संजीवी पिल्लई* ने जानबूझकर अधिक हिंदू अधिकारियों को शामिल करके(IB) संगठन की नौकरी प्रोफ़ाइल को बदलने की कोशिश की। वास्तव में, एम.के.नारायणन, जिन्होंने 1980 के दशक के अंत में आईबी प्रमुख के रूप में कार्य किया और बाद में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के रूप में कार्य करते रहे उन्हें (IB) आईबी में शामिल होने वाले पहले हिंदू अधिकारी होने का गौरव प्राप्त था। अंग्रेजों के अधीन, आईबी पर श्वेतों का प्रभुत्व हुआ करता था, जब रामेश्वर नाथ IB में शामिल हुए, उन्होने *भोला नाथ मुलिक* के साथ मिलकर काम करना शुरू कर दिया, तब रामेश्वर नाथ काव IB के डिप्टी निदेशक थे और बाद में जुलाई 1950 से अक्टूबर 1964 तक आईबी के सबसे लंबे समय तक सेवा देने वाले निदेशक बने ! जब मुलिक दूसरे निदेशक के रूप में पदभार संभाला, तो उन्होने ने रामेश्वर नाथ काओ को प्रधानमंत्री की सुरक्षा का प्रभारी बनाया। नाथ ने एक उप निदेशक के रूप में, प्रधान मंत्री नेहरू के सुरक्षा विवरण को देखने के साथ ही उन्हें अन्य प्रतिष्ठित गणमान्य व्यक्तियों के दौरे की सुरक्षा व्यवस्था की देखरेख करने का काम भी सौंपा गया था। चलिए हम आपको इस समय की जानने लायक कुछ महत्वपूर्ण घटना सुनाते हैं 1950 में इंग्लैंड की महारानी एलिजाबेथ भारत दौरे पर थीं। काओ ब्रिटिश सम्राट की सुरक्षा और यात्रा व्यवस्था का नेतृत्व कर रहे थे। बम्बई में रानी एक विशाल भीड़ से गुज़र रही थी जिसे पुलिस ने नियंत्रण में रखा था। काओ आसपास के इलाकों पर नजर रख रहे थे,जब उसने देखा कि रानी पर कुछ फेंका जा रहा है। सहज रूप से, काओ ने रानी की ओर फेंके गए पैकेज को पकड़ लिया, जो एक फूल का गुलदस्ता निकला, न कि बम (जैसा कि काओ को संदेह था) उसकी त्वरित प्रतिक्रिया को देखते हुए, रानी ने इस घटना पर रामेश्वर नाथ काव पर 'अच्छा क्रिकेट' टिप्पणी की। इस घटना से पता चलता है कि काओ के पास एक सतर्क और चालाक दिमाग था ! *इस दौर की दूसरी महत्वपूर्ण घटना थी Air India के विमान kashmir princes का दुर्घटनाग्रस्त होना* जवाहरलाल नहरु द्वारा,11 अप्रैल 1955 को इंडोनेशिया के तट पर कश्मीर प्रिंसेस नाम के एयर इंडिया के विमान के दुर्घटनाग्रस्त होने की जांच करने के लिए रामेश्वर नाथ काव को विशेष जांचकर्ता के रूप मे नियुक्त किया गया था ! बोइंग में इंडोनेशिया द्वारा आयोजित एक एफ्रो-एशिया सम्मेलन आयोजित किया गया था। यह समारोह 18 और 24 अप्रैल 1955 के बीच आयोजित होने वाला था। उद्घाटन सम्मेलन के लिए अपने प्रतिनिधियों को ले जाने के लिए एयर इंडिया इंटरनेशनल सुपर कॉन्स्टेलेशन विमान को चीनी सरकार द्वारा चार्टर्ड किया गया था। यह 10 अप्रैल को बंबई से निकला था और स्थानीय समयानुसार दोपहर के करीब, अगले दिन कलकत्ता में ईंधन भरने के रुकने और बैंकॉक में चालक दल के परिवर्तन के बाद हांगकांग पहुंचा था। योजना चीनी प्रतिनिधिमंडल को हांगकांग से जकार्ता ले जाने की थी। पहली यात्रा में, 8 चीनी अधिकारी, 2 पत्रकार और 1 उत्तरी वियतनामी अधिकारी के अलावा 5 चालक दल के सदस्य शामिल थे। *कश्मीर प्रिंसेस* ने 11 अप्रैल 1955 को स्थानीय समयानुसार लगभग 1:30 बजे हांगकांग के हवाई अड्डे से उड़ान भरी थी। उस शाम इसे जकार्ता में उतरना था।" हालांकि, पांच घंटे की यात्रा के बाद ही यह इंडोनेशिया के नटूना द्वीप के पास दुर्घटनाग्रस्त हो गया। दुर्घटना में सभी 11 यात्रियों और चालक दल के 8 सदस्यों में से 5 की मौत हो गई। 3 चालक दल के सदस्य बच गए जो एक अलग द्वीप पर तैरकर गए और इन्हे स्थानीय मछुआरों द्वारा बचा लिया गया। इन घटना के बाद उन्होने खुलासा किया कि हांगकांग में तेज बड़बड़ाहट सुनी थी। उन्होंने खुलासा किया कि हांगकांग में रुकने के दौरान कोई सुरक्षा ड्रिल या पूरी तरह से जांच नहीं की गई थी और कई लोगों की विमान तक पहुंच थे। फॉर्मोसा (अब ताइवान) इंटेलिजेंस ऑपरेटिव, जो एक हवाई जहाज तकनीशियन के रूप में पूछताछ कर रहा था, हांगकांग में विमान के रुकने के दौरान विमान पर बम लगाया था। उनकी मंशा स्पष्ट रूप से चीनी प्रधानमंत्री की हत्या करने की थी। इस घटना से आहत, चीन ने प्रधानमंत्री नेहरू से जांच में भारत की सहायता के लिए अनुरोध किया। ब्रिटेन भी जांच में शामिल हुआ क्योंकि उस समय हांगकांग ब्रिटिश क्षेत्र था। तत्कालीन आईबी प्रमुख की सलाह पर बी.एन. मलिक, नेहरू डे ने रामेश्वर नाथ को जांच में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए नियुक्ति किया ! हमेशा यात्रा में रहने वाले नेता, प्रधान मंत्री नेहरू ने अक्सर दुनिया की यात्रा की। कश्मीर प्रिंसेस जांच से लौटने के बाद, रामेश्वर नाथ हमेशा हर दौरे पर नहरु के साथ ही रहते थे, चाहे वह देश में हो या विदेश में। इसके बाद देश की सुरक्षा को देखते हुए उच्च गणमान्य व्यक्तियों, शीर्ष अधिकारियों के साथ जटिल चर्चाओं और वार्ताओं के बाद के उन्होंने RAW की स्थापना की ! देश में सबसे लंबे समय तक सेवा करने वाले प्रधान मंत्री के साथ मिलकर काम करते हुए नाथ विदेश यात्रा के दौरान कई देशाें के खुफिया प्रमुखों के संपर्क में आय, पूरे विश्व में उन्हें महान जासूसी माना जाता था। नेहरू ने उनकी शांत दक्षता और सूक्ष्मता के लिए भी उन को प्रोत्साहन और सहयोग दिया। यह उन्हें कैरियर आगे बड़ाने के लिए था, क्योंकि इसने रामेश्वर नाथ के पदानुक्रम में वृद्धि की जिससे उन्होने खुफिया और जासूसी की गुप्त दुनिया में केंद्रीय स्थान पर कब्जा करना शुरू कर दिया और इस समय तक रामेश्वर नाथ काव का नाम एक महान जासूस के तौर पर पूरी दुनिया में मशहूर हो गया था ! भाग 4 "पशु प्रेमी रामजी: The Gentleman" एच मालिनी काव, रामेश्वर नाथ की पत्नी ने जुलाई 2019 में काव परिवार में खाने की मेज पर बैठे हुए, अपने पति रामेश्वर नाथ का वर्णन इस प्रकार किया। उन्होने कहा, 'उनका करियर शानदार रहा।' उन्होंने नाथ को एक वफादार और सज्जन व्यक्ति के रूप में वर्णित किया, जिन्होंने कभी किसी का बुरा नहीं सोचा। नाथ, एक धर्मनिष्ठ हिंदू, गहरे आध्यात्मिक थे और हर दिन ध्यान और पूजा का अभ्यास करते थे। एक समर्पित पारिवारिक व्यक्ति, नाथ और मालिनी काओ रामेश्वर नाथ के छोटे भाई और उसकी पत्नी के साथ जीवन भर एक ही छत के नीचे संयुक्त परिवार के रूप में रहे। काशमीरी पंडित समुदाय में, भाइयों को उनके करीबी बंधन के कारण 'राम-लक्ष्मण की जोड़ी' (जोड़ी) के रूप में जाना जाता था। उनकी बेटी अचला काओ, अब अचला कौल, रामेश्वर नाथ को सही और गलत के बारे में दृढ़ विश्वास वाले व्यक्ति के रूप में याद करती हैं। 'उन्होंने कभी भी धर्मत्याग नहीं किया और हमेशा उदाहरण के लिए नेतृत्व किया। वह कहा करते थे, 'नसिहत मत दो, नमुना बन जाओ।' (सलाह न दें, दूसरों के लिए एक उदाहरण सेट करें।) यही आदमी का सार था, ' अचला कहती है, उसका चेहरा उचित गर्व से चमक रहा था। मालिनी काओ ने उस घटना को सुनाया जब दंपति ने मां आनंदमयी से मुलाकात की थी। नाथ ने प्रणाम के साथ उनका अभिवादन किया, जब उन्होंने पूछा, 'क्या नाम है तुम्हारा?' उसने उसे बताया कि उसका नाम रामजी है, तो संत ने कहा, "जैसा नाम वैसे गुण" ,हिंदू धर्म और पौराणिक कथाओं में, भगवान राम को कर्तव्य और सिद्धांत का प्रतीक माना जाता है। संत ने जाहिर तौर पर नाथ में समान विशेषताओं को देखा। वे गीता और रामायण के अच्छे जानकार थे। *चलिए अब कुछ अब बात करते हैं हमारे नायक रामेश्वर नाथ जी की दिनचर्या के बारे में....* नाथ एक बहुत ही अनुशासित और समय के पाबंद व्यक्ति, नाथ को ढिलाई पसंद नहीं थी। उनकी दिनचर्या तय थी। सुबह 9 बजे नाश्ता, दोपहर 1:30 बजे लंच और रात 9 बजे डिनर। अचला याद करती हैं, 'जब वह हमें 8 बजे तक तैयार होने के लिए कहते थे, तो हम सुनिश्चित करते थे कि हम 5 से 8 बजे तक तैयार हो जाएं।' एक सिर्फ चाय पीने वाले और शाकाहारी नाथ, इतना अत्यंत दयालु मेजबान था की अपने मेहमानों को शराब परोसता था। मालिनी काओ एक अच्छी रसोइया थीं और लोगों को उनके पसंद खा खाना खिलाना पसंद करती थीं। मलिनी बताती हैं नाथ की खास बात यह है कि वह हमेशा सर्दियों में थ्री-पीस सूट और गर्मियों के महीनों में सफेद, खादी की शर्ट पहनते थे, वह अपने पहनावे पर काफी ध्यान रखते थे, उनका मानना था कि पहनावा ही इंसान की पहचान होता है, इसलिए हमेशा इस कपड़े पहने जिसमे आप सभ्य और नम्र दिखें ! 2005 और 2007 के बीच रॉ का नेतृत्व करने वाले होर्मिस थरकन को नाथ के साथ अपनी आखिरी मुलाकात की याद है। वो कहते हैं 'मैं उनसे आखिरी बार 1998 की सर्दियों में दिल्ली से ट्रांस फेर पर निकलने से ठीक पहले मिला था। जब मौली, मेरी पत्नी और मैं वसंत विहार पहुंचे, मिस्टर काओ, पूरी तरह से सिले हुए पिनस्ट्रिप सूट पहने हुए और श्रीमती काओ, हमेशा की तरह मुस्कुराते हुए, ड्राइंग रूम में हमसे मुलाकात के लिए इंतजार कर रही थीं। शाम को दिल्ली के ट्रैफिक में फंसे, हम लगभग 15 मिनट लेट थे। जैसा कि मुझे उम्मीद थी, श्री काओ ने निश्चित रूप से कुछ नाराजगी के साथ देरी पर टिप्पणी की। वह हमेशा समय के बहुत पाबंद थे। लेकिन इसके बाद, वह पूरी तरह से नार्मल में हो गए, वो खुद सिर्फ कॉल ड्रिंक लेता था,पर उसने मेरे लिए एक ड्रिंक बनाया, यही उसका व्यवहार था ! रामेश्वर नाथ काव RAW के दो पीढ़ी के अधिकारियों के सलाहकार थे। विक्रम सूद, जो 1972 में एजेंसी में शामिल हुए और 2001 में इसके प्रमुख बने, कहते हैं, वो बहुत ही महान ज्ञानी और पिता तुल्य थे" यह भावना उनके सहयोगियों, उनके अधीनस्थों और पेशेवर रूप से उनके साथ बातचीत करने वाले लोगों द्वारा सब जगह कही जाती थी, शंकरन नायर, जो 1977 में रामेश्वर नाथ के बाद विभाग के दूसरे प्रमुख के रूप में सफल हुए, उन्होने शॉर्ट मे काव के बारे मे कहा था, *'रामजी ... उच्च बुद्धि वाला, एक सच्चा हिंदू और एक ऐसा व्यक्ति जो अपने सबसे बड़े दुश्मन को भी नुकसान नहीं पहुंचाएगा। एक बार मैंने पाया कि हमारे एक पूर्व सहयोगी, जो सेवानिवृत्त हो चुके थे, उनसे किसी सहायता के लिए मिलने की प्रतीक्षा कर रहे थे। मैंने रामजी से पूछा कि वह इस आदमी की मदद क्यों कर रहा है जो उसके नाथ के बारे में झूठी अफवाहें फैला रहा था। तब नाथ का जवाब था कि अफवाहें उन्हें नुकसान नहीं पहुंचाएंगी, लेकिन हमारे पूर्व सहयोगी को दी गई कोई भी सहायता उनकी मदद करेगी।' आप को बता दें कि नायर और नाथ की आपस में गहरी दोस्ती थी ! स्वतंत्रता के बाद के भारत में एक RAW संगठन को बनाने में उनका योगदान एक दुर्लभ सफलता की कहानी है। नाथ और नायर दिन और रात की तरह अलग थे, लेकिन उनका बंधन उनके व्यक्तिगत व्यक्तित्व से परे था , नाथ के साधु व्यवहार ने नायर उनको चिढ़ाया करते थे उन्होने कहा की, 'रामजी, आपको अपनी नाभि को ध्यान में रखते हुए हिमालय की एक गुफा में बैठना चाहिए। लेकिन मेरे कभी-कभार आने के लिए गुफा में स्कॉच स्टोर करना न भूलें!'