(उर्वशी काव्य के पूर्ण होने पर पंत जी
को लिखा गया एक पत्र)
मान्यवर ! आप कवि की जय हो,
यह नया वर्ष मंगलमय हो।
अब एक नया संवाद सुनें,
दे मुझ को आर्शीवाद, सुनें।
हो गया पूर्ण उर्वशी-काव्य,
जो था वर्षों से असंभाव्य।
उपकार रोग भयकारी का,
यह रहा दान बीमारी का।
पर, खूब तपस्या कड़ी हुई,
बाधा कट-कट फिर खड़ी हुई।
मन को समेट सौ बार थका,
पर केंद्रमग्न वह हो न सका।
जितनी भी की चिंता गहरी,
सूचिका नहीं ध्रुव पर ठहरी।
बरबस जब लिखने लगा छन्द,
देखा समाधि का द्वार बन्द ।
मिन्नतें बहुत कीं माया की,
युवती पुरूरवा-जाया की ।
पर, वह अजीब जिद्दी निकली,
अपनी शरारतों से न टली ।
बैठ ही गई लेकर यह प्रण,
पट का न करूंगी उन्मोचन ।
पर, मैं किवाड़ कूटता रहा,
पूरे बल से टूटता रहा ।
जब जोर लगा उसको खोला,
तन भर का स्नायु-भुवन डोला ।
मन उड़ा, किन्तु, धंस पड़ी, देह;
कुछ रक्तचाप, कुछ मधु-प्रमेह ।
गिर गया कई दिन सुध खो कर
चौखट पर ही मूर्छित्त हो कर ।
रोकते रहे वैद्यधिराज,
पर, मन में था जग चुका बाज ।
मुंह कभी नहीं मोड़ा उसने,
उड्डयन नहीं छोड़ा उसने ।
फिर मैं भावों से भरा हुआ,
जैसे-तैसे उठ खड़ा हुआ ।
बोला, सुन, मोहमयी ललने!
सब की माया, सब की छलने !
यह नहीं सामने कालिदास,
रस-कला-केलि-कविता-विलास ।
कोमल-कर कान्त रवीन्द्र नहीं,
साधक योगी अरविंद नहीं ।
वैसे तो जन अविरोधी हूँ,
फिर भी, स्वभाव से क्रोधी हूँ।
पहचान कला-जग के पवि को,
खुरदुरे करोंवाले कवि को।
मत भाग-दौड़ कर क्रोध जगा,
सीधे चलकर आ गले लगा ।
अपना शिरीष-सा गात देख,
फिर फटे-चिटे ये हाथ देख ।
जो पास नहीं खुद आएगी,
तो वृथा देह नुचवाएगी।
तब महाराज ! वह मान गई,
यह भी पीछे पहचान गई,
मैं ही पुरूस्वा राजा था,
हां, तब अब से कुछ ताजा था।
था उसे खिलाता केवल घृत,
खुद मैं पीता था सोम-अमृत ।
उन दिनों रोग से खाली था,
मैं बड़ा पुष्ट, बलशाली था।
उर्वशी याद करके वह सुख,
हंस पड़ी, सामने करके मुख ।
जब त्रिया करे ऐसा, तब नर
चूमेगा कैसे नहीं अधर?
उर्वशी कंठ से झूल गई,
जो था गुस्सा, सब भूल गई ।
फिर क्या था ? सब खुल गए भेद,
हो उठा विभासित कामदेव ।
मैं घोर चिंतना में धंस कर
पहुंचा भाषा के उस तट पर
था जहाँ काव्य यह धरा हुआ,
सब लिखा-लिखाया पड़ा हुआ ।
बस झेल गहन गोते का सुख
ले आया इसे जगत सम्मुख ।
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तब भी, सुकोमल परी भली,
जैसे-तैसे, बच ही निकली।
युग-धर्म देख मुँह मोड़ लिया,
बस, तनिक दबा कर, छोड़ दिया ।
आखिर, कवि ही हूं, नहीं वधिक;
दो-चार नखक्षत से न अधिक ।
पढ़ कर प्रेमी चकराएंगे,
सीधे यह समझ ना पाएँगे,
मैं पुरुरवा हूं या कि च्यवन,
अथवा मेरा नवयुग का मन
सहचर है परी वदान्या का
या औशीनरी-सुकन्या का ?
जो अधिक रसिक होंगे, वे तो
इससे मी खिन्न उठेंगे रो,
जो त्रिया अन्त में आती है,
वह क्यों सब पर छा जाती है ?
क्यों नीति काम को मार गई,
अप्सरा सती से हार गई ?
पर, मैं क्या करूं? सती नारी
आती जब लिए प्रभा सारी,
करतब वह यही दिखाती है,
सब के ऊपर छा जाती है ।
मैं महा दर्शनाचार्य नहीं,
कविता का भी आचार्य नहीं ।
केवल जो समझा, सीखा है,
जो कुछ नयनों को दीखा है,
लिख दिया उसे निश्चल हो कर,
सच है, कुछ लाज-शरम खोकर ।
कहने भर को प्राचीन कथा,
पर इस कविता की मर्म-व्यथा
आज के विलोल हृदय की है,
सबकी सब इसी समय की है ।
जब भी अतीत में जाता हूं,
मुरदों को नहीं जिलाता हूं।
पीछे हटकर फेंकता बाण,
जिससे कम्पित हो वर्तमान ।
खंडहर हो, हो भग्नावशेष,
पर, कहीं बचा हो स्नेह शेष,
तो जा उसको ले आता हूं,
निज युग का दिया जलाता हूं ।
अच्छा, अब इतना आज अलम्,
अब मांग रही आराम कलम ।
दो बजे; बन्द अब काम करूं,
जब तक निश है, विश्राम करूं ।
पहले ले किन्तु बुझा 'हीटर'
तब सोए कविता का 'फीटर' ।
जानें, निद्रा कब आएगी?
या आज रात कट जाएगी
यों ही टटोलते मन अपना,
देखते उर्वशी का सपना?
लेकिन, प्रणाम अब हे कविवर !
सोने को चला अनुज दिनकर ।
(नई दिल्ली, 2 जनवरी, 1961 ई.)