.. कबाड़ बटोरते इन बच्चों का स्वाभिमान देखें, इनका रूप रंग नहीं -------------------- कभी आपने
अपनी गलियों में या फिर सड़कों पर बिखरे कूड़ों के ढ़ेर में से कबाड़ बटोरती महिलाओं को देखा है , नहीं देखा , तो दरबे से बाहर निकलिए। समाज के निचले पायदान पर खड़े लोगों को जरा करीब से देखिये न मित्रों ! कल्पनाओं में इन पर रचनाएं न लिखें । पहले इनसे जुड़े जो कबाड़ी को बेचने योग्य कुछ वस्तुओं को अपनी बड़ी सी झोली में घंटों इधर- उधर घुम टहल कर समेटती रहती हैं। उनके बच्चे भी कुछ ऐसा ही करते हैं। यह हमारी शाइनिंग इंडिया की एक अलग तस्वीर है।इनकी भी अपनी दुनिया है। ये कोई भिक्षुक नहीं हैं और न ही मैं इनकी गरीबी को यहां फोकस करना चाहता हूँ। मैं तो इनके स्वाभिमान का कायल हूँ । मौसम चाहे जो भी हो,जिस तरह से मैं अपनी ड्यूटी का पक्का हूँ , उसी तरह से ये भी पौ फटने से काफी पूर्व ही अपने कार्य में तल्लीन मुझे दिखती हैं। बस हमारे उनमें अंतर इतना ही रहता है कि मुझे गलियों में अवारा कुत्ते तंग नहीं करते और उन्हें वे अंधकार में संदिग्ध समझ दौड़ा लेते हैं, उनकी झोली को देख कर । ये कुत्ते भी कितने पाजी होते हैं आज कल के, चोर इनके सामने से ही तर माल गटक कर चला जाता है, फिर भी वे तनिक ना गुर्राते हैं। याचकों की टोली देख कर भी वे मौनव्रत तोड़ते नहीं, लेकिन जैसे ही कूड़ा बिनने वाले किसी बच्चे को अकेले देख लेते हैं, बस फिर क्या मोर्चाबंदी कर लेते हैं, वैसे ही जैसे ईमान के पक्के किसी व्यक्ति की घेराबंदी इस जुगाड़ तंत्र में होती है। इसके बावजूद ये बहादुर बच्चे अपनी झोली को इस तरह से चहुंओर घुमा कर उन्हें पास नहीं आने देते , मानो वह उनका सुदर्शन चक्र हो। मैं भी कभी-कभी ठिठक कर कुत्तों और इन बच्चों का संघर्ष देखता हूं। हालांकि मेरे आने पर अकसर ही कुत्ते भाग खड़े होते हैं। भोर में हम दोनों का अपना मौज है, इन खाली पड़ी अंधकार भरी सड़कों पे। सो, थोड़ा मुस्कुरा उठता हूं, जब कानों में लगा ईयरफोन कुछ यूं सुनाता है- "ये ना सोचो इसमें अपनी हार है कि जीत है उसे अपना लो जो भी जीवन की रीत है ये जीवन है इस जीवन का यही है, यही है, यही है रंग रूप थोड़े ग़म हैं, थोड़ी खुशियाँ यही है, यही है, यही है छाँव धूप..." हाँ, प्रातः भ्रमण करने वालों की दखलअंदाजी इसमें हो जाती है। सच कहूं, तो सड़कों पर कबाड़ बिनने वालों के प्रति मेरा अपना नजरिया है। मुझे इन्हें देख गर्व महसूस होता है कि हम दोनों ने ही किसी के समक