! नाथ केवल आधिकारिक काम के बारे में नहीं जानते थे उनके मन में एक कलात्मक झुकाव था जो एक ऐसा व्यक्ति था जिसे मूर्तिकला पसंद था और जो सुंदरता के लिए एक आंख रखता था। वह लकड़ी, मिट्टी और पत्थर से काम करता था। वह गंध की तीव्र भावना वाले व्यक्ति थे और फ्रा ग्रांट फूलों से प्यार करते थे। अचला याद करती हैं, 'हमारे घर में दिन में दो बार ताजे फूल बदले जाते थे।' अपनी सेवानिवृत्ति के बाद के वर्षों में, नाथ ने अधिक जोर से मूर्तिकला करने के अपने शौक पूरा किया और दिल्ली के गढ़ी गांव में अक्सर आते थे। वह युवा कलाकारों के एक महान संरक्षक थे और उन्हें प्रोत्साहित करते थे, क्योंकि नाथ को लगता था कि कलाकार हमेशा जीवित रहने के लिए संघर्ष करते हैं। गढ़ी की अपनी लगातार यात्राओं के दौरान, वह मोहम्मद सादिक नाम के एक युवा कलाकार से मिले और उनके साथ काम किया। आज सादिक लंदन में सेटल हैं लेकिन फिर भी परिवार के संपर्क में रहता है। अचला कहती हैं पापा को (रामेश्वर नाथ) जानवरों से बहुत प्यार था। अपने पुलिस करियर की शुरुआत में ही उन्होने ने घोड़ों के प्रति प्रेम को विकसित कर लिया था। कुत्ते हमेशा घर का हिस्सा थे। बाद में जीवन में, जब सभी पालतू कुत्ते एक के बाद एक मर गए, नाथ यह सुनिश्चित करते थे इलाके में आवारा कुत्तों को खाना और आश्रय दिया जाए। अचला याद करते हैं, एक बार बारिश हो रही थी पापा ने एक आवारा कुत्ते को आश्रय खोजने की कोशिश करते हुए देखा, तो उन्होने घरेलू नौकर से कहा था, "वो गेट को खोल दो, उसे कुत्ते को अंदर रहने दो" भाग 5 "The Kashmir Princess Investigation" अप्रैल 1955 को हमारी कहानी के नायक नाथ के करियर में एक महत्वपूर्ण मोड़ माना जाता था, जब उन्हें एक ऐसा मामला सौंपा गया जिसने उन्हें एक बड़ा बढ़ावा दिया और उनके अपने शब्दों में, एक 'महत्वपूर्ण मील का पत्थर' साबित हुआ। यह मामला अंतरराष्ट्रीय प्रभाव में था और रामेश्वर नाथ को 5 अलग-अलग देशों में ले गया और उसे विभिन्न संस्कृतियों, पुलिस के दृष्टिकोण और जासूसी कार्यों से अवगत कराया। विदेश में यह उनका पहला बड़ा असाइनमेंट था जिस पर आरएनके ने 6 महीने विदेश में बिताए। इसने उन्हें नई भूमि देखने और कई विदेशी गणमान्य व्यक्तियों से मिलने का अवसर प्रदान किया, जिनमें से सबसे विशिष्ट थे चीनी प्रधानमंत्री Zhao Enlai ! नाथ की ड्यूटी उन्हें सिंगापुर, इंडोनेशिया, फिलीपींस, हांगकांग और चीन ले गई। उनके अपने शब्दों में, यह दक्षिण पूर्व एशिया के लिए मेरा पहला प्रदर्शन था, जो सही मायनों में, अपने आप में एक आकर्षक दुनिया है। जांच Kashmir Princess नाम के एयर इंडिया के एक विमान के दुर्घटनाग्रस्त होने को लेकर थी। इस पूरी घटना के पीछे एक कहानी है। प्रधान मंत्री नेहरू ने बांडुंग में इंडोनेशिया में आयोजित होने वाले एक एफ्रो-एशिया सम्मेलन की कल्पना की थी। यह 18 और 24 अप्रैल 1955 के बीच आयोजित होने वाला था। एयर इंडिया इंटरनेशनल सुपर कॉन तारकीय विमान को चीनी सरकार ने प्रीमियर के साथ उद्घाटन सम्मेलन के लिए अपने प्रतिनिधियों को ले जाने के लिए चार्टर्ड किया था। झोउ एनलाई के विरोधियों ने, उसकी हत्या के अवसर की तलाश में, हांगकांग में रुकने के दौरान विमान पर बम लगाया। विमान दक्षिण चीन सागर में दुर्घटनाग्रस्त हो गया (अध्याय 2 देखें)। आरएनके को अनुवर्ती जांच में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए प्रतिनियुक्त किया गया था। आरएनके के अनुसार- उन्होंने जकार्ता के लिए हांगकांग से 8 चालक दल के सदस्यों और 11 यात्रियों के साथ उड़ान भरी घटनाओं के अनुक्रम को एक साथ जोड़ने के लिए अपने स्वयं के प्रयास किए। लेने के लगभग 5 घंटे बाद , एक दबे हुए विस्फोट की आवाज सुनी गई। उस समय हवाई जहाज समुद्र के ऊपर लगभग 18,000 फीट की ऊंचाई पर उड़ रहा था। विस्फोट के तुरंत बाद, केबिन में धुआं घुसना शुरू हो गया और तीसरे इंजन के पीछे स्टारबोर्ड रिग में आग का पता चला। वायुयान के कप्तान कैप्टन जतर ने हवाई जहाज से उतरने का निश्चय किया और इसके लिए निर्धारित ड्रिल को शीघ्रता से और विधिपूर्वक किया गया। वंश तेजी से था, और इसका अंतिम चरण अत्यंत कठिन परिस्थितियों में किया गया था। हवाई जहाज समुद्र में गिर गया, स्टारबोर्ड पहले पानी से टकराया और नाक लगभग तुरंत डूब गई। प्रभाव के परिणामस्वरूप विमान को जला दिया गया और नष्ट कर दिया गया और यात्रियों और चालक दल के सदस्यों में से केवल तीन चालक दल के सदस्य बच गए। बचे लोगों में फ्लाइट नेविगेटर पाठक, एयरक्राफ्ट मैकेनिक कैल इंजीनियर कार्णिक और सह-पायलट दीक्षित थे। एयर इंडिया इंटरनेशनल के सबसे अनुभवी पायलटों में से एक, विमान के कप्तान कैप्टन जतर की उनकी सीट पर ही मृत्यु हो गई और वास्तव में, जब बचाव अभियान बाद में हुआ, तो उनका शव कप्तान की सीट पर मिला। यह लगभग शुरू से ही स्पष्ट था कि kashmir Princess विमान तोड़फोड़ का शिकार हुई थी। इस घटना ने बहुत महत्वपूर्ण थी , क्योंकि इसमें कई देश शामिल थे। विमान भारतीय था, लेकिन यात्री सभी चीनी थे। इसने हांगकांग से उड़ान भरी थी और इंडोनेशियाई जलक्षेत्र में दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। भारत सरकार न केवल इस मामले से सीधे तौर पर चिंतित थी, क्योंकि विमान भारतीय था, बल्कि इसलिए भी कि उस समय, 1955 में, अंग्रेजों का चीनियों के साथ कोई नियमित राजनयिक संबंध नहीं था। इन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, भारत सरकार ने नागरिक उड्डयन विभाग से एक बड़ी टीम को जांच के सभी पहलुओं से जुड़े रहने के लिए नामित किया। के.एम. राहा, जो उस समय नागरिक उड्डयन विभाग के उप निदेशक जनरल थे, ने टीम का नेतृत्व किया। उनके सलाहकार कर्नल ए.के. मित्रा, जो उस समय जकार्ता में ताचे में भारत की सेना थी, और वाई.आर. मल होत्रा, मुख्य दुर्घटना निरीक्षक, भारत सरकार में नागरिक उड्डयन विभाग। दुर्घटना के लगभग तुरंत बाद, चीनी रेडियो ने घोषणा की कि चीनी सरकार के पास सूचना है कि कश्मीर की राजकुमारी तोड़फोड़ की शिकार हुई थी। चीनी ने अपराध के लिए KMT (कौमिंगटांग, ताइवानी सरकार) एजेंटों को दोषी ठहराया। इन निहितार्थों को देखते हुए, प्रधान मंत्री नेहरू के अनुमोदन के साथ, यह निर्णय लिया गया कि नागरिक उड्डयन विभाग द्वारा भेजी गई टीम के अलावा, भारत के एक खुफिया अधिकारी को खुफिया अधिकारियों द्वारा जांच से जुड़े होने के लिए प्रतिनियुक्त किया जाना चाहिए। रामेश्वर नाथ को खुफिया ब्यूरो (डीआईबी) के निदेशक, भोला नाथ मुलिक ने महत्वपूर्ण कार्य के लिए चुना था। प्रधान मंत्री ने ब्रिटिश प्रधान मंत्री सर एंथनी ईडन को नाथ के नामांकन के बारे में सूचित किया था। इसे आवश्यक माना गया क्योंकि यह सही माना जाता था कि जांच का मुख्य बोझ हांगकांग पुलिस को ही संभालना होगा है, नाथ को उनके साथ बहुत निकट संपर्क में काम करना होगा। सभी संबंधित अधिकारियों से आवश्यक मंजूरी मिलने के बाद, नाथ को श्री मुल्लिक ने हरी झंडी दी और अपनी यात्रा के पहले चरण में बॉम्बे जाने के लिए कहा। तदनुसार, नाथ 20 अप्रैल 1955 को दिल्ली से बॉम्बे के लिए हवाई मार्ग से रवाना हुआ," षडयंत्र की जांच के लिए काव कई देशों में घूमे और वहां के जासूसों ,सरकारी अधिकारियों से मिले, काव ने कुछ ही दिन में इसका पर्दाफाश करते हुए बता दिया कि साजिश कर्ता ताइवान की खुफिया एजेंसी है। इस काम से चीन के प्रधानमंत्री बेहद प्रभावित हुए उन्होंने काव को अपने दफ्तर बुलाकर, उपहार में एक शील प्रदान की, जोकि काव के कार्यकाल के दौरान उनकी मेज पर नजर आती थी। काव को मिले इस सम्मान ने पूरी दुनिया में उनको प्रसिद्ध कर दिया और नाथ की गिनती विश्व के महान जासूसों में होने लगी, इस घटना से नहरु बहुत प्रभावित हुए, उन्होने काव को अपना खास सलाहकार समिति में रखा , उसके बाद काव हमेशा नहरु के साथ ही रहते थे, नहरु देश में रहे या विदेश में काव साथ जाते थे ! भाग 6 "The Ghana Assignment" 1957 में, रामेश्वर नाथ काव प्रधानमंत्री के सुरक्षा अधिकारी के रूप में अपनी नौकरी में अच्छी तरह से स्थापित हो गए थे और देश और विदेश में अक्सर नहरु के साथ यात्रा करते थे, जुलाई 1957 में राष्ट्रमंडल प्रधानमंत्रियों के सम्मेलन के लिए नेहरू की लंदन यात्राओं में से एक के दौरान एक दिलचस्प बातचीत हुई जो काओ को एक असाइनमेंट के लिए अफ्रीका में घाना के नव-स्वतंत्र देश की कोशिश में ले गई। नाथ के अपने नोट्स के अनुसार, घाना के तत्कालीन प्रधान मंत्री डॉ क्वामे नक्रमाह पीसी ने घाना के लिए एक बाहरी खुफिया सेवा स्थापित करने में सहायता के लिए भारतीय प्रधानमंत्री से अनुरोध किया था। 'ऐसा प्रतीत होता है कि लगभग उसी समय या थोड़ी देर पहले, मिस्टर डेनियल ए. चैपमैन,जो उस समय घाना के प्रधानमंत्री के सचिव और घाना के मंत्रिमंडल के सचिव भी थे, ने इस मामले पर डीआई रेक्टर इंटेलिजेंस ब्यूरो (डीआईबी), भारत सरकार, जो उस समय इस मामले पर सलाह लेने के लिए राष्ट्रमंडल सुरक्षा सम्मेलन में भाग लेने के लिए लंदन गए थे ! इन दो चर्चाओं के बाद अक्टूबर 1957 में डॉ नकरमाह का एक पत्र आया जिसमें उन्होंने संकेत दिया कि घाना भारत में प्रशिक्षण के लिए दो वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को भेजने का इच्छुक है। जैसा कि घाना के प्रधान मंत्री ने सुझाव दिया था, इन दो अधिकारियों में से एक अंततः बाहरी खुफिया सेवा का प्रमुख होगा। उसी पत्र में, उन्होंने घाना में एक या दो साल के लिए एक अनुभवी भारतीय अधिकारी की सेवाओं का अनुरोध किया था ताकि घाना को नए संगठन की स्थापना में मदद मिल सके। 'विचार यह था कि विशेषज्ञ को अस्थायी रूप से सेवा का नया प्रमुख होना चाहिए और संगठन की नींव रखना चाहिए। उसे एक साथ वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को प्रशिक्षित करना चाहिए और सेवा की स्थापना के लिए आवश्यक अन्य कर्मचारियों का चयन करना चाहिए। डॉ नक्रमा के सुझाव की विदेश मंत्रालय और गृह मंत्रालय में विस्तार से जांच की गई और श्री मुल्लिक द्वारा भी ... जो सेवा स्तर पर सेवा में थे और लंदन में अपने सहयोगियों के संपर्क में भी थे, खासकर क्योंकि यह मामला स्थापना से संबंधित था। संबंधित मंत्रालयों में विचार-विमर्श के बाद, प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने नवंबर 1957 में घाना के अपने समकक्ष को वापस पत्र लिखकर घाना को एक विदेशी खुफिया सेवा स्थापित करने में मदद करने के भारत के सुझावों को स्वीकार किया। नेहरू के पत्र में कई चरणों में योजना को लागू करने के लिए मलिक द्वारा तैयार एक विस्तृत प्रस्ताव शामिल था। पहले चरण में, यह प्रस्तावित किया गया था कि भारत के डीआईबी को एक विस्तृत योजना तैयार करने के लिए जमीन पर स्थिति की जांच करने के लिए लगभग दो या तीन सप्ताह के लिए घाना का दौरा करना चाहिए। साथ ही, घाना के दो से तीन अधिकारियों के लिए भारत में बाह्य आसूचना में प्रशिक्षित होने की व्यवस्था की जानी थी। तीसरे और अंतिम चरण में, एक वरिष्ठ भारतीय अधिकारी भारत में प्रशिक्षित घाना के अधिकारियों में शामिल होने के लिए घाना जाएंगे, जब वे घर लौट आएंगे और उस देश के प्रयास में संगठन स्थापित करेंगे। "सुझाव यह था कि यह भारतीय खुफिया अधिकारी घाना में लगभग एक साल तक रहेगा, और घाना के दो अधिकारियों की मदद से, जो भारत में प्रशिक्षित थे, वह धीरे-धीरे सर्विस वाइस की स्थापना करेगा, कर्मचारियों का चयन करेगा और उनकी व्यवस्था करेगा। स्थानीय प्रशिक्षण। वह इसके कार्यान्वयन के समय के संचालन की निगरानी भी करेगा, नाथ ने कई वर्षों बाद अपने नोट्स में इसे लिखा था। उन्होंने यह भी याद किया कि ' भारतीय योजना में, यह विशेष रूप से जोर दिया गया था कि यह बेहतर होगा कि घाना जाने वाले भारतीय अधिकारी को सलाहकार रूप में दिया जाएगा और औपचारिक रूप से घाना की खुफिया सेवा का प्रमुख नहीं होगा। . यह महसूस किया गया था कि जब तक इस पद के लिए घाना के एक अधिकारी का चयन नहीं किया जाएगा, शायद या तो कैबिनेट सचिव या घाना के प्रभारी अधिकारी के रूप में, जो संगठन को नियंत्रित करने की जिम्मेदारी लेगा, भारतीय अधिकारी केवल एक सलहकार के रूप में कार्य करेगा। इस योजना को आगे बढ़ाने के लिए, काओ का चयन बी.