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अनिल के बारे में

मैं अनिल शर्मा रायपुर निवासी हूँ . अच्छा साहित्य पड़ने का शौक है . कविता लेख लिखता भी हूँ . सरकारी नौकरी है . संगीत और फिल्मो में भी रूचि है .

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अनिल की पुस्तकें

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अनिल के लेख

एक दिन

30 अक्टूबर 2015
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अभी कुछ देर रुको ।......रुको रोकते ही रहे हैं वे कि आएगा सुनहरा कल हो जायेंगे सब खुशहाल हम सब भरोसा करते रहे करते ही रहेंगे  अंत तक और भरोसे में वे हमारे चेहरे नोचकर खींच लेंगे आब नहीं रहने देंगें -- मिटटी पर भरोसा करने लायक स्वयं को ही संवारते रहेंगे हमारी भलाई के नाम पर लेकिन मैं जानता हूँ रोके रख

नरम नहीं रहे सपने

29 अप्रैल 2015
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सपने अब नरम नहीं रहे उनसे एक तीखी आंच लपलपाती हुई आती है और झुलसा देती है दिमाग की साड़ी नसें , गलियों में शोर है - तमाशबीन बेच रहे हैं रंगीन स्वप्न खरीदने वाले नहीं हैं , सिर्फ ,देखने वाले अपनी आँखों से देखते हैं चौंधियायापन , थूक देते हैं पान की पीक , जला लेते हैं -एक अदद सिगरेट बहसो

जिज्ञासा

5 अप्रैल 2015
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मौन होकर देखना हवाओं को दिखती तो नहीं हैं पर देखना है आकाश से उतरे इन्द्रधनुष का कोई रंग तो होगा इनमे ,जो रंग दे मन के कोने को बांध लूँ मैं अपने को इन रंगों में और हो घेरा , इन हवाओं का जो , इन्हे निकलने न दे . फिर हो केवल छुवन तुम्हारी और मैं निहारूं तुम्हे इन रंगो में हर एक रंग में ब

पार कैसे

4 अप्रैल 2015
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कौतुहल है मुझे भी आ गया मैं पार कैसे | इस नदी के सब किनारे बैर रखते है मुझी से , पास जब भी इनके पहुंचा धस रहे हो पाँव जैसे | झाड़ियाँ खामोश थी और मुझ पर हंस रही , ले सकूँ कैसे सहारा कह सकूँ मैं क्या ?किसीसे | प्रश्नचिन्ह थे मेरे सन्मुख ,गए सब हार कैसे ||1|| वह मांझी निकट का मित्र मेरा क्योँ नही

आपस में

20 मार्च 2015
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जब भी मैंने तुम्हारे हाथो को छुआ / तब कभी भी मैंने मौसम को नहीं देखा / क्योंकि इससे गलत बातें पैदा हो सकती थी रुमानियत की / और रुमानियत बेवज़ह अंदर से /नदी पैदा करती है / जो गलत ढंग से बहती है /मौसम दरवाज़े की और होता है ऐसे में / और समय दीवारों पैर से बदल जाते है / इस तरह से मेरा अपंना कुछ नहीं

कुछ तो हैं बादल

26 फरवरी 2015
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कुछ तो हैं बादल मेरे नसीब के अब भी ऐसे जो बरसना चाहते थे लेकिन घुमड़ के रह गए रंग से कुछ स्वप्न थे ,जो चित्र बनना चाहते थे तूलिका की गलतियों से वो बिखरकर रह गए कुछ बहुत ऊँचे थे मेरी कल्पनाओं के किले ज़िंदगी की बाढ़ जैसी लहर से वो ढह गए फूल था जब तुमको बिछाना ,ले गए तब तुम उन्हें और काँटों को

खोई हुई प्यास

24 फरवरी 2015
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खोज रहा हूँ बहुत दिनों से अपनी खोई हुई प्यास को , कहाँ ले जाऊं ,कहाँ में छोड़ू अपनी इस अनछुई आस को प्रश्नचिन्ह और पूर्णविराम नियति नहीं है अपनी केवल फिर भी अर्धविराम मिलेगा शायद मेरे मन उदास को जीवन है मरुथल जैसा नज़र नहीं आता है पानी , वज़ह रही है खुश होने की ,देखू जब भी मैं पलाश को जीवन की परिभ

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