दोषी कौन.......?
आज विद्यालय में बहुत चहल -पहल थी। विद्यार्थियों को अर्धवार्षिक परीक्षाओं के रिपोर्ट कार्ड मिल रहे थे। इस बदलते दौर में विकास को बहुत तेजी से छू लेने को आतुर बच्चे और उनके माता-पिता, रिपोर्ट कार्ड लेकर आगे बढ़ते जा रहे थे। कुछ में अपनी आशाओं के अनुरूप अंक न देखकर ,चेहरे पर ख़ुशी नहीं थी। कुछ दूसरे बच्चों से तुलना में लगे हुए थे।
इन सबके चेहरों के भावों को पढ़ती हुई मैं ,हैरान हो रही थी क्योंकि किसी के चेहरे पर भी अपनी अध्यापिकाओं के लिए आभार नहीं था। अंकों की होड़ में ज्ञान प्राप्ति का लक्ष्य कहीं सिमट कर रह गया था।
पता नहीं क्यों , मगर मैं इन बच्चों की उपलब्धि पर संतुष्ट नहीं थी। इनके चेहरों पर ज्ञान की चमक नहीं ,अंकों का अभिमान झलक रहा था।
एक अध्यापिका के रूप में मैंने हमेशा अपने विद्यार्थियों के प्रति अपनी जिम्मेदारी को महसूस किया और हर बार यह प्रयास किया कि मैं उनमें स्वस्थ सोच ला सकूँ।
मैं अपने विचारों में ही थी कि तभी एक अभिभावक मेरे सामने आकर बैठ गए।
अभिभावक -मैडम जी , हमारे बेटे ने 85 % अंक प्राप्त किए हैं। आप बताइए कि इसके प्रतिशत को कैसे ठीक किया जा सकता है ?
उनकी बात सुनकर, मैंने जैसे ही बच्चे की ओर देखा ,वह आँख झुकाए इधर- उधर देख रहा था। उसमें आत्मविश्वास की कमी साफ़ नज़र आ रही थी। यह वही बच्चा था, जिसे कक्षा में मैंने अपना पक्ष रखने के लिए हमेशा उत्साहित किया था लेकिन वह केवल उतना ही पढ़ना चाहता था, जिससे अच्छे अंक आ सकें।
मैंने मुस्कुराते हुए प्यार से उसका हाथ पकड़ कर कहा ,"बेटा , पाठ को अच्छी तरह से पढ़ो ,उसके पीछे के भाव को समझो। अंक भी आएँगे और आत्मविश्वास भी आएगा। "
वह अभिभावक धन्यवाद कर के उठ गए।
मैं अपनी सोच में ,उस दिन में पहुँच गई ,जब मैंने इस बच्चे की कक्षा -आठ में पाठ -'बाज़ और साँप' पढ़ाया था।
पाठ समझाने के उपरांत मैंने बच्चों से उनके पसंदीदा पात्र के बारे में अपने विचार बताने के लिए कहा।
मैं तब स्तब्ध रह गई, जब कुछ बच्चे ने उत्तर दिया कि जब बिना किसी चुनौती के उन्हें सब कुछ मिल रहा है तो वे बाज़ की तरह खतरा क्यों उठाएँ ?
मैंने उस पाठ के मूल्य को पुनः समझाया मगर कुछ बच्चों के चेहरों के भाव को देखकर आगे बढ़ गई। जैसे कह रहे थे ,"मैडम ,अब ज्यादा मत समझाओ , हमें तो बस अंक चाहिए।
दोषी कौन है ? शिक्षक , अभिभावक या विद्यार्थी
शिक्षक अच्छे से अच्छा रिज़ल्ट देने की होड़ में बच्चों को आवश्यकता से अधिक अंक देकर उपाधियाँ और सम्मान पा रहे हैं।
माता -पिता अपने बच्चों को हमेशा पहले नंबर पर देखना चाहते हैं। इस चक्कर में कक्षा में आधे से अधिक बच्चों के नाम A से शुरू होते हैं। इसमें भी जब माता -पिता को संतुष्टि नहीं मिलती तो बच्चों के नाम A A लगाने का प्रचलन बढ़ गया है।
अब बचता है विद्यार्थी , जिस पर समाज , माता -पिता और साथियों का इतना दबाव है कि उसे ज्ञान से कोई लेना देना नहीं ,उसे तो केवल अंक चाहिए।
वह अपने किताबी ज्ञान से ही अपने माता- पिता और अपने सपनों को पूरा करना चाहता है।
तो , ये हैं आजकल के विद्यालय रूपी कारखानों के खोखले उत्पाद !
एक अध्यापक के रूप में इस खोखली रचना से मैं असंतुष्ट हूँ...... दुःखी हूँ ..... खोखली नींव से भविष्य का पतन देखकर ........
मेरी कलम से
परमजीत कौर
12 . 12 . 19