एन. मुलिक को घाना जाने के लिए और अपने नियमित काम से मुक्त कर दिया गया और फरवरी 1958 से विशेष कर्तव्य पर रखा गया। ब्रिटिश सरकार, जो घानावासियों के साथ सुरक्षा में थी, और आईबी के निदेशक ने इस बीच खुद को घटनाक्रम के बारे में सूचित किया था। काओ ने कहा, 'भले ही ब्रिटिश सरकार दिल से दुखी थे कि घाना ने ब्रिटेन से पूछने के बजाय भारत से विदेशी विशेषज्ञ सलाह मांगी थी, फिर भी उन्होंने इस व्यवस्था को पसंद करने का नाटक किया ! योजना का पहला चरण स्थगित हो गया और अंत में, वह कभी घाना नहीं गए। इस बीच, योजना के अनुसार, जिसे अप्रैल 1958 में घाना सरकार को भेजा गया था, घाना के दो अधिकारी भारत पहुंचे। वे थे पॉल यांकी, जो पुलिस अधीक्षक के पद पर थे और बेन फोर्जे, जो पुलिस उपाधीक्षक थे। इन दोनों अधिकारियों को प्रशिक्षित करने के लिए काओ को नामित किया गया था। एचजे कृपलानी, एक अन्य आईबी अधिकारी, जो उस समय डिप्टी सेंट्रल इंटेल लिगेंस ऑफिसर के रूप में कार्यरत थे, वह रामेश्वर नाथ के सहायक थे। घाना के दो अधिकारियों का वर्णन करते हुए, काओ ने लिखा: 'वे दोनों नज़ेमा जनजाति के थे। उनका पुश्तैनी घर दक्षिण-पश्चिमी घाना में था। ये दोनों घाना पुलिस में पैदल सिपाही के रूप में शामिल हुए थे और धीरे-धीरे आगे बढ़े। उनकी औपचारिक शिक्षा कुछ हद तक सीमित थी लेकिन वे अपने आप को अंग्रेजी में काफी हद तक प्रवाह के साथ व्यक्त कर सकते थे, हालांकि उनकी शब्दावली सीमित थी। बी जिनिंग में, हमें घाना के उच्चारण और विशेष शब्दों और वाक्यांशों के साथ तालमेल बिठाने में कुछ कठिनाई हुई, जो पश्चिम अफ्रीका में आम थे। इन दोनों अधिकारियों ने डॉ नक्रमा का विश्वास जीता था और उनके प्रति बेहद वफादार थे। वे इस तथ्य के प्रति भी समझदार और जागरूक थे कि उन्हें उनके नेता द्वारा विदेशी खुफिया के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए चुना गया था। इसलिए, वे भारत में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन देना चाहते थे।' परियोजना के महत्व को समझते हुए, काओ और उनके सहायकों ने इस दृष्टिकोण के अनुरूप चलने की कोशिश की और आने वाले अधिकारियों की सुविधा के अनुरूप कार्यक्रम को समायोजित करने का प्रयास किया। उन्होंने कहा, 'हमने शुरू से ही यह माना था कि हमारे लिए घाना के अधिकारियों पर अच्छा प्रभाव डालना और उन्हें यह महसूस कराना अधिक महत्वपूर्ण है कि वे दोस्तों के बीच हैं। विदेशी खुफिया संचालन के बारे में उन्होंने जो वास्तविक सैद्धांतिक ज्ञान हासिल किया, उसे हमारे द्वारा द्वितीयक महत्व का मामला माना गया। इस योजना को बनाने या इसे क्रियान्वित करने, और आम तौर पर उनका हाथ पकड़कर और उन्हें यह महसूस कराने के लिए कि वे दोस्तों के बीच हैं, मैं भाग्यशाली था कि मुझे एक उत्कृष्ट टीम मिली, जिसका नेतृत्व आईबी के एक बहुत ही प्रतिष्ठित अधिकारी कृष्णन नायर ने किया। रामेश्वर नाथ जो अपनी तेज अवलोकन शक्तियों और लोगों को आकार देने की क्षमता के लिए जाने जाते थे ! जब घाना के दो अधिकारी प्रशिक्षण ले रहे थे, रामेश्वर नाथ का नाम औपचारिक रूप से विदेश मंत्रालय (एमईए) और गृह मंत्रालय (एमएचए) को एक अधिकारी के रूप में प्रस्तावित किया गया था, जिसे विदेशी खुफिया सेवा स्थापित करने के लिए योजना को लागू करना चाहिए। भाग 7 "1962 चीन युद्ध में पराजय और ARC का गठन" 1962 में चीन के साथ युद्ध में भारतीय पराजय ने भारतीय सुरक्षा प्रतिष्ठान में, विशेष रूप से खुफिया व्यवस्था में कई बदलावों को प्रेरित किया। आईबी, जो आंतरिक और बाहरी दोनों तरह की खुफिया जानकारी को संभालने वाली एकमात्र एजेंसी थी, तब विशेष संगठनों की आवश्यकता महसूस की जो तकनीकी खुफिया जानकारी एकत्र करने की देखभाल कर सके, तिब्बत में गुप्त अभियान चला सके और यहां तक ​​​​कि हिमालय की सीमा के पार दुश्मन की रेखाओं के पीछे भी काम कर सके। नतीजतन, दो नए महत्वपूर्ण संगठन- एविएशन रिसर्च सेंटर (ARC) और स्पेशल फ्रंटियर फोर्स (SFF) - IB के तहत बनाए गए ! ARC की स्थापना 4 जून 1963 को हुई थी, और रामेश्वर नाथ ने 1 सितंबर 1963 से 1 नवंबर 1966 तक संगठन का नेतृत्व किया। ARC 1962 के युद्ध के तुरंत बाद भारत और अमेरिका के बीच एक खुफिया सहयोग समझौते से बना था। 8 C-46 विमान और उनके पायलटों के साथ चार छोटे विमानों को एक गुप्त भारतीय हवाई अड्डे पर तैनात किया गया था, जिसका कोड 'ओक ट्री' था। अब हम जानते हैं कि यह ओडिशा के चारबटिया में है। बाद में, एआरसी ने उत्तर प्रदेश के सरसावा, असम में डूमडूमा और दिल्ली में पालम से काम करना शुरू किया। इसका कार्य तिब्बत और शिनजियांग के अंदर से फोटोग्राफिक और तकनीकी खुफिया जानकारी प्राप्त करना था। इसी तरह दूसरे संगठन SFF का गठन 14 नवंबर 1962 को हुआ था, इससे एक हफ्ते पहले चीन ने एकतरफा युद्धविराम की घोषणा की थी। प्रारंभ में, इसे 'स्थापना 22' या 'दो-दो' के रूप में जाना जाता था क्योंकि इसके पहले प्रमुख, मेजर जनरल सुजान सिंह उबन ने पहले 22 माउंटेन ब्रिगेड की कमान संभाली थी, लेखक और इतिहासकार क्लॉड अर्पी ने खुलासा किया। 1 9 नवंबर 1962 को, चीनी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) असम के मैदानी इलाकों में तेजपुर के करीब आ गई थी, जिसने तत्कालीन नॉर्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (एनईएफए) - अब अरुणाचल प्रदेश राज्य में कामेंग सेक्टर के माध्यम से लगभग बेरोकटोक प्रगति की थी। इस विकट स्थिति का सामना करते हुए, प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू अमेरिका से तत्काल सैन्य मदद की मांग कर रहे थे। अर्पी ने आगे कहा, '19 नवंबर को नेहरू द्वारा अमेरिकी राष्ट्रपति को दो डरावने पत्र भेजे जाने के एक दिन बाद, व्हाइट हाउस में नेहरू को जवाब देने के लिए एक महत्वपूर्ण बैठक हुई। तत्कालीन रक्षा सचिव तथा CIA के आला अधिकारी भी मौजूद थे। अमेरिकी अभिलेखागार हमें बताते हैं: "मैकनामारा ने आग्रह किया कि पहला कदम यह पता लगाना है कि वास्तविक स्थिति क्या थी। अगर हमें अपनी प्रतिष्ठा और संसाधनों को खतरे में डालना है, तो हमें सही स्तिथि का पता लगाना होगा। उन्होंने तुरंत दिल्ली में एक छोटा उच्च स्तरीय सैन्य मिशन भेजने का प्रस्ताव रखा। भारतीयों के साथ कार्रवाई की योजना बनाने के लिए राज्य और खुफिया लोगों सहित।'' 2 नेहरू का अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी (जेएफके) को पत्र, चीनियों को पूर्वोत्तर पर नियंत्रण करने से रोकने के लिए एक हताश अपील थी। . उन्होंने लिखा, 'नेफा कमांड में हालात अभी और भी खराब हुए हैं। बोमडिला गिर गया है और सेला से पीछे हटने वाली सेना सेला रिज और बोमडिला के बीच फंस गई है। चीन की भारी ताकत के साथ, पूरी ब्रह्मपुत्र घाटी गंभीर रूप से खतरे में है और जब तक WAR को रोकने के लिए तुरंत कुछ नहीं किया गया, पूरा असम, त्रिपुरा, मणिपुर और नागालैंड भी चीनी हाथों में चला जाएगा। चीनियों ने भारी ताकत इकट्ठी कर ली है भारत के लिए यूएस-यूके Air defense कार्यक्रम की तैयारी करें। पहले दो मिशन भारत की क्षमताओं को विकसित करने में सहायता करने के लिए थे और तीसरा भारत में संयुक्त अमेरिकी-ब्रिटिश सैन्य अभ्यास था। कैनेडी चाहते थे कि कार्यक्रम की लागत को यूनाइटेड किंगडम और उसके राष्ट्रमंडल भागीदारों के साथ समान रूप से विभाजित किया जाए। आखिरकार, अमेरिकियों ने भारत को सैन्य सहायता प्रदान की, लेकिन भारत-अमेरिका सहयोग SFF की मदद से गुप्त अभियानों में कहीं बेहतर था। ब्रूस रीडेल के अनुसार, 'CIA गुप्त वायु सेना के साथ SFF का समर्थन करने के लिए सहमत हो गया। SFF ने चीनी सैन्य संचार को बाधित करने के लिए परमाणु और मिसाइल परीक्षणों और उपकरणों का पता लगाने के लिए सेंसर लगाने के लिए सीमा पार टोही अभियान चलाया। अर्पी ने कहा, 'CIA के सुदूर पूर्व डिवीजन प्रमुख मुलिक और डेस फिट्जगेराल्ड ने सहमति व्यक्त की कि सीआईए समर्थन के साथ आईबी 5,000-मजबूत गुरिल्ला बल को प्रशिक्षित करना; सीआईए का सुदूर पूर्व डिवीजन तिब्बत के अंदर एक रणनीतिक लंबी दूरी के प्रतिरोध आंदोलन का निर्माण करेगा और मस्टैंग (नेपाल) में तिब्बती स्वतंत्रता सेनानी CIA के नियंत्रण में रहेंगे।' रीडेल का दावा है कि नेहरू परियोजनाओं के उत्साही समर्थक थे। 'उन्होंने 14 नवंबर 1963 को हिमालय में मुख्य SFF प्रशिक्षण शिविर और 2 जनवरी 1964 को गुप्त Air base ओक ट्री में गुप्त कार्रवाई को देखने के लिए दौरा किया। दूसरी परियोजना जिसके लिए भारत ने सहायता प्रदान की, वह थी कोलोराडो के कैंप हेल में तिब्बतियों का प्रशिक्षण और अन्य सीआईए सुविधाओं में तिब्बत भेजे जाने से पहले वहां 135 से अधिक तिब्बतियों को उनकी मातृभूमि में चीनी लाइनों के पीछे काम करने के लिए प्रशिक्षित किया गया था। हालाँकि, भारतीय उनके लिए तिब्बत में पैराशूट से चढ़ने के लिए उत्सुक नहीं थे, क्योंकि यह कार्रवाई बहुत उत्तेजक होगी। इसके बजाय, प्रतिरोध सेनानी इंटेलिजेंस ब्यूरो की मदद से वास्तविक नियंत्रण रेखा के पार घुसपैठ करेंगे। 1964 से 1967 के बीच लड़ाकों की 25 टीमों को तिब्बत भेजा गया। एक दल के सदस्य तिब्बत के भीतर 2 वर्ष तक जीवित रहे लेकिन बाकी दल या तो पकड़ लिए गए, मारे गए या लगभग तुरंत बाद भारत वापस आ गए। रीडेल ने कहा कि CIA ने तीसरी परियोजना में मुख्य भूमिका निभाई, जो मस्टैंग में तिब्बती सेना को पुनर्जीवित करना था। सभी तीन परियोजनाओं के समन्वय के लिए, नवंबर 1963 में नई दिल्ली में IB के भीतर एक विशेष केंद्र स्थापित किया गया था। CIA द्वारा बहुत अधिक उकसाने के बावजूद, मस्टैंग बल ने सीमा पार तिब्बत में लगभग कोई मिशन नहीं किया। इसे सीआईए ने धीरे-धीरे बंद कर दिया और लड़ाकों ने नेपाल के पोखरा में दवा कारखानों और होटलों में नई नौकरी खोजने में मदद की। JFA को भी उनके बारे में पूरी जानकारी दी गई। '1964 में CIA को संयुक्त परियोजनाओं के लिए 1,735,000 डॉलर अधिकृत किया गया था, जो गुप्त कार्यक्रमों के लिए एक महत्वपूर्ण राशि थी। लेकिन SFF गश्ती दल को छोड़कर, परियोजना को बहुत कम सफलता मिली ! हालांकि, संयुक्त IB CIA कार्यक्रम का एक सकारात्मक नतीजा निकला। यहां तक ​​कि जब ARC और SFF जमीन से उतर रहे थे, अमेरिकियों ने तिब्बत और शिनजियांग के ऊपर U2 मिशनों को उड़ाने की अनुमति मांगी और प्रधान मंत्री नेहरू ने इसे मंजूरी दे दी। जबकि ARC की प्राथमिक संपत्ति, C -46 विमान ने पीएलए पर खुफिया जानकारी एकत्र की, जो भारतीय सशस्त्र बलों और इसकी खुफिया एजेंसियों के लिए उपयोगी साबित हुई, शिनजियांग के लोगों ने अमेरिकियों को लोप नूर में चीन के प्रस्तावित परमाणु परीक्षण स्थल पर सर्वोत्तम उपलब्ध जानकारी दी। 