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मनोज कुमार खँसली-" अन्वेष" के बारे में

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मनोज कुमार खँसली-" अन्वेष" की पुस्तकें

मनोज कुमार खँसली-" अन्वेष" के लेख

दर्द

15 फरवरी 2019
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दर्द जाने क्या दर्द से मेरा रिश्ता है!?!जब भी मिलता है बड़ी फ़ुर्सत से मिलता है||

संध्या

4 अगस्त 2018
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जवाँ हूँ , जवाँ रहने को हूँ , मचलता, शाम होते ही,मैं अगली सुबह को करवटें बदलता| मालूम है रही ज़िन्दगी ,तो नई सुबह खींच देगी, मेरे चेहरे पे एक और लकीर, गफलत में हूँ, पुरानी मिटाने को,मैं रातों को सँवरता| देर-सवेर ही सही | एक रोज़ तो उसे आना है| फिर,...कहीं ...???भर,...

कहाँ से लाऊँ ???

5 मार्च 2018
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अस्तित्व

9 फरवरी 2018
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क्या हूँ?रोजगारों के मेले में बेरोजगार!?! क्या हूँ ?बिल्डिंगों के बीच गिरी इमारत का मलबा!?! या हूँ? उसमें दबी इच्छाओं , आशाओं और उम्मीदों की ख़ाक !?! कौन हूँ मैं ?क्यूँ हूँ मैं ?क्या हूँ मैं ?क्या अस्तित्व है मेरी इस बेबस सी खीझ का ?...क्या हूँ ?भीड़ भ

मुझे चाँद चाहिए

13 नवम्बर 2017
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तोड़ लूँ,... उस नक्षत्र को जिस ओर कोई इंगित करे, मुझे वो उड़ान चाहिए,हाँ - हाँ मुझे चाँद चाहिए | नीले क्षितिज पे टंगी छिद्रों वाली,उस काली चादर का

बलि

30 अगस्त 2017
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भावार्थ : - भारत में आज भी बलि-प्रथा ब- दस्तूर जारी है एवं जारी है आज के शिक्षित वर्ग का उसम

कहना चाहता हूँ कुछ ऐसा

11 अगस्त 2017
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भावार्थ - यहाँ रचियता अपनी प्रेयसी के हृदय में अपना घर करने की चाह में नाना प्रकार की उपमाओं का प्रयोग कर रहा है| कभी वह उससे चाँद, तारों, स्वप्नों, कल्पनाओं की बात कर उसके मन म

कहना चाहता हूँ कुछ ऐसा

11 अगस्त 2017
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कहना चाहता हूँ कुछ ऐसा ,...

झोपड़े का मॉनसून

31 जुलाई 2017
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सौंधी - सौंधी सी महक है मिट्टी के मैदानों में| मॉनसून की पहली बारिश है फूस के कच्चे मकानों में| उसके बदन से चिपकी साड़ी,माथे से बहकर फैले कुमकुम,या केशों से टूटकर गिरते मोतियों क

विडम्बना

14 जुलाई 2017
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भूमिका : यह रचना मेरे हृदय के बहुत निकट है| यह कविता मैंने अपनी स्नातक (ग्रेजुएशन) के दौरान नवभारत टाइम्स में छपी ख़बर से

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