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स्नेहा के बारे में

अभी तो शुरुआत है, अपने बारे में कुछ समय बाद लिखना चाहूंगी. (सिमित साँस, स्वपन अनंत, अंतरद्वंद )

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स्नेहा की पुस्तकें

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हिंदी मेरी मातृभाषा है और मेरी प्रिय भी है, पर मुझे अंग्रेजी से भी बहुत लगाव है. दोनों भाषाओं को यदि पढ़ने के हिसाब से तुलना करूँ , <p style="text-ali

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<p style="text-align: left;">हिंदी मेरी मातृभाषा है और मेरी प्रिय भी है, पर </p><p style="text-align: left;">मुझे अंग्रेजी से भी बहुत लगाव है. </p><p style="text-align: left;">दोनों भाषाओं को यदि पढ़ने के हिसाब से तुलना करूँ , </p><p style="text-ali

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स्नेहा के लेख

सौत

24 मई 2017
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नाज़ था जिस ख़ूबसूरती पर मुझे वही मासूमियत की मौत बन गया,पहुँच न पाया इश्क़ रूह तकज़िस्म राह में सौत बन गया ...By - Sneha Dev (1/5/17)

प्यारी माँ

24 मई 2017
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काश तुम थोड़ा और ठहर जातीकाश मैं कुछ पहले समझ पातीकाश न निभाई होती फ़िज़ूल की सामाजिक रस्में मैंने और काश तुमने भी हर बार न समझ करमेरी परिस्तिथी को, थोड़ा ज़िद करमुझें बुलाया होता,तुम तो बड़ी थी पता तो होगा तुमकोकी तुम्हारे बाद तुम्हारा ख्याल जब जबआएगा न जाने कितनें खोएं लम

तुम्हारा ख़याल

29 दिसम्बर 2016
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सच है की तुमसे है ज़्यादा,तुम्हारा ख़्याल ख़ूबसूरत क्यूँकि इसमें हक़ीक़त के दाग़ों का शुमार नहींढल जाता है ये मेरी पसंद से …घंटो बैठता है मेरे नज़दीक ये मेरी आँखों में आँखें डाल, पकड़ कर मेरे हाथो कोदे जाता है गरमाहटठंडी अकेली शामों में अक्सर…मेरी उदासियों का गवाह बनकेचुपचाप रहता है नज़दीक मेरे बिना

कुछ रंग

6 दिसम्बर 2016
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कुछ रंग तू भर दे स्याही में ,कुछ हवा दे दे अरमानों को, कलम भी तेरी कलाम भी तेरा, तू रुख बदल दे तूफानों के ...

हसरतें

18 अक्टूबर 2016
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न मर जाएँ धड़कती हसरतें , ज़माने की परखती निगाहों से,नुमाइश हसरतों की अक्सर,बिखरती खुली हवाओं से ,सुलगने दे तू इनको, धीरे धीरे दिल के कोनों में किसी दिन शायद शोला बन,रोशनी कर जाएँ ज़माने में...

यकीं ...

11 अगस्त 2016
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था यकीं इश्क़ पर मेरा, यूँ बेवफ़ाई निभा गयी मैं ...था यकीं उजालों पर तो, अंधेरों में दिए जला गयी मैं...था ऐतबार उम्मीदों पर बड़ा, हौंसला रख क़दम बढ़ा गयी मैं ...- स्नेहा देव 

तपस्या...

13 जुलाई 2016
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तपस्यातू बनी मील का पत्थर , देखती  रही उनको,जो बढ़ते रहे लेके तुझसे, दिशा का अनुमान,तेरे होने पर भी, न था आभास तेरे होने का,तुझे भी न थी जैसे, प्रतीक्षा किसी धन्यवाद की,क्युँकी पहुँच जाएँ मंज़िल तक वो,उनकी ख़ुशी थी, तेरी खुशी …तू बनी रही मिट्टी जड़ो की, वो चढ़ते रहे परवान,कभी प्रेम लगा सिंचाई में , और कभ

बाबूजी ... (पित्र दिवस के अवसर पर सभी पिताओं को समर्पित मेरी एक रचना)

19 जून 2016
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‘बाबूजी’…  कभी था स्तम्भ एक गर्वित सा,  जो जीवन पथ पर डटा हुआ,हर एक पल जिसके जीवन का था, संघर्ष से भरा हुआ,फिर भी दिखा न हमें कभी उसके माथे कोई मलाल,या समय नहीं था रुकने का, और उठा सके कोई सवाल,अनजाने ही में ये सब उसने सिखा दिया था हमको भी,तो क्या मलाल और क्या सवाल, शब्दावली में यह थे ही नहीं… सब जग

कोरा मन…

18 जून 2016
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कोरा मन… कोरा सा मन, कोरा है दिन, औऱ मेरा कागज़ भी,लिख दूँ सुन्दर इसमें कुछ मैं, या बहा दूँ बना नावं इसकी,धीमी धीमी लहराती पवन, मन तरंग हुई पतंग,बहती हवा से, उलझता पानी,झन झन, कल कल आती धवनि,रेत किनारे , पत्थरों को जैसे,सहला के पिघलने को कहती लहर,हर कोशिश में छोड़ जाती है छाप अपनी,पत्थर अडिग है, लहर क

शब्दानगरी को धन्यवाद

14 जून 2016
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मेरी लिखी रचनाओं को पसंद और पुरुष्कृत करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया.   आपकी सरात्मक टिप्पीडियो के लिए आभार. स्नेहा देव 

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