1964 की शुरुआत में, एक U-2 टुकड़ी ARC बेस पर चारबटिया में आधारित थी। U-2 विमान ने इमेजरी रिपोर्ट प्राप्त करने के लिए पश्चिमी चीन के ऊपर कई मिशनों में उड़ान भरी, जिससे चीन की परमाणु उपकरण के परीक्षण की योजना की पुष्टि हुई। रिडेल ने कहा, '26 अगस्त 1964 को, एक विशेष राष्ट्रीय खुफिया अनुमान ने राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन (जो जेएफके के उत्तराधिकारी थे) को बताया कि नई ओवरहेड फोटोग्राफी के आधार पर, अब हम आश्वस्त हैं कि पश्चिमी चीन में लोप नूर में पहले संदिग्ध सुविधा है। एक परमाणु परीक्षण स्थल जो लगभग दो महीने में उपयोग के लिए तैयार हो सकता है। '9 निश्चित रूप से, चीन ने 16 अक्टूबर 1964 को लोप नॉर में अपने पहले परमाणु उपकरण का परीक्षण किया। इस अवधि के दौरान, नाथ ने ARC स्थापित के लिए अमेरिकी खुफिया नौकरशाही के साथ अच्छे संबंध स्थापित कर लिए थे, लगभग दो वर्षों तक भारतीय और अमेरिकी खुफिया कर्मियों, तकनीति स्पेसलिस्टों ने ARC को एक बनाने के लिए मिलकर काम किया। भाग 8 "RAW का गठन" "RAW का सिद्धांत है- धर्मो रक्षति रक्षितः, जिसका मतलब है- "जो शख्स धर्म की रक्षा करता है, वह हमेशा सुरक्षित रहता है।" रिसर्च एण्ड एनालिसिस विंग (अनुसंधान और विश्लेषण स्कंध) अथवा रॉ ( Research and Analysis Wing or RAW) भारत की अंतर्राष्ट्रीय गुप्तचर संस्था है, जिसका मुख्यालय दिल्ली में है। इस संस्था का गठन वर्ष 1968 में किया गया था। IB 1962 के भारत-चीन युद्ध व 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में अच्छी तरह कार्य नहीं कर पाई थी, जिसके चलते भारत सरकार को एक ऐसी संस्था की ज़रूरत महसूस हुई, जो स्वतन्त्र और सक्षम तरीके से बाहरी जानकारियाँ जमा कर सके। RAW का मुख्य कार्य जानकारी इकठ्ठा करना, आतंकवाद को रोकना व गुप्त ऑपरेशनों को अंजाम देना है। इसके साथ ही यह विदेशी सरकारों, कंपनियों व इंसानों से मिली जानकारी पर कार्य करती है ताकि भारतीय नीति निर्माताओं को सलाह दी जा सके। रॉ के गठन से पहले विदेशी जानकारी को जमा करने का काम अन्वेषण ब्यूरो (IB) करती थी, जिसे ब्रिटिशों ने बनाया था। 1933 में विश्व में राजनैतिक अनिश्चितता को देखते हुए, जिसके चलते द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत हुई, अन्वेषण ब्यूरो की ज़िम्मेदारियाँ बढ़ा दी गयीं ताकि भारत के सीमावर्ती इलाकों से जानकारी इकठ्ठा की जा सके। 1947 में स्वतंत्रता के बाद संजीवी पिल्लई ने आईबी के प्रथम भारतीय निदेशक के रूप में भूमिका संभाली। ब्रिटिशों के जाने के बाद मनुष्य बल में आई गिरावट के कारण पिल्लई ने ब्यूरो को MI5 का अनुसरण करते हुए चलाने की कोशिश की। 1949 में पिल्लई ने एक छोटे विदेशी जानकारियों के ऑपरेशन को शुरू किया, परन्तु 1962 के भारत-चीन युद्ध में अक्षमता सामने आई। विदेशी जानकारी की भारत-चीन युद्ध के दौरान नाकामयाबी के कारण प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने एक विदेशी गुप्तचर संस्था के गठन का आदेश दिया। 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद भारतीय थल सेना के सचिव जनरल जयंतानाथ चौधरी ने और अधिक जानकारी इकठ्ठा करने की ज़रूरत बताई। 1962 के अंत में एक अलग स्वतन्त्र विदेशी गुप्तचर संस्था को बनाने की योजना आकार लेने लगी। 1968 में इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद यह निश्चय किया गया कि एक पूर्णत: अलग सुरक्षा संस्था की आवश्यकता है। *रामेश्वर नाथ काव* जो उस वक्त अन्वेषण ब्यूरो (IB) के उपनिदेशक थे, ने एक नई संस्था का ढांचा पेश किया। काओ को भारत की पहली अंतर्राष्ट्रीय गुप्तचर संस्था 'रिसर्च और एनालिसिस विंग'(RAW) का सचिव बनाया गया। "सर्विसेस संस्थाएँ" रॉ में सर्विसेस जैसी संस्थाएं 1970 व 1990 में जुड़ गई। 1990 में स्पेशल फ्रंटियर फ़ोर्स रॉ की सशक्त बल बन गई और गोपनीय सैन्य अभियानों में सहकार्य प्रदान करने लगे। 2004 में भारतीय सरकार नैशनल टेक्नीकल फैसिलिटीज़ ऑर्गनैजेशन (राष्ट्रिय तकनिकी सहकार्य संस्था) का गठन किया गया, जिसे माना जाता है कि वह रॉ का ही एक विभाग है, परन्तु अब तक इसकी विचारधारा गुप्त रही है। अब तक इसका कार्य गुप्त रखा गया है; परन्तु यह माना जाता है की इसका कार्य जानकारी व चित्रों पर कई तकनीकों का उपयोग करके ध्यान रखना है। "रॉ से जुड़े प्रमुख तथ्य" खुफिया एजेंसियां किसी भी देश की सुरक्षा में अपना एक अलग महत्त्व रखती हैं। भारतीय खुफिया एजेंसी 'राॅ' (RAW) है, जिससे सम्बंधित कुछ तथ्य निम्न प्रकार हैं ! रॉ का कानूनी दर्जा अभी भी अस्पष्ट है। आखिर क्यों रॉ एक एजेंसी नहीं बल्कि विंग है? इसका गठन 1962 के भारत-चीन युद्ध और 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद तब किया गया, जब इंदिरा गांधी की सरकार ने भारत की सुरक्षा की ज़रूरत को महसूस किया। राॅ पर आर.टी.आई. (RTI) नहीं डाल सकते, क्योंकि यह देश की सुरक्षा का मामला है। इस गुप्तचर संस्था में शामिल होने के लिए माता-पिता का भारतीय होना अनिवार्य है। रॉ अपनी रिपोर्ट सीधे देश के प्रधानमंत्री को भेजती है। इसके डायरेक्टर का चुनाव, सेक्रेटरी (रिसर्च) द्वारा होता है। ऐसे प्रत्याशी जिनका चुनाव रक्षा बलों से हुआ हो, उन्हें इसमें शामिल होने से पहले अपने मूल विभाग से इस्तीफा देना आवश्यक है। मिशन पूरा होने के बाद, अधिकारी को अनुमति होती है कि वह अपने मूल विभाग में वापस शामिल हो सकते है। सिक्किम को भारत में शामिल करने का श्रेय भी बहुत हद तक रॉ को जाता है। रॉ ने वहां के नागरिकों को भारत समर्थक (प्रो इंडियन) बनाने में अहम भूमिका निभाई थी। यदि कोई रॉ का कर्मचारी है तो उसे यह बात पूर्णत: गुप्त रखनी होगी कि वह रॉ के लिए कार्य करता है। रॉ के लिए काम करना एक डेस्क में बैठकर काम करने जैसा नहीं है। आप किसी मिशन पर हों, तो पूरी सम्भावना है कि आपके परिवार को भी नहीं पता होगा कि आप कहाँ हैं। के अवसर को बढ़ा देता है। चीनी, अफ़ग़ानी या किसी दूसरी भाषा का ज्ञान आपको दूसरो से ऊपर खड़ा करता है। रॉ में ड्यूटी पर तैनात अधिकारी को बंदूक नहीं मिलती। बचाव के लिए ये अपनी तेज बुद्धि का इस्तेमाल करते हैं। रॉ का गठन अमेरिका के सीआईए की तर्ज पर ही किया गया है। इसके ऑफिशर्स को अमेरिका, यूके और इजरायल में प्रशिक्षण दिया जाता है। रॉ के प्रशिक्षुओं को आत्मरक्षा के कठिन प्रशिक्षण से गुजरना पड़ता है। खासतौर से क्रव मगा और जासूसी डिवाइस के इस्तेमाल के मामले में। फ़ाइनैंशियल, इकोनॉमिक अनैलिसिसि, स्पेस टेक्नोलॉजी, इंफॉर्मेशन सिक्यॉरिटी, एनर्जी सिक्यॉरिटी और साइंटिफिक नॉलेज जैसी जानकारी प्रशिक्षुओं को दी जाती हैं।[3] प्रशिक्षणार्थि को किसी एक फॉरेन लैंग्वेज में निपुण किया जाता है और उसे जियो स्ट्रैटिजिक अनैलिसिस से भी परिचित कराया जाता है। सीआईए, केजीबी, आईएसआई, मोसाद, एमआई6 जैसी घातक खुफिया एजेंसियों की केस स्टडीज भी पढ़ाई जाती है। शुरुआत में रॉ में नियुक्ति आईबी, इंडियन पुलिस सर्विस, मिलिट्री या रेवेन्यू डिपार्टमेंट से होती है। हालांकि, खुफिया एजेंसी ने यूनिवर्सिटीज से स्टूडेंट्स को लेने की प्रक्रिया शुरू नहीं की है। बांग्लादेश का उदय- 1970 के दशक के शुरुआती वर्षों में जब बांग्लादेश की नींव डालने की कोशिश जारी थी, उस समय रॉ ने सूचनाओं के आदान-प्रदान में बेहतरीन भूमिका निभाई। मुक्ति वाहिनी की रॉ ने भरपूर मदद की, जिसके परिणामस्वरूप पूर्वी पाकिस्तान को नया नाम ‘बांग्लादेश’ मिला, हालांकि पहले राष्ट्र अध्यक्ष मुजीबुर रहमान ने रॉ के इनपुट की अवहेलना की, जिसके कारण वे इस्लामी कट्टरपंथियों का शिकार बन गए। 1984 में रॉ ने पाकिस्तान के ऑपरेशन अबाबील के बारे में जानकारी दी, जिसमें दुश्मन देश सियाचिन की सल्तोरो चोटी पर क़ब्ज़ा करने के मिशन में जुटा था। इसी जानकारी के आधार पर भारतीय सेना ने 'ऑपरेशन मेघदूत' शुरू किया और पाकिस्तानी सेना को क्षेत्र में प्रवेश करने से पहले ही बुरी तरह खदेड़ दिया गया। भाग 9 "सिक्किम विलय" बांग्लादेश ऑपरेशन की तरह RAW एक बार फिर हरकत में आता है ! बैनर्जी ने दिल्ली में रामेश्वर नाथ काव से मुलाकात की और उन्होंने सिक्किम के लिए एक योजना तैयार की। इसका उद्देश्य चोग्याल को भारत के प्रस्ताव (स्थायी संघ) या भारत के साथ सिक्किम के पूर्ण विलय के लिए काम करने के लिए सहमत होना था। बनर्जी 10 दिनों में अजीत सिंह स्याली के साथ दिल्ली लौट आए, जो गंगटोक में ओएसडी (पी) के रूप में तैनात थे। स्याली को मुख्य रूप से तिब्बत पर सीमा पार खुफिया जानकारी एकत्र करने के लिए एक RAW अधिकारी के रूप में गंगटोक को सौंपा गया था। 1968 में आईबी के विभाजन और रॉ के गठन के बाद, घरेलू और काउंटर-इंटेलिजेंस कर्तव्यों को आईबी के संचालकों पर छोड़ दिया गया था। बनर्जी, जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, कलकत्ता में रॉ और आईबी के क्षेत्रीय कार्यालयों पर दोहरा प्रभार जारी रखा। बनर्जी ने दिल्ली लौटने पर काव से कहा कि सिक्किम को भारत में विलय करने का अंतिम लक्ष्य हासिल किया जा सकता है और जिस योजना पर उन्होंने काम किया था उसे एक समय सीमा की आवश्यकता थी। काओ इस मामले को पहले हक्सर और फिर प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के पास ले गए, जिन्होंने अभियान शुरू करने के लिए तत्काल मंजूरी दे दी। उन्होंने केवल यही चेतावनी दी थी कि सिक्किम के विलय का अंतिम उद्देश्य बताए बिना विदेश सचिव केवल सिंह को साथ में ले लिया जाए। सिंह को बताया जाना था कि रॉ काजी और अन्य युवा नेताओं के नेतृत्व वाले राजनीतिक दलों द्वारा शुरू किए गए आंदोलनों के माध्यम से चोग्याल को कमजोर करने की दिशा में काम करेगा। बनर्जी और सयाली, जो किसी भी तरह सिक्किम में राजनीतिक नेताओं के संपर्क में थे, अब उन्हें आंदोलन करने के लिए प्रोत्साहित करने और लोगों को और अधिक अधिकार देने की मंजूरी थी। बनर्जी ने अपने व्यापक संपर्कों के साथ और सयाली ने अपनी परिचितता के साथ सिक्किम की स्थिति के पर, 1973 की शुरुआत में ऑपरेशन शुरू किया। ऑपरेशन शुरू करने का समय बेहतर नहीं हो सकता था। 1972 के दौरान और 1973 की शुरुआत में, विभिन्न स्थानीय कारकों के कारण सिक्किम में अशांति बढ़ गई थी। इनमें भारी आय असमानताएं, नेपाली बहुसंख्यक के खिलाफ भेदभाव और भूटिया-लेप्चा की मनमानी शामिल हैं, जो चोग्याल से निकटता से अपनी ताकत खींच रहे हैं। जनवरी 1973 के चुनावों में धांधली करने के लिए महल या उसके समर्थन करने वाले तत्वों के प्रयास ने समस्याओं को और बढ़ा दिया। यह शायद कहावत आखिरी तिनका था। इस प्रकार स्थिति सामंती व्यवस्था, विशेषकर चोग्याल के खिलाफ विद्रोह के लिए तैयार थी। काजी अपनी लोकप्रियता और समुदायों में स्वीकार्यता के कारण आंदोलन के स्वाभाविक नेता थे। काजी के नेतृत्व वाली एसएनसी ने के.