सुख फिर भी मन में रहता हैl
पर्वत पर पर्वत गिर जाएं l
नदियाँ जल से प्रलय मचाये ll
पवन वेग से सब विचलित हो l
धरा हिले डग मग हो नित हो ll
रजनी के आँचल के पीछे,
दिनकर तो फिर भी उगता है l
सुख फिर भी मन में रहता है ll 1 ll
घना अंधेरा हाथ न सूझे l
कठिन पहेली कैसे बूझे ll
राह चलें तो पग न सम्भले l
निर्दय बैरी आगे निकले ll
अहसासों के कोने-कोने,
साहस तो फिर भी जगता है l
सुख फिर भी मन में रहता है ll 2 ll
अग्नि जले तो तन जलता है l
बात जले तो मन जलता है ll
जीवित हो तो कोई न पूछे l
नहीं रहो तो प्रतिमा पूजे ll
घृणा और निंदा के जग में,
कुछ अपना फिर भी लगता है l
सुख फिर भी मन में रहता है ll 3 ll
मन में तो संकोच बहुत है l
क्या करना है सोच बहुत है ll
अपने-अपने मन की बातें l
कौन यहाँ कितनी हैं घातें ll
दुविधा के इस रंग-भवन में,
क्यों सोचें वह क्या कहता है?
सुख फिर भी मन में रहता है ll
स्वरचित
✍️अजय श्रीवास्तव 'विकल'