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शिप्रा चन्द्र के बारे में

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शिप्रा चन्द्र की पुस्तकें

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शिप्रा चन्द्र के लेख

क्षड़िकाएँ

13 अक्टूबर 2019
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खत्म हुआ दिन.... बातें तमाम हुई... उलझने मुस्कुराहटे... निंदा चापलूसी...

क़लम से

11 अक्टूबर 2019
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आज फिर मन हुआ कुछ लिखा जाए ... क्या क्यों किस लिए पता नहीं...... खाली कागज खाली जिंदगी... ना कोई खाका ना पैमाना ना ही शब्दों का सुनहरा जाल... खाली आसमान खाली मैदान

कल

11 अक्टूबर 2019
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कल... अजीब है यह कल... कि आता ही नहीं .... रहता है साथ हर पल.... कि जाता भी नहीं...

एक मुक्कमल जहाँ

28 अप्रैल 2016
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पत्थर की दीवारे  ऊँचे किनारे  सन्नाटे गलियारे एक मुक्कमल जहाँ कभी थी रौनके खिलखिलाती थी हंसी कभी शाम ढलते ही जगमगाते थे  आले दिए भर रौशनी लिए चुपचाप बैठे है ऐसे आज  गोया कोई काम ही नहीं ख़ूबसूरती है कायम अंदाज़ वोही हज़ारो हाथ लगे थे इन्हे बनाने में हज़ारो पेट भरे थे मैहँताने 

पहली होली

22 मार्च 2016
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लाल गुलाबी पीला नारंगी सैया हमरे है सतरंगी झकमक झकमक कुरता पहिने मुह में पान दबाये चाल चले है हाय मधु रंगी कदमो की आहट सुनते ही खट से किवड़िया कर दी बंद गागर भरी रंग की ले कर छुप गयी किनारे मस्ती भरी थी आज बहुरंगी धक्का दे के खोले दरवज्जा उड़ेली गागर भर भर के जब तक जब तक नैना खोले भागी झटपट जैसे हिरणी

उलझन

10 नवम्बर 2015
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मेरी एक कविता खो  गयी  है ढूंढती फिर रही हूं सब  जगह किताबो के बीच  में मेज़ की दराज में पर्स की जेब में हैरान हूं परेशान हूं मिल नहीं रही उलझन है भरी क्या लिखा था कुछ याद नहीं पर जो भी था आप सब पढ़ते तो शायद खुश होते आनंद उठाते औरो को भी पढ़वाते पर क्या अब कहु की खो गयी है मेरी एक कविता खो गयी है किस

अंदाज़

10 नवम्बर 2015
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मुस्कुराने के नहीं ढूंढते बहाने खिलखिला के हँसते है अब ज़िंदगी ने करवट जो ली जीने का दम  भरते  है अब ज़मी पर पैर  टिकते   नहीं आसमा छूने की तमन्ना रखते है अब राह  है कांटो भरी तो क्या गम  है चुभ न जाए ये कुछ इस तरह बच कर निकलते है अब मन करता है जो भी अब ख्वाहिशो का दामन कस कर पकड़ते है अब आँखों में ये

उलझन

7 नवम्बर 2015
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मेरी एक कविता खो  गयी  है ढूंढती फिर रही हूं सब  जगह किताबो के बीच  में मेज़ की दराज में पर्स की जेब में हैरान हूं परेशान हूं मिल नहीं रही उलझन है भरी क्या लिखा था कुछ याद नहीं पर जो भी था आप सब पढ़ते तो शायद खुश होते आनंद उठाते औरो को भी पढ़वाते पर क्या अब कहु की खो गयी है मेरी एक कविता खो गयी है किस

अंदाज़

4 नवम्बर 2015
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मुस्कुराने के नहीं ढूंढते बहाने खिलखिला के हँसते है अब ज़िंदगी ने करवट जो ली जीने का दम  भरते  है अब ज़मी पर पैर  टिकते   नहीं आसमा छूने की तमन्ना रखते है अब राह  है कांटो भरी तो क्या गम  है चुभ न जाए ये कुछ इस तरह बच कर निकलते है अब मन करता है जो भी अब ख्वाहिशो का दामन कस कर पकड़ते है अब आँखों में ये

अंदाज़

3 नवम्बर 2015
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मुस्कुराने के नहीं ढूंढते बहाने खिलखिला के हँसते है अब ज़िंदगी ने करवट जो ली जीने का दम  भरते  है अब ज़मी पर पैर  टिकते   नहीं आसमा छूने की तमन्ना रखते है अब राह  है कांटो भरी तो क्या गम  है चुभ न जाए ये कुछ इस तरह बच कर निकलते है अब मन करता है जो भी अब ख्वाहिशो का दामन कस कर पकड़ते है अब आँखों में ये

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