सी. फरवरी 1973 में जनता कांग्रेस के प्रधान ने चोग्याल के खिलाफ एक संयुक्त मोर्चा बनाया। नए मोर्चे को संयुक्त कार्रवाई समिति (JAC) कहा गया। इसी पृष्ठभूमि में बनर्जी और सयाली ने अपना अभियान शुरू किया। 'जनमत' और 'ट्वाइलाइट' कहे जाने वाले दो ऑपरेशन, कुछ आंतरिक संचार के अनुसार, दो साल से अधिक समय तक चले। वे शायद आंदोलन के नेताओं के.सी. प्रधान और काजी क्रमशः। फरवरी 1973 की शुरुआत में बनर्जी की टीम ने नेताओं से मुलाकात की। मार्च 1973 की शुरुआत में बनर्जी से आरएनके को एक अपडेट में कहा गया कि 1949 के बाद पहली बार सिक्किम जेएसी की गतिविधियों के कारण तनाव का केंद्र बन गया था। सिक्किम के विभिन्न हिस्सों में और महल के सामने बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए, और सिक्किम राष्ट्रीय कांग्रेस के निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा परिषद का बहिष्कार किया गया ... 'विश्वसनीय सूत्रों के अनुसार, चोग्याल शुरू किए गए आंदोलन से बहुत परेशान हो गए हैं। संयुक्त कार्रवाई समिति द्वारा,' बनर्जी ने लिखा, बनर्जी ने काओ को सचेत किया कि कलकत्ता में अमेरिकी वाणिज्य दूतावास के राजनीतिक अधिकारी पीटर बर्ले-जो बनर्जी के आकलन के अनुसार वास्तव में सीआईए के एक ऑपरेटिव थे- चोग्याल के राजकीय अतिथि के रूप में सिक्किम आए थे। उन्हें आंदोलनकारियों द्वारा पैदा की जा रही कठिनाइयों का उल्लेख किया और संकेत दिया कि उन्हें दरबार विरोधी तत्वों की गतिविधियों को रोकने के लिए भारत सरकार की मदद लेनी पड़ सकती है। एक अन्य इनपुट जो काव को प्राप्त हुआ वह यह था कि चोग्याल एसएनसी नेता के साथ कुछ विशेष, आमने-सामने की बैठकों के बाद उनके साथ बातचीत करके काजी को मानने की करने की कोशिश कर रहे थे। हालांकि, बनर्जी को व्यक्तिगत रूप से भरोसा था कि काजी चोग्याल की मिन्नतों के आगे नहीं झुकेंगे क्योंकि इसका मतलब होगा कि लोगों के बीच जीवन भर का समर्थन खत्म हो जाएगा। बनर्जी ने फिर भी काजी की राजनीतिक योजनाओं का पता लगाने के लिए 10 मार्च 1973 के आसपास सिलीगुड़ी में काजी से मिलने के लिए अपने एक प्रतिनिधि की व्यवस्था की थी। दिल्ली में पहिए तेजी से घूम रहे थे। चोग्याल के चारों ओर सुरक्षा कवच हटाने और लोकतंत्र समर्थक दलों का समर्थन करने का निर्णय लेने के बाद, पीएमओ, विदेश मंत्रालय और रॉ सभी एक योजना की दिशा में काम कर रहे थे। "1974 में चुनाव हुए" काओ की इच्छानुसार क़ाज़ी की सिक्किम नेशनल कांग्रेस को भारी बहुमत मिला. चोग्याल को अंदाज़ा हो चुका था कि अब राजभवन भी उनके हिस्से में नहीं आना है. इसलिए उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय पटल पर ये मुद्दा उठाना शुरू किया. इसे देखते हुए रॉ ने सिक्किम ऑपरेशन का आख़िरी हिस्सा शुरू किया. जिसके तहत ज़रूरी था कि बिना खून-ख़राबे के राजभवन भी नियंत्रण में आ जाए. इस काम की शुरुआत विधान सभा से होनी थी. जहां क़ाज़ी और उनकी पार्टी ने 'द गवर्नमेंट ऑफ़ सिक्किम ऐक्ट 1974' सदन में पेश किया. ऐक्ट पारित हुआ और सिक्किम भारत का एशोसिएट स्टेट बन गया. पूर्ण राज्य बनाने के लिए रेफेरेंडम ज़रूरी था. उससे पहले एक आख़िरी कदम ज़रूरी था. यानी राजभवन को अपने नियंत्रण में लेना. जहां भारी मात्रा में सिक्किम गार्ड तैनात थे. और ये सब राजा के प्रति अपनी निष्ठा रखते थे. बिना विधान सभा की अनुमति के सेना सीधे राजभवन पर कब्जा नहीं कर सकती थी. रॉ के प्लान के तहत सबसे पहले गंगटोक में प्रदर्शन शुरू हुए. और मांग उठी कि राजभवन को राज्य के अधीन किया जाए. और सिक्किम गार्ड्स को वहां से हटाया जाए. इसके बाद चोग्याल को लेकर योजना तैयार हुई. जिसके अनुसार चोग्याल को राजभवन से हटाकर इंडिया हाउस में ले ज़ाया जाएगा. और बाद में उन्हें गंगटोक के बाहर एक गेस्ट हाउस में ट्रांसफ़र कर दिया जाएगा. ये सब तय होने के बाद सिक्किम नेशनल कांग्रेस के लीडर क़ाज़ी ने भारतीय अधिकारियों को दो पत्र लिखे. जिनमें उन्होंने सेना के हस्तक्षेप की मांग की. इसके बाद 8 अप्रैल के रोज़ ब्रिगेडियर दीपेन्द्र सिंह के नेतृत्व में सेना की तीन बटालियन राजभवन पहुंची. सिक्किम गार्ड्स ने थोड़ा रेजिस्टेंस दिखाया. लेकिन 20 मिनट के अंदर राजभवन को कब्जे में ले लिया गया. इसके बाद पूरे सिक्किम में विधान सभा की देख रेख में एक रेफ़्रेंडम कराया गया. 97 % जनता ने भारत में विलय के पक्ष में मत दिया. और 16 मई 1975 को सिक्किम आधिकारिक रूप से भारत का 22 राज्य बन गया. भाग 10 "बांग्लादेश का जन्म" रामेश्वर नाथ काव और बनर्जी के बीच पत्रों के आदान-प्रदान के एक अवलोकन से पता चलता है कि 'नाथ बाबू' जनरल मानेकशॉ के बारे में खुश नहीं थे, जो भारतीय सेना की पूर्वी कमान से इनपुट प्राप्त करने के बाद कलकत्ता में रॉ स्टेशन को बांग्लादेश सेना के लिए दैनिक युद्ध बुलेटिन तैयार करने और भेजने के लिए चाहते थे। बनर्जी ने जनरल मानेकशॉ से कहा कि उनकी जानकारी में ऐसा कोई फैसला नहीं लिया गया है। ' 'बनर्जी ने रामेश्वर काव से शिकायत की और अनुरोध किया कि वह इस मामले को सीओएएस के साथ उठाएं। जनरल मानेकशॉ चाहते थे कि बनर्जी पूर्वी कमान के साथ दिल्ली को भेजे गए सभी खुफिया इनपुट को साझा करें, जिसे बनर्जी ने अस्वीकार कर दिया। काओ ने अपने जवाब में बनर्जी से कहा कि वह इस मामले पर जनरल मानेकशॉ से चर्चा नहीं करेंगे। इसके बजाय, उन्होंने कलकत्ता स्टेशन प्रमुख को रॉ द्वारा जारी पाकिस्तान पर दैनिक खुफिया ब्रीफ के जनरल अरोरा के प्रासंगिक अंशों को पारित करने का निर्देश दिया। काओ ने बनर्जी को आगाह करते हुए कहा, 'पश्चिमी पाकिस्तान के बारे में इन रिपोर्टों में निहित कोई भी जानकारी उन्हें [जगजीत सिंह अरोड़ा] नहीं दी जानी चाहिए। हालांकि, कलकत्ता स्टेशन प्रमुख आरएनके के जवाब से खुश नहीं थे। बनर्जी ने काओ को फिर से स्पष्ट निर्देश देने के लिए कहा कि क्या उन्हें इस उद्देश्य के लिए पूर्वी कमान के कूरियर के रूप में कार्य करना जारी रखना चाहिए क्योंकि 'मुझे व्यक्तिगत रूप से इन बुलेटिनों को ओलिवर को सौंपना होगा क्योंकि रॉ बीडी सरकार के साथ आधिकारिक पत्राचार में प्रवेश नहीं कर सकता है।' काओ ने जवाब दिया। तुरंत यह कहते हुए कि मानेकशॉ के साथ उनकी बात हुई, जो अभ्यास का पालन करने के लिए उत्सुक लग रहे थे ,इसलिए काव ने बनर्जी को निर्देश दिया कि जगजीत सिंह से प्राप्त युद्ध बुलेटिन रॉ के माध्यम से बीडी सरकार को भेजें। 'शायद आपके लिए व्यक्तिगत रूप से ओलिवर जाने के लिए उन्हें वितरित करने के लिए यह जरूरी नहीं है। काओ ने लिखा, "यह नियमित काम शायद भट्टाचार्य (शायद बनर्जी के डिप्टी) या यहां तक ​​कि एक एसएफओ या एफओ द्वारा किया जा सकता है, जब आप बांग्ला देश के नेताओं से मिलने की संभावना नहीं रखते हैं।" फिर उन्होंने बनर्जी की ओर इशारा किया कि ऐसा करने के फायदे हैं। सबसे पहले, परिचालन मामलों में भी, रॉ को बांग्लादेश के नेताओं के साथ एक स्थिति और समझ बनी रहेगी, और दूसरी बात, संगठन जगजीत सिंह द्वारा भेजे गए युद्ध बुलेटिन की सामग्री को देखेगा। यह आदान-प्रदान शिक्षाप्रद है। एक नेता के रूप में, आरएनके बड़ी तस्वीर देख रहा था और छोटे मुद्दों पर चुटकी नहीं लेना चाहता था। साथ ही, वह बनर्जी को कारण देखने और संभावित टकराव की स्थिति में सकारात्मकता की तलाश करने में कामयाब रहे। रामेश्वर नाथ काव और मानेकशॉ ने पूरे संकट के दौरान और बाद में एक उत्कृष्ट संबंध बनाए रखा। एक एक्सचेंज में, मानेकशॉ ने आरएनके से यह जांचने के लिए कहा कि पूर्वी पाकिस्तान के अंदर स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा किए गए कुछ तोड़फोड़ अभियानों के बारे में पूर्वी कमान द्वारा किए गए दावे सही थे या नहीं। काओ ने तथ्यात्मक स्थिति बताते हुए विस्तार से उत्तर दिया। लेकिन RAW की भूमिका दावों की पुष्टि या खंडन करने तक सीमित नहीं थी। बनर्जी, जिन्हें बांग्लादेश के नेताओं के साथ घनिष्ठ संपर्क रखने के लिए सौंपा गया था, ने जुलाई 1971 में काओ को एक विस्तृत रिपोर्ट भेजी, जिसमें अनंतिम सरकार के भीतर विभाजन, भय और एक-एकता को उजागर किया गया था। बनर्जी को पता चला कि जिस तरह से ताजुद्दीन ने खुद को प्रधान मंत्री नियुक्त किया था, उससे अधिकांश अस्थायी सरकार नाखुश थी। ताजुद्दीन पर किसी ने विश्वास नहीं किया जब उन्होंने दावा किया कि भारत सरकार उन्हें प्रधान मंत्री बनाना चाहती है। अन्यथा, उन्होंने (दिल्ली) संकेत दिया होता, उन्होंने अस्थायी सरकार में सहयोगियों से कहा। किसी ने उस पर विश्वास नहीं किया और तसलीम करना चाहता था। गुस्से के बावजूद, कार्यवाहक राष्ट्रपति नज़रूल इस्लाम ने अन्य सदस्यों को यह कहने के लिए मजबूर कर दिया ,उनके मतभेदों को दरकिनार कर दिया क्योंकि बांग्लादेश के लिए लड़ाई उनके विचार में महत्वपूर्ण थी। 1970 में चुनावों के तुरंत बाद ताजुद्दीन की अवामी लीग संसदीय दल में कोई स्थिति नहीं थी। ताजुद्दीन और अमीरुल इस्लाम, बनर्जी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा, वे पहले व्यक्ति थे जो रक्तपात के तुरंत बाद भारतीय सीमा पर पहुंचे और भारतीय नेतृत्व से संपर्क करने के लिए दिल्ली पहुंचे ताकि ताजुद्दीन खुद को प्रधान मंत्री के रूप में नियुक्त कर सकें। RAW ने प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी और 1971 के संकट को संभालने वाले शीर्ष नेतृत्व को प्रदान किए गए समन्वय, पर्यवेक्षण, संपर्क और सलाह के अलावा, काओ और शंकरन नायर अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी को नहीं भूले थे - एक महत्वपूर्ण समय पर रणनीतिक, कार्रवाई योग्य खुफिया जानकारी प्रदान करना। