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हिमांशु चक्रवर्ती के बारे में

जिन्दगी अनेको दुखो से भरी है और सुखो से भी कोई सुख में जीता है कोई दुःख में जीता है लेकिन ये एक सिक्के के दो पहलू है सुख के बाद दुःख आता है और दुःख के बाद सुख जो इसमें जीना सीख लेता है वही जीवन की सच्चाई जान लेता है...........

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हिमांशु चक्रवर्ती की पुस्तकें

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हिमांशु चक्रवर्ती के लेख

मुस्कान

3 दिसम्बर 2017
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वो सर्द हवा के मौसम में तेरा मुस्काना यूँ होता देख तेरी मुस्कान को हमको यूँ अहसा होता हो इंतजार माली कोनव फूल को खिलने का हो खग को इंतजार नयी सुबह के होने का हो इंतजार किसान को फसल पर मेघ बरसने का वो सर्द हवा के मौसम मे

यादों के झरोखे

16 जुलाई 2017
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अधर तेरे कभी कपकपायें तो होंगे कभी मेरे यादों के झरोखे छाये तो होंगे,क्या भूलकर भी अभी तुम याद करती होक्यूँ आई हिचकी मुझे इस तरह क्या अब भी मुझे तुम याद करती हो ! उत्तेजनाओं के बादल उमड़ते तो होंगेबरसातो के हिलोर मन में उठते तो होंगें, क्या अब भी संजोकर बैठे हो उन सवनो को क्यूँ बहक गया हूँ इस म

सावन

12 जुलाई 2017
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बरसता सावन

9 जुलाई 2017
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ये बरसता हुआ सावन ये काली घटाए कुछ कह रही हों वक्त की फ़िजाए मौसम का थिरकना बारिश की बूंदों पर जो बहा देती हैं रेत की शिलायें छेड़ दिया है राग किसी ने धीरे से गुनगुनाकर मन में ठेसें उभर आई है धीरे से मुस्कुराकर आ गई अब धुन भी मेरे होंठों पर पर अफ़सोस निकलती नहीं हैं सदाएं एक भीनी खुसबू

तुम

23 जून 2017
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आँखों में गम है तेरा,होंठों पर नाम है तेरा|गया जब नदी के किनारेनजर आया चेहरा तेरा |नदिया का जल कहने लगा क्या ढूढ़ते हो कुछ न तेरा |लौट पड़ा मैं जब वापस जिस ओर स्वर सुना तेरा |खोज रहा फिर उस ओर मैं मिल रहा न कोई छोर तेरा |जिस से मैं बात चार

वक्त

22 मार्च 2017
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ए शाम ढल जा फिर न सता मुझे याद आ जाती हैं फिर वो वक्त की नजाकतें खेल जिसमे खेले आंख मिचौली के ए शाम ढल जा फिर न सता मुझे सुबह हो शाम हो किसी का इंतजार कर वक्त ढलता नहीं था रह देख-देख कर ए शाम ढल जा फिर न सता मुझे वक्त की बंदिशें क्या खूब थी उस वक्त न मुझे ऐसी तमीज थ

ख्वाब

3 मार्च 2017
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ए चाँद देखा तुझे तो कुछ याद आया मेरा जहन में फिर उनका ख्वाब आया,हुई तस्वीर फिर से वो उजागरजो भूला था कारवां वह फिर याद आया,धड़कने भी बढ़ गयीं मेरे दिल कीलेकिन वह वक्त मूझे फिर याद आया,रुकने लगे कदम मेरे तुझको सोच करफिर उनको बढ़ाने का ख्याल आया,कभी तेज चलता हूं मैं रुक-रुककरवह मंज़िल ना आ जाये जो छो

उम्मीदें

1 मार्च 2017
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जब देखा था उस चाँद को मुस्कुराते हुएकुछ हैरत में था मैं उसे आजमाते हुए जागी थी उम्मीदें प्यार की मेरे मन में हसरते बहने लगी थी नदी जैसे बहते हुए गहराई में सिमट रही थी लकीरे वो जब खीचने लगी मुझे वो लहराते हुए पहले बना ली थी अश्को की मालाएं हुई न थी शख्शियत उसे पचाने हुए आशा थी कि जागेगी मेरी उम्मीद

शाम

28 फरवरी 2017
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यह शाम भी क्या खूब हैआती है कुछ ओढ़ के तन पर काली सी चादर को डाल केहै रंग लगता कुछ अलग इसका ये बनती भी खूब है सवरकरये शाम भी क्या खूब है हर्ष मन में बढाती कुछ है घटाती कुछ को है अपने रंग में रंगाती कुछ अभिलाषा बढाती कुछ ख्वाब जगाती कल की ये एक नई तस्वीर बनाती ये शाम भी क्या खूब हैये शाम भी क्या ख

तुम्हारी परछाई

28 फरवरी 2017
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तुम्हारी परछाई भी क्या अजीब हैतुम्हारी आंखे भी क्या अजीब हैं कुछ हया है कुछ शर्म है कुछ रूठना है कुछ मुस्कुराना है तुम्हारी परछाई भी क्या अजीब है ये जो बहती है हवा धीरे धीरे कुछ लिपट के कुछ बहक के करना चाहती है तुम से कुछ दोस्ताना तुम्हारी परछाई भी क्य

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