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आकांक्षा श्रीवास्तव के बारे में

नमस्कार मित्रों, मैं आकांक्षा श्रीवास्तव हू। मैं एक स्वतंत्र पत्रकार हू। लिखना मेरा जुनून और यात्रा करना मुझे पसन्द है। इन दिनों में काशी के प्राचीन मंदिरों पर रिसर्च कर रही हू। उम्मीद करती हू की आपको मेरी लेखनी पसन्द आए। ,नमस्कार मित्रों, मैं आकांक्षा श्रीवास्तव हू। मैं एक स्वतंत्र पत्रकार हू। लिखना मेरा जुनून और यात्रा करना मुझे पसन्द है। इन दिनों में काशी के प्राचीन मंदिरों पर रिसर्च कर रही हू। उम्मीद करती हू की आपको मेरी लेखनी पसन्द आए।

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आकांक्षा श्रीवास्तव की पुस्तकें

आकांक्षा श्रीवास्तव के लेख

कन्हैया के जन्मदिन पर हम विराजे है काशी के गोकुल धाम

3 सितम्बर 2018
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https://akankshasrivastava33273411.wordpress.com/ नंद के घर आनंद भयो जय कन्हैयालाल की.... छैल छबीला,नटखट,माखनचोर, लड्डू गोपाल,गोविंदा,जितने भी नाम लिए जाए सब कम है। इनकी पहचान भले अलग अलग नामो से जरूर की जाए मगर अपने मोहने रूप श्याम सलौने सबको मंत्र मुग्ध कर लेते ह

हाई डिमांड "बहू-बेटी जैसी"????

3 सितम्बर 2018
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आकांक्षा श्रीवास्तव। .....?????"बहू बेटी जैसी चाहिए???? क्या हुआ आप भी भौचक्के रह गए न ,भइया आजकल अलग अलग तरह कि डिमांड शुरू हो गयी है। यह सुनते मेरे मन मे भी लाखों प्रश्न उमड़ते बादलों की तरह गरजने लगे कि ये कैसी डिमांड??? बहू- बेटी जैसी.???आख़िर एक स्त्री पर इतना बड़ा प्रहार क्यों???? आख़िर एक बहू को

एक विवाह ऐसा भी

2 सितम्बर 2018
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शादी ....शादी वो है जिसे लोग एक खुशी के लड्डू से जोड़ रखे है। इतना ही नही यहाँ तक यह भी कहा जाता है जो खाए वो भी ,जो न खाए वो भी पछताए। आज मेरी कहानी शादी के ऊपर ही आधारित है एक ऐसा विवाह जहाँ खुशियों की लरी लगी हुई थी। लेकिन ऐसा क्या हुआ उस शादी में आप यह लेख पूर

चरखा चलाती माँ

2 सितम्बर 2018
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चरखा चलाती माँ

2 सितम्बर 2018
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आकांक्षा श्रीवास्तव। धागा बुनाती माँ...,बुनाती है सपनो की केसरी , समझ न पाओ मैं किसको बताऊ मैं"...बन्द कोठरी से अचानक सिसकने की दबी मध्म आवाज बाहर आने लगती हैं। कुछ छण बाद एक बार फिर मध्म आवाज बुदबुदाते हुए निकलती है..,"बेटो को देती है महल अटरिया ,बेटी को देती परदेश र

चचाजान

1 सितम्बर 2018
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बहुत दिनों से हजारों बातों को दबाएं बैठा हुआ हूं,ये जो क्या...डिजीटल चिट्ठी चली है न अपने तो समझ से ऊपर है। चचा जान अच्छा हुआ आज आप हो नही..,नही तो देश की वास्तविकता से जूझ रही धरती माँ को तड़पते ही देखते। इस न जाने डिजीटल दुनिया में क्या है कि लोग अपनी वास्तविकता ओर पहचान से शर्म खाते हैं। चचा जान

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