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, नायर ने पाकिस्तानी सेना में एक उच्च श्रेणी के संपर्क की खेती की थी। नवंबर 1971 के अंतिम सप्ताह में, जनरल याह्या खान के कार्यालय में उनके एक मित्र ने नायर को सूचित किया कि पाकिस्तानी वायु सेना (PAF) 1 दिसंबर की शाम को पश्चिमी सेक्टर में भारतीय वायु सेना (आईएएफ) के आगे के हवाई अड्डों पर एक पूर्व-खाली हमले की योजना बना रही थी। नायर ने वायुसेना को तुरंत सतर्क कर दिया, और काओ ने इंदिरा गांधी को इसकी सूचना दी। . IAF को हाई अलर्ट पर रखा गया था और नियोजित पूर्व-खाली हमले को विफल करने के लिए आवश्यक सावधानी बरती। चेतावनी के बावजूद 1 व 2 दिसंबर को कुछ नहीं हुआ। वायु सेना मुख्यालय ने नायर को बताया कि अब उनके लिए पायलटों को हाई अलर्ट की स्थिति में रखना असंभव है। हालांकि, नायर, जो अपने स्रोत के बारे में बहुत आश्वस्त थे, ने वायु सेना से अगले 24 घंटों के लिए अलर्ट जारी रखने और उसके बाद ही पायलटों को खड़ा करने का अनुरोध किया, अगर कुछ नहीं हुआ। नायर हैरान था। सामान्य तौर पर, उनका यह स्रोत बहुत विश्वसनीय और सटीक था। सौभाग्य से, वायु मुख्यालय हाई अलर्ट जारी रखने के लिए सहमत हो गया। निश्चित रूप से, 3 दिसंबर की शाम को, PAF ने IAF के अग्रिम ठिकानों पर अपनी पूर्व-खाली हड़ताल शुरू की, जो पूरी तरह से विफल हो गई क्योंकि IAF के पास एक उन्नत चेतावनी थी। बाद में, नायर ने जाँच की कि क्या गलत हुआ। ऐसा हुआ कि स्रोत ने अपने कोडित संदेश में सही तारीख- 3 दिसंबर- भेजी थी लेकिन रॉ के डिकोडर्स ने गड़बड़ कर दी। सौभाग्य से, नायर और भारत के लिए, यह एक ऐसी गलती थी जो महंगी साबित नहीं हुई। एक 13-दिवसीय युद्ध, भारतीय सेना द्वारा बंगाली मुक्ति सेनानियों की मदद से शानदार मुकदमा चलाया गया, जिसने पूर्वी पाकिस्तान को मुक्त कर दिया और एक नए राष्ट्र का जन्म हुआ। मुजीब को याह्या ने मुक्त कर दिया। जल्द ही, उन्होंने बांग्लादेश की बागडोर संभाली । भाग 11 "पाकिस्तान से युद्ध" आजाद भारत जब विकास के पथ पर चलने लगा तो उसके सामने चुनौतियां बढ़ती चली गईं। स्वतंत्रता के 20-25 साल बाद एक तरफ आंतरिक परेशानियां बढ़ रही थीं तो वहीं दूसरी तरफ पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान और चीन की साजिशें चिंताओं को और बढ़ा रही थीं। इसलिए RAW, अमेरिका की सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी CIA और ब्रिटेन की MI6 की तर्ज पर बनी, अपनी प्रतिभा और ज्ञान के कारण इसकी जिम्मेदारी रामेश्वर नाथ को दी गई थी, काव को इतनी बड़ी जिम्मेदारी मिलने के पीछे सवालों को खंगाला तो पता चला कि मात्र 8 साल की नौकरी में राव की गिनती दुनिया के पांच बेहतरीन जासूसों में होने लगी थी। फ्रांस की बाहरी खुफिया एजेंसी SDECE के प्रमुख काउंट एलेक्जांड्रे ने कहा था कि अगर 70 के दशक के 5 टॉप खुफिया प्रमुखों के नाम का जिक्र होगा तो रामेश्वर नाथ काव उसमें एक होंगे। बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार काव का खुफिया नेटवर्क इतना जबरदस्त होता था कि उनको यह तक पता होता था कि पाकिस्तान किस दिन हमला करेगा। काव को करीबी से जानने वाले आंनद वर्मा ने बीबीसी से बात करते हुए बताया कि पाकिस्तान से एक मैसेज कोड के माध्यम से आया। जिसे डिसाइफर किया गया तो पता चला कि पाकिस्तान हवाई हमले की साजिश रच रहा है। मिली सूचना में हमले की तय तारीख से दो दिन पहले की डेट दी गई थी। काव की सलाह पर वायुसेना को हाई अलर्ट कर दिया गया। काव को अपने खुफिया सूत्रों से यह जानकारी मिली थी की हमारा पड़ोसी देश भारत के खिलाफ कुछ साजिश कर रहा है, इसके बाद काव ने अपनी पूरी क्षमता इस सूचना पर लगा दी, भारत सरकार के मंत्रियों, रक्षा मंत्रालय और खूफिया तंत्र के सभी प्रमुख अधिकारियों को इसकी सूचना दे गई तथा इस विषय पर गहन चर्चा,विचार विमर्श किया गया, क्यों की यह देश और देश के नागरिकों की सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा था इसलिए सेनाओं ने भी इसको गंभीरता से लिया, सभी सेनाओं को अलर्ट कर दिया गया, खासकर भारतीय वायु सेना, भारतीय वायुसेना के सभी एयरबेस को हाई अलर्ट पर रखा गया, भारतीय वायुसेना प्रमुख ने बहुत ही तत्परता से कार्य किया और सभी वायुसैनिक, अधिकारियों को अलर्ट कर, एयरबेस पर तैनात कर दिया, ऐसे मामलों में देश का खूफिया तंत्र बहुत गंभीरता से कार्य करता है और किसी भी इनपुट पर तुरंत एक्शन लेकर उसको डिकोड करने की कोशिश करता है, RAW को मिले इनपुट पर सबको भरोसा था, भारतीय सेना भी पूरी तत्परता से युद्ध के लिए अलर्ट हो गई थी, सभी अधिकारियों की छुट्टी कैंसल कर दी गई तथा सभी को वापिस अपनी बटालियन में जाने का आदेश दे दिया गया था ! रामेश्वर नाथ काव को मिले इनपुट या खुफिया जानकारी के मुताबिक पाकिस्तानी सेना की तरफ से 1 दिसंबर को हमला होना था, परंतु दो दिन बीतने के बाद भी पाकिस्तान की ओर से कुछ भी हलचल नहीं हुई, कोई भी हमला नही हुआ, दो दिनों तक जब कोई एक्टिविटी नही हुई तो सेना को ऐसा लगा कि RAW को मिली जानकारी या इनपुट झूटा है , सेना और प्रशासन को लगा अब कोई ही हमला नही होगा, जब दो दिनों तक कोई एक्टिविटी नहीं हुई तो वायुसेना ने रामेश्वर नाथ काव से कहा कि इतने दिनों तक एयरफोर्स को हाई अलर्ट नहीं रख सकते हैं, उन्होंने कहा सभी एयरबेस पर वायुसेना को ऐसे कई दिनों तक हाई अलर्ट पर नही रखा जा सकता। रामेश्वर नाथ काव भी थोड़े असमंजस में पड़ गए और बहुत कुछ सोच विचार करने और अपने सहकर्मियों RAW संगठन के अधिकारियों विचार विमर्श करने के बाद वह इस नतीजे पर पहुंचे की हम सेना से हाई अलर्ट पर रहने के लिऐ एक अतिरिक्त दिन मागेंगे और यही इसके बाद भी हमला या कोई भी हलचल नहीं होती है तो समझेंगे ये इनपुट गलत है, इसके बाद रामेश्वर नाथ काव ने भारतीय वायुसेना के प्रमुख से मुलाक़ात की और उनसे वायु सेना और सैनिकों को हाई अलर्ट पर रहने के लिए एक अतिरिक्त दिन मांगा, जिसको वायुसेना ने स्वीकार कर लिया और सभी एयरबेस पर वायुसेना को एक अतिरिक्त दिन हाई अलर्ट पर रहने का आदेश दिया गया, इसका परिणाम यह हुआ के 3 दिसंबर को पाकिस्तान की तरफ से हमला हुआ, जैसा काव का इनपुट (खूफिया जानकारी) थी बिल्कुल वैसा ही हुआ, पाकिस्तान ने अपनी गिरी हुई मानसिकता का प्रदर्शन किया और हमारे देश पर हमला कर दिया, मगर उसको बिल्कुल भी भनक नही थी के भारत को उसकी इस हरकत का पता पहले ही लग चुका है , पाकिस्तान को हमारे जासूसी तंत्र RAW और रामेश्वर नाथ काव की काबिलियत का अंजादा नही था, भारतीय सेना युद्ध के लिऐ पूरी तरह तैयार थी, हमारे सभी सैन्य बल अलर्ट थे, हमले में हमारी सेना ने पाकिस्तान की सेना पर जोरदार प्रहार किया, थल सेना और वायु सेना ने हमले का मुंहतोड़ जवाब दिया, पाकिस्तान को अंदाज़ा भी नही था के उसको ऐसा कड़ा जवाब मिलेगा, हमारी वायुसेना ने अपने पूरे पराक्रम और ताक़त के साथ युद्ध किया, हमारे वीर सैनिकों ने देश की रक्षा के लिऐ अपने प्राणों का बलिदान दिया,देश की सुरक्षा में पूरी भारतीय सेना ने अपने शौर्य और पराक्रम से पाकिस्तान को बुरी तरह से खदेड़ दिया गया। इस युद्ध में पाकिस्तान का बहुत नुकसान हुआ,उसके कई सैनिक मारे गए, कई लड़ाकू विमान को मार गिराया गया, कई युद्धपोत तबाह हो गए, पाकिस्तान को इस युद्ध से लाखों करोड़ों के जान माला का नुकसान हुआ और पूरे विश्व में पाकिस्तान की किरकिरी हुई, पाकिस्तान के सैनिक और अधिकारी मारे गए, भारत की सेना ने फिर जीत का परचम लहराया, यह हमारी खुफिया एजेंसी RAW, रामेश्वर नाथ काव की यह जीत थी ! नाथ ने एक बार फिर खुद को साबित कर दिया था, उन्होंने बता दिया था के वह विश्व के महान जासूस हैं,पूरे विश्व में उनकी महानता और कबलियत के चर्चे होने लगे, हमारे दिया को भी काव पर गर्व महसूस करने का एक ओर कारण मिला, इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रामेश्वर नाथ की रही, उन्ही के कारण देश ने इतनी आसानी से पकिस्तान को युद्ध में धूल चाट दी और भारत को एक महान विजय प्राप्त हुई ! भाग 12 "रामेश्वर नाथ काव पर जांच और उसके बाद" सबके जीवन में एक ऐसा समय आता है जब उसको अपनी वफादारी साबित करनी पड़ती है, मगर रामेश्वर नाथ काव ने कभी सपने में भी नही सोचा होगा के इतने सालों तक देश के सेवा करने और देश का नाम रोशन करने के बाद उनको देश के प्रति अपनी ईमानदारी साबित करनी पड़ेगी या उन पर देश से गद्दारी करने का इल्जाम लगेगा ! रामेश्वर नाथ राव नहरु परिवार के बहुत करीबी थे, वह अपने कार्यकाल में कई सालों तक प्रधानमंत्री जवाहरलाल नहरु के खास सलाहकार रहे, वह हर समय नहरु जी के साथ ही रहते थे तथा उनके साथ हर यात्रा पर जाते थे, नहरु की देश में हों या विदेश में रामेश्वर नाथ हमेशा उनके साथ होते थे, इस बात से अंदाज़ा लगाया जा सकता है की नहरु जी और रामेश्वर नाथ कितने करीबी थे और नहरू परिवार उन पर कितना भरोसा करता था ! नहरु जी की मृत्यु के पश्चात् नाथ इंदिरा गांधी के खास सलाहकार बन गए, कहा जाता है की इंदिरा गांधी सभी राजनीतिक फैसला लेने से पहले नाथ से सलाह लेती थीं ! रामेश्वर नाथ,नहरु जी की तरह ही हमेशा इंदिरा गांधी के साथ रहते थे, देश विदेश में उनके खास सलाहकार की भूमिका निभाते थे, आप ये भी कह सकते हैं की भारत देश की राजनीति और योजनाओं में रामेश्वर नाथ काव का भी बहुत योगदान रहता था ! इंदिरा गांधी की सरकार जाने के बाद एक समय ऐसा भी आया कि जब काव को संदिग्ध निगाहों से देखा जाने लगा, विपक्षी नेताओं और अफसरों ने रामेश्वर नाथ काव पर इल्ज़ाम लगाया, उनको देश द्रोही कहा, उन्हें अपराधी जैसा महसूस करवाया , काव इस घटना से बहुत आहत हुए। 1977 में मोरारजी देसाई की नयी सरकार के गठन के बाद , मोरारजी देसाई और उनके मंत्रियों को शंका हुई के इमरजेंसी के दौरान लागू हुई नीतियों के पीछे काव का दिमाग था। उन्होने इसकी जांच के लिए चौधरी चरण सिंह के दामाद एसपी सिंह की अगुवाई में एक कमेटी का गठन किया गया, जांच कमेटी का काम था रामेश्वर नाथ काव के बारे में, उनके कार्य और नीतियों के बारे में जांच करना, कमेटी द्वारा काव से पूछताछ की गई, उनसे जुड़े हुए सभी मुद्दों और योजनाओं की जांच की गई, जवाहारलाल नहरु और इंदिरा गांधी के समय में किए गए कार्यों की जांच हुई , रामेश्वर नाथ काव से जुड़े हुए सभी अहम मुद्दों और उनके जुड़े हुए कुछ खास लोगों से पूछताछ भी की गई, इस जांच कमेटी ने करीब 6 महीनों तक उच्चस्तरीय जांच पड़ताल करने के बाद अपनी रिपोर्ट पेश की, जिसके बाद दूध का दूध और पानी का पानी हो गया, कमेटी की रिर्पोट के अनुसार रामेश्वर नाथ काव निर्दोष थे, इमरजेंसी में लागू की गई योजनाओं और फैसलों से उनका कोई लेना देना नही था, अथवा देश में इमरजेंसी लगने के किसी भी निर्णय या फैसले में रामेश्वर नाथ काव को कोई भी हस्तक्षेप नहीं था, रिपोर्ट में साफ साफ कहा गया की रामेश्वर नाथ काव का इमरजेंसी से कोई लेना-देना नहीं था। मोरारजी देसाई सरकार ने ‘RAW’ की शक्तियों और संस्था के लिए मिलने वाली आर्थिक मदद को कम कर दिया गया। इससे काव बहुत निराश हुए, इस कारण ‘रामेश्वर नाथ काव’ का RAW से मोहभंग हो गया और उन्होंंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। 1997 में रिटायर होने के बाद, काव कैबिनेट के सुरक्षा सलाहकार (असल में, पहले राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार) नियुक्त हुए और नए प्रधानमंत्री, राजीव गाँधी को सुरक्षा के मामलों और विश्व के खुफिया विभाग के अध्यक्षों से संबंध स्थापित करने में सलाह देने लगे। उन्होने एक ओर बहुत अहम किरदार निभाया “पॉलिसी और रिसर्च स्टाफ” को एक आन्तरिक प्रबुद्ध मंडल बनाने में, जो कि आज की राष्ट्रीय सिक्यूरिटी काउन्सिल सेक्रेट्रीएट का अग्रगामी हैं। उन्होंने भारत की एक सुरक्षा बल इकाई, नेशनल सिक्यूरिटी गार्ड (NSG) का भी गठन किया था। *आपको यह जानकर आश्चर्य और खुशी भी होगी के रामेश्वर नाथ काव खुफिया जासूस होने के साथ साथ एक अच्छे शिल्पकार भी थे* एक तरफ दुनिया उनके खुफिया संस्था के अध्यक्ष के रूप में उनकी प्रशंसा करते नहीं थकती थी, तो दूसरी तरफ उनमें एक ऐसी अनोखी प्रतिभा थी जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते थे। काव जी काव ‘RAW’ और ‘एन.एस. जी’ के पहले अध्यक्ष होने के साथ-साथ एक कुशल शिल्पकार भी थे। वन्यजीवन के प्रति अपने लगाव को उजागर करते हुए, उन्होंने घोड़ों की बहुत सी भव्य मूर्तियों का निर्माण किया था। वे गांधार चित्रों के अपने बढ़िया संग्रहण के लिए भी जाने जाते थे। फ़्रांस की पूर्व खुफिया एजेंसी के पूर्व अध्यक्ष ने काव के बारे में कहा था कि “ रामेश्वर नाथ काव जी शारीरिक और मानसिक शिष्टता के एक अद्भुत मिश्रण हैं। लाजवाब उपलब्धियां ! बेहतरीन मित्रता ! और फिर भी अपने, अपनी उपलब्धियों और अपने दोस्तों के बारे में बात करने से कतराते हैं!” इसी कड़ी में ज्वाइंट इंटेलिजेंस कमिटी के चेयरमैन के.एन.दारूवाला ने काव के बारे में कहा था कि “उनके संपर्क दुनिया भर में थे! खास तौर पर चीन, अफगानिस्तान, और ईरान में वह सिर्फ एक कॉल लगा कर कोई भी काम करवा सकते थे" *काव पर बायोपिक* देश की शीर्ष खुफिया एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के संस्थापक आर. एन. काव की एक बायोपिक बनने जा रही है। ये बायोपिक बनाने की मंशा फिरोज नाडियाडवाला ने जाहिर की। इससे पहले करण जौहर, सुनील बोहरा और एक दो और निर्माताओं ने भी उनकी जीवनी को परदे पर उतारने की बात की थी लेकिन किसी की भी कोशिश अब तक सिरे नहीं पहुंची। रामेश्वर नाथ काव का किरदार निभाने के लिए फिरोज ने नाना पाटेकर का चयन किया। यह पहला मौका नहीं है जब रामेश्वर नाथ काव के जीवन पर किसी ने फिल्म या वेब सीरीज बनाने की घोषणा की हो। इससे पहले निर्माता और निर्देशक करण जौहर भी उनके जीवन पर एक फिल्म का निर्माण करने की घोषणा कर चुके हैं। उनकी फिल्म में रामेश्वर नाथ का किरदार निभाने के लिए ऋतिक रोशन का नाम सामने आया था। इसके अलावा कुछ ही समय पहले निर्माता सुनील बोहरा ने भी रामेश्वरनाथ पर एक थ्रिलर वेब सीरीज बनाने की घोषणा की थी। भाग 13 "अंतिम पारी" बुद्धि के खेल में खिलाड़ियों के लिए अपनी प्रशंसा पर आराम करने या पिछली जीत के आधार पर आराम करने की बहुत कम गुंजाइश होती है। बांग्लादेश और सिक्किम में शानदार बैक-टू-बैक सफलता हासिल करने के बाद रामेश्वर नाथ काव इसे आसान बना सकते थे, लेकिन भू-राजनीतिक और सुरक्षा की स्थिति कभी भी स्थिर नहीं होती है और इसलिए RAW जैसे संगठनों को हर समय अपने खेल में शीर्ष पर रहना पड़ता है। 1962 के बाद, भारतीय खुफिया एजेंसियों ने-पहले अविभाजित IB और फिर 1968 से RAW को CIA के साथ घनिष्ठ सहयोग से काफी लाभ हुआ था, खासकर चीन के खिलाफ अपनी परिचालन क्षमताओं को मजबूत करने में। एआरसी की स्थापना और SFF के लिए प्रशिक्षण दो प्रमुख उदाहरण थे; लेकिन जैसे-जैसे देशों में संबंधों का दशक शुरू हुआ, समग्र संबंधों के बीच भारत और अमेरिका के रिश्ते खराब हो गए थे। वॉशिंगटन चीन तक अपनी पहुंच बनाने के लिए पाकिस्तान का इस्तेमाल कर रहा था। निक्सन प्रशासन को भी श्रीमती गांधी के प्रति गहरी नापसंदगी थी। जैसा कि बी रमन ने लिखा है: 'तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर का भारत के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया, भारत की जीत (1971 में) को रोकने के प्रयासों में उनके द्वारा छिपाए गए, कथित मिलीभगत के साथ चीन ने इंदिरा गांधी को आश्वस्त किया कि पाक इस्तान और चीन के बाद, अमेरिका को RAW का प्राथमिकता से ध्यान देना चाहिए ... *वाटरगेट कांड* के मद्देनजर 1974 में निक्सन के इस्तीफे के बावजूद, उन्होंने महसूस किया कि अमेरिका की शत्रुता में कोई बदलाव नहीं आया है। भारत... वह आगे आश्वस्त थी कि अमेरिकी शत्रुता न केवल भारत के लिए थी, बल्कि भारतीय नेता के रूप में भी थी। उसे डर था कि अमेरिकी खुफिया पूर्वी पाकिस्तान में कार्रवाई के लिए एक दंड के रूप में उसकी सरकार को अस्थिर करने की कोशिश कर रहा है। वह अपने चुनाव से अलग सेटिंग में हर जगह सीआईए का हाथ देखने लगी थी। " रमन का दावा है कि 1971 के बीच और 1984 में उनकी मृत्यु तक, CIA के साइवर डिवीजन ने विशाल विदेशी पत्रकारों का उपयोग करके श्रीमती गांधी के खिलाफ एक दुष्प्रचार अभियान शुरू किया था। उन्हें सोवियत कठपुतली कहा जाता था। अभियान बंद हो गया जब वह बाहर थीं सत्ता 1977 और 1980 के बीच हो, रमन ने कहा। 1971 के अभियानों की समीक्षा ने काओ को यह स्पष्ट कर दिया कि भारत में अभी भी समुद्री क्षेत्र में भविष्य कहने वाला खुफिया जानकारी रखने की क्षमता का अभाव है, विशेष रूप से हिंद महासागर में अमेरिकी नौसेना के जहाजों की आवाजाही। और, इसलिए उन्होंने इस कमी को दूर करने के लिए एक योजना तैयार की। प्रारंभ में, रॉ ने भारत के द्वीप क्षेत्रों में नई निगरानी सुविधाओं की स्थापना की और मॉरीशस जैसे हिंद महासागर के देशों में नए स्टेशन खोले। तत्कालीन सोवियत संघ के केजीबी ने भी मदद करने की कोशिश की; लेकिन हिंद महासागर में इसकी सीमाएँ थीं। अन्य देश जैसे यूके, कनाडा, जापान और ऑस्ट्रेलिया सीमित उपयोगिता के थे क्योंकि उनके अमेरिका के साथ घनिष्ठ संबंध थे। काओ को एक प्रभावी विकल्प की तलाश करनी पड़ी। इसलिए उन्होंने फ़्रांसीसी बाहरी ख़ुफ़िया एजेंसी, एसडीईसीई में काम किया। रमन ने 1956 में मद्रास विश्वविद्यालय में पत्रकारिता का एक कोर्स किया था और 1961 में भारतीय पुलिस सेवा में शामिल होने से पहले चार साल तक द इनडियन एक्सप्रेस के दक्षिणी संस्करणों में काम किया। 1970-74 के बीच दिल्ली और भाषा का काफी अच्छा कार्यसाधक ज्ञान हासिल किया, अंततः रमन राजनयिक कवर के तहत पेरिस गए और त्रिपक्षीय सहयोग शुरू करने के लिए 1975 और 1979 के बीच वहां काम किया। परियोजना के तहत भारत के पूर्वी और पश्चिमी तट पर कुछ निगरानी स्टेशन स्थापित किए गए थे, लेकिन जल्द ही व्यवस्था विफल हो गई क्योंकि शाह को 1979 में इस्लामी क्रांति से गिरा दिया गया था। इस बीच, 1971 की जीत के बाद रॉ ने अपने दायरे और भूमिका का तेजी से विस्तार किया था। नौकरशाही प्रतिरोध के बावजूद विदेशों में नए स्टेशन खोले गए, मद्रास, बॉम्बे, कैल कट्टा (अब चेन्नई, मुंबई और कोलकाता) जैसे महत्वपूर्ण शहरों में और लद्दाख, सिक्किम और एनईएफए (बाद में अरुणाचल प्रदेश) में दूरदराज के सीमावर्ती शहरों और बाहरी चौकियों में ऑपरेटरों को रखा गया। ) RNK और RAW चरम पर थे। श्रीमती गांधी ने काओ पर पूरा भरोसा किया। हक्सर, उनके प्रधान सचिव, ने भी नव निर्मित अंग विभाजन का समर्थन किया, जिसने 1971 और सिक्किम दोनों में उनके भरोसे को सही ठहराया। बहुत से युवक और महिलाएं, संगठन की ओर आकर्षित हुईं, क्योंकि इसे RAW में सेवा करने के लिए एक सम्मान माना जाता था। काओ ने 1971 के बाद सीधे कॉलेजों और विश्वविद्यालयों से युवक और युवतियों की भर्ती की व्यवस्था भी शुरू की। 1971 में चार नए उम्मीदवारों को मुख्य रूप से उनके ज्ञात मित्रों और परिचितों के बच्चे के रूप में चुना गया, जिससे आधिकारिक हलकों में यह मजाक बन गया कि रॉ वास्तव में रिलेटिव्स एंड एसोसिएट्स वेलफेयर एसोसिएशन था। हालाँकि, 1973 तक यह निर्णय लिया गया था कि यदि R&AW विविध प्रतिभाओं को चुनना चाहता है, तो उसे भर्ती करने से पहले विभिन्न मापदंडों पर मूल्यांकन की एक प्रणाली की आवश्यकता होगी। इसलिए, 1973 से, सीधी भर्ती के दूसरे बैच को परीक्षण, साक्षात्कार और मनोरोग मूल्यांकन की एक श्रृंखला से गुजरना पड़ा, इससे पहले कि वे कर सकें। चयन किया जाए। इसके बाद, जिसने भी परीक्षा पास की, उसे बुलाया गया। संचालन के प्रभारी संयुक्त सचिव द्वारा आयोजित एक व्यक्तिगत साक्षात्कार के लिए। कुछ महीनों के इंतजार के बाद रानाडे को शामिल होने के लिए कहा गया। उनके अलावा, तीन अन्य प्रताप हेबलीकर, चकरू सिन्हा और बिधान रावल- 1973 बैच के सीधी भर्ती का हिस्सा थे। युवा अधिकारी अपने अनिवार्य प्रशिक्षण के बाद जल्दी से संगठन का हिस्सा बन गए। 'काओ और शंकरन नायर एक-एक अधिकारी और उनकी पृष्ठभूमि को जानते थे। संगठन ने "Club 71" शुरू किया था, जहां महीने में एक बार सभी एक साथ मिलते थे। बहुत सौहार्द था, अपनेपन की भावना। हमें हमेशा खास लगा। मिस्टर और मिसेज काओ महान मेजबान थे। सामान्य सेवा और जासूसी के विज्ञान को सीखने के साथ ही प्रत्येक नए अधिकारी को एक विदेशी भाषा सीखनी होती थी, बहुत कुछ विदेश सेवा के सैनिकों की तरह। RAW अपने छोटे आकार के बावजूद, एक उच्च प्रदर्शन करने वाले संगठन के रूप में देखा गया, जो भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण था। भविष्य और भी उज्जवल दिख रहा था ! भाग 14 "रामेश्वर नाथ की दूसरी पारी" श्रीमती इंदिरा गांधी, जनता पार्टी और इसके अति महत्वाकांक्षी नेताओं में लड़ने का लाभ उठाकर सत्ता में वापस आईं, और 1980 में एक बार फिर प्रधान मंत्री बनीं। एक प्रतिशोधी लकीर के बावजूद कि उनके बेटे और उन्होंने एजेंसियों में शीर्ष अधिकारियों को बदलने की प्रक्रिया शुरू की । सीबीआई औरआईबी, उन्होंने सनतूक को रॉ प्रमुख के पद से नहीं हटाया, यह उनके के व्यक्तित्व और नेतृत्व शैली के लिए उतना ही सम्मान था जितना कि काओ के साथ उनकी निकटता, जो एक बार फिर पक्ष में थे। श्रीमती गांधी ने फिर से प्रधान मंत्री बनने के बाद आरएनके-यद्यपि अनौपचारिक रूप से-मध्यस्थ रूप से परामर्श करना शुरू कर दिया था, लेकिन 1981 तक ऐसा नहीं था कि उन्होंने औपचारिक रूप से उन्हें कैबिनेट सचिवालय में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में नियुक्त किया। काओ ने सुनिश्चित किया कि सनतुक, जिन्होंने जनता पार्टी के शासन में उन्हें एक षड्यंत्र से बचाया था, रॉ प्रमुख के रूप में अपनी सेवा जारी रखें। हालांकि, रमन के अनुसार, न तो आरएनके और न ही सन ने, संगठनों के चार वरिष्ठ अधिकारियों को कमिशन और चूक के कथित और काल्पनिक पापों के शिकार होने से रोका। बालचंद्रन के अनुसार, श्रीमती गांधी ने काओ को वरिष्ठ सलाहकार नियुक्त किया क्योंकि एसीएन नांबियार-पत्रकार, स्वतंत्रता सेनानी, जावा हरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस के करीबी दोस्त और सहयोगी ने उन्हें 1981 में ज्यूरिख में अपनी बैठक के दौरान ऐसा करने की सलाह दी थी। नांबियार, जो श्रीमती गांधी को पसंद करती थीं, उनकी जिज्ञासा को लेकर चिंतित थीं और काओ को अपने सलाहकार के रूप में वापस चाहती थीं। बालचंद्रन, जो तब पेरिस में तैनात थे, को विशेष रूप से सभी के लिए नाम बीर 'नानू' की देखभाल करने का निर्देश दिया गया था और यह सुनिश्चित किया गया था कि वह अपने जीवन में आराम से रहे। काओ 1 रुपये के वेतन पर वापस आ गए थे (उनके नियुक्ति पत्र की फोटो देखें)। इससे मदद मिली कि Suntook अभी भी R&AW का नेतृत्व कर रहा था। उनका तालमेल बरकरार था। वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यभार संभालने के बाद, काओ ने रॉ के संस्थापक प्रमुख के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान कुछ आधे-अधूरे कार्यों को फिर से शुरू किया। सबसे पहले आरएएस को पुनर्जीवित करना था। भर्ती को सही करने के लिए, काओ ने अपने पूर्व नंबर दो शंकरन नायर से यह सिफारिश करने के लिए कहा कि विभिन्न सेवाओं के अधिकारियों और RAS में सीधी भर्ती के अधिकारियों की परस्पर वरिष्ठता कैसे तय की जाए। नायर की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया गया और आरएएस का पुनर्गठन किया गया। काओ ने दूसरा महत्वपूर्ण निर्णय नीति और अनुसंधान स्टाफ (पीआरएस) का गठन करने के लिए लिया, जिसे 1999 में गठित राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय (एनएससीएस) का अग्रदूत कहा जा सकता है। तीन रॉ अधिकारी और एक भारतीय सेवा अधिकारी के लिए रॉ प्रमुख और प्रधानमंत्री को महत्वपूर्ण जानकारी देने के लिए पीआरएस में काम किया। श्रीमती गांधी के सत्ता में लौटने के बाद भारत को जिन कई सुरक्षा चुनौतियों का सामना करना पड़ा, उनमें से एक खालिस्तान समर्थक तत्वों द्वारा पंजाब में बढ़ता असंतोष था। इससे कोई फायदा नहीं हुआ कि श्रीमती गांधी के अपने गृह मंत्री जैल सिंह पंजाब की समस्या से खेल खेल रहे थे। भारत के लिए संभावित खतरे से अवगत, काओ ने श्रीमती गांधी को सलाह दी कि वे समझदार के साथ बातचीत शुरू करें पंजाब नेतृत्व के बीच, लेकिन एक तरफ राजीव गांधी और उनके सहयोगियों और अकाली दल के नेतृत्व और दूसरी तरफ काओ और कुछ खल इस्तानी तत्वों के बीच राजनीतिक स्तर पर कई दौर की बातचीत के बावजूद, पंजाब की समस्या अडिग लग रही थी। आखिरकार, श्रीमती गांधी ने सेना को सिखों के सबसे पवित्र मंदिर स्वर्ण मंदिर में प्रवेश करने का आदेश दिया, जिससे दुनिया भर के सिखों में उदारवादी लोगों में भी व्यापक आक्रोश फैल गया। वह तुरंत खालिस्तानी आंदोलन में चरमपंथी तत्वों का निशाना बन गई। संभावित खतरे से अवगत काओ ने अपनी सुरक्षा को मजबूत करने की कोशिश की। उसकी सुरक्षा में सिक्ख अंगरक्षकों को हटा दिया गया; काओ ने एक एम्बुलेंस को अपने काफिले का हिस्सा बनने का आदेश दिया और उससे बुलेट प्रूफ बनियान पहनने का भी अनुरोध किया। हालांकि, बेवजह इस निर्देश की अवहेलना की गई कि कोई भी सिख अंगरक्षक उसके आंतरिक सुरक्षा घेरे का हिस्सा नहीं होना चाहिए। 31 अक्टूबर 1984 को, उनके दो सिख अंगरक्षकों ने श्रीमती गांधी को उनके घर में गोली मार दी, उनका मानना ​​था कि स्वर्ण मंदिर में सेना भेजने और अकाल तख्त को अपवित्र करने का उनका अक्षम्य कार्य था। श्रीमती गांधी का क्रूर अंत व्यक्तिगत और पेशेवर रूप से काओ के लिए एक बड़ा झटका था। वास्तव में, आरएनके भारत में नहीं था, जिस दिन श्रीमती गांधी की हत्या हुई थी, वह बीजिंग में थे श्रीमती गांधी के निर्देशों के तहत वह चीनी नेतृत्व को सामान्य करने के प्रयास में गुप्त प्रस्ताव देने के लिए चीन गए थे। जब चीनियों ने हत्या के बारे में सुना, तो उन्होंने काओ को जल्द से जल्द भारत पहुंचने के लिए एक विशेष विमान रखने की पेशकश की। चीनियों के साथ आरएनके के खड़े होने से उन्हें विशेष विमान से हांगकांग पहुंचने और वहां से वाणिज्यिक उड़ान से दिल्ली जाने में मदद मिली। काओ भारत लौट आय, वह श्रीमती गांधी की रक्षा करने में विफल रहे थे, जिन्हें वे तीन दशकों से करीब से जानते थे, शुरू में नेहरू की बेटी के रूप में, और बाद में, एक प्रधान मंत्री के रूप में, जो कठोर निर्णय लेने में संकोच नहीं करते थे, लेकिन अपनी शैली के अनुसार, आरएनके ने कभी अपनी भावनाओं के बारे में बात नहीं की और न ही लिखा। वह चुपचाप दूर हो गया, पूरी तरह से सेवानिवृत्त जीवन जी रहे थे, लेकिन कभी भी अपने पत्राचार के रूप में खुफिया क्षेत्र में समकालीन मुद्दों के संपर्क में नहीं आया। 1998 से 2000 के बाद के वर्षों में बालचंद्रन के साथ-दिखाया गया। एक पत्र में, आरएनके ने बालचंद्रन को बेहतर समन्वय और विश्लेषण की आवश्यकता पर लिखा, ... सरकार को खुफिया रिपोर्ट भेजने के लिए आईबी या रॉ के लिए यह पर्याप्त नहीं है। पर्याप्त अनुभव वाले किसी व्यक्ति को सरकार को इन रिपोर्टों की व्याख्या करनी होगी। 1981में मैं कैबिनेट सचिवालय में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में नियुक्त था, स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी ने मुझे ब्रीफिंग में, अन्य बातों के अलावा, कहा था कि खुफिया संगठन खुद "पेड़ों के लिए लकड़ी नहीं देखते थे"। मैंने इस कमी को दूर करने के लिए एक छोटी सी शुरुआत की, लेकिन अन्य घटनाओं ने हस्तक्षेप किया और पूरा सिस्टम निरस्त कर दिया गया।' अपनी दूसरी पारी में लगे झटके के बावजूद, रामेश्वर नाथ काओ को हमेशा भारतीय खुफिया की दुनिया में एक महानायक के रूप में याद किया जाएगा ! भाग 15 "Conclusion : काव एक महान जासूस" एनएसजी के आर्किटेक्ट' के नाम से मशहूर रामेश्वर नाथ काव के दिमाग और कुशल रणनीति की वजह से ही भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ को पूरी दुनिया में एक अलग पहचान और कामयाबी मिली. चीन, अफ़ग़ानिस्तान से लेकर पाकिस्तान में काव ने शानदार ऑपरेशन कुशलता से कार्यान्वित किए. काव ही देश के वह पहले व्यक्ति रहे, जिन्होंने रॉ को एक वर्ल्ड क्लास प्रोफेशनल खुफिया एजेंसी में तब्दील किया. इस खुफिया एजेंसी ने ना केवल राष्ट्र निर्माण में अतुलनीय योगदान दिया, बल्कि भारत की इस एजेंसी को भविष्य के लिए एक सुरक्षित दिशा और दशा भी प्रदान की, ताकि भविष्य में आने वाले खतरों को पहले ही रोका जा सके. प्रचारों से दूर रहने वाले एक शर्मीले और व्यक्तिगत इंसान काव पब्लिक में बहुत कम दिखते थे। वो दोस्तों और रिश्तेदारों की शादियों में भी तस्वीरों के लिए पोस नहीं देते थे। हालाँकि उनसे कई बार उनकी जीवनी लिखने के लिए कहा गया, लेकिन उन्होंने कभी हामी नहीं भरी। जहाँ उनकी कुशाग्र और तीक्ष्ण बुद्धि के बारे में बहुत कुछ कहा गया, वहीं बहुत कम लोग जानते हैं कि भारत के पहले आसूचना प्रमुख एक पारंगत मूर्तिकार भी थे, जिन्होंने अपने वन्यजीवन के प्रति जुनून के चलते घोड़ों की बहुत सी भव्य मूर्तियाँ बनाई है। वे गांधार चित्रों के अपने बढ़िया संग्रहण के लिए भी जाने जाते थे। "काव से जुड़ी अहम बातें जिसको जानना हर भारतीय के लिऐ बहुत जरूरी है" काव ने भविष्य की सुरक्षा चिंताओं से निबटने के लिए पॉलिसी एंड रिसर्च स्टाफ की नींव रखी थी। काव ने तब के बांग्लादेशी राष्ट्रपति शेख मुजीबुर रहमान को अलर्ट किया था कि बांग्लादेश के कुछ सैन्य अधिकारी उनके खिलाफ तख्तापलट की साजिश रच रहे थे। 2017 में उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने अपने सम्बोधन में काव को देश के महान आईपीएस अधिकारियों में से एक बताया था। काव के जीवन पर एक फिल्म बनाने की भी घोषणा की जा चुकी है। 2020 में धर्मा प्रोडक्शन और स्टिल एंड स्टिल मीडिया समूह ने इस सम्बन्ध में जानकारी दी थी। 1950 के दशक के मध्य में काव 'कश्मीर प्रिंसेस' की जांच और 1971 में बांग्लादेश की मुक्ति में योगदान जैसे मामलों से जुड़े थे। काव ने रॉ की दो पीढ़ियों को जासूसी के गुण सिखाए, उनकी टीम को काव ब्वॉयज कहा जाता था। काव भारत के तीन प्रधानमंत्रियों के करीबी सलाहकार और सुरक्षा प्रमुख थे। वे 1962 में चीन के साथ भारत के संघर्ष के बाद स्थापित हुए सुरक्षा महानिदेशालय (डीजीएस) के संस्थापकों में से एक थे। 1950 के दशक में उन्होंने पंडित नेहरू के अनुरोध पर घाना की खुफिया एजेंसी (विदेशी सेवा अनुसंधान ब्यूरो) के गठन में मदद की थी। काव के कुशल नेतृत्व और उनकी टीम की कुशल रणनीति की वजह से 3000 स्क्वेयर किलोमीटर के क्षेत्र का भारत में विलय कराया गया। सिक्किम भारत का 22वां राज्य बना। "पहनते थे खास तरह का बनियान" RAW के पूर्व अतिरिक्त निदेशक राणा बनर्जी भी काव को बेहद करीब से जानते थे। राणा ने एक न्यूज एजेंसी को बताया था, 'काव एक खास किस्म का बनियान पहनते थे। यह बनियान कलकत्ता की गोपाल होजरी में बनता था। ये कंपनी बंद हो गई, लेकिन इसके बावजूद काव के लिए अलग से साल भर में जितनी उनकी जरूरत थी, उतने बनियान बनाया करती थी।' *काव की काबिलियत* ज्वॉइंट इंटेलिजेंस कमिटी के चेयरमैन केएन दारुवाला द्वारा लिखा गया ये नोट आरएन काव की काबिलियत बताता है। उन्होंने लिखा था- दुनियाभर में उनके संपर्क कुछ अलग ही थे। खासकर एशिया, अफगानिस्तान, चीन और ईरान में। वे सिर्फ एक फोन लगाकर काम करवा सकते थे। वे ऐसे टीम लीडर थे जिन्होंने इंटर डिपार्टमेंटल कॉम्पिटिशन, जो कि भारत में आम बात है, को खत्म कर दिया। 20 जनवरी 2002 को इनका निधन हो गया। इस दौरान काव ने भारत में मॉडर्न इंटेलिजेंस सर्विस की नींव रखी जो आज एक महल बनकर हमारे देश की सुरक्षा कर रही है। *काव के जीवन पर लिखी गईं कई पुस्तकें* काव के जीवन और उनकी कार्यशैली पर कई पुस्तकें भी लिखी गई हैं, जिनमें आर एन काव-जेंटलमैन स्पाईमास्टर, काउबॉयस ऑफ RAW, रॉ-भारतीय गुप्तचर संस्थेची गूढगाथा, रिसर्च एंड एनालिसिस विंग, ए लाइफ इन सीक्रेट, इस्केप टू नो व्हेयर और टीम ऑफ काउबॉयज शामिल हैं. श्रीलंका के रोहन गुणरत्न*, पूर्व RAW प्रमुख का इंटरव्यू लेने वाले चंद पत्रकारों में से एक हैं उन्होंने लिखा है : “आर. एन. काव आधुनिक भारत के इतिहास के सबसे उल्लेखनीय गुप्तचर हैं। भारत की सबसे साहसी और खतरनाक माने जाने वाली RAW में उनके योगदान के बिना दक्षिण एशिया का भौगोलिक, आर्थिक और राजनीतिक हालात कुछ और ही होते।” "RAW के एजेंटों को cow boy's कहा जाने लगा" 1968 रॉ की कमान संभालते ही काव ने अपनी काबिलियत दिखाना शुरू कर दिया. उन्होंने इसे प्रोफेशनल खुफिया एजेंसी के तौर पर स्थापित किया, सरकार को ब्लूप्रिंट सौंपा, खुद चुने हुए 250 एजेंट भी रखे. उनका प्रभाव इस कदर था कि सालों तक रॉ के एजेंट्स को कावबॉयज कहा जाने लगा. यह दिलचस्प है कि इस ट्रेंड की वजह से काव की हास्यवृत्ति का दुर्लभ प्रदर्शन देखने को मिला। जब उन्हे पता चला कि रॉ एजेंटों को “काव-बॉयज” कहा जाता है, तो उन्होंने तुरंत एक काऊबॉय की फाइबर ग्लास मूर्ति निर्मित कर RAW के बरामदे में लगवा दी ! रामेश्वरनाथ काव अपने मित्रों और सहयोगियों के बीच रामजी के नाम से भी जाने जाते थे। काव एक बेहद निजी आदमी थे, वह शायद ही कभी सार्वजनिक रूप से देखे जाते थे ! वह सार्वजनिक बयान देने या किताब लिखने के लिए बहुत बचते थे। कुछ लोग इसे रोमांच और जासूसी के लिए समर्पित जीवन के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं, जिससे उनके लिए सार्वजनिक रूप से मिलना बहुत मुश्किल हो गया। वह एक वैरागी थे, जो अपने नई दिल्ली बंगले में बहुत सुरक्षित जीवन व्यतीत करते थे, बहुत कम ही साक्षात्कार देते थे। 1989 से, काओ ने अपना समय बड़े पैमाने पर कश्मीरी पंडितों की गरिमा और सम्मान को बहाल करने के कार्य के लिए समर्पित किया । उन्होंने विभिन्न राजनीतिक नेताओं और भारत सरकार के साथ बातचीत की ताकि यह देखा जा सके कि कश्मीर समस्या को भुलाया नहीं गया है। [ इस देश को समर्पित जीवन का अंत सन् 2002 में हुआ जब 84 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। उनके परिवार में उनकी पत्नी, मालिनी काओ, जिनसे उनकी शादी को 60 साल हो चुके थे, और बेटी अचला कौल हैं ! भारत के यह पहले जासूस "राम जी" हमेशा हमारी यादों में जीवित रहेंगे ! लेखक : सागर अनन्त रामेश्वरनाथ काव "The Indian Spymaster" WhatsApp: 7999663916 E-mail I'd: sgrnnt11@gmail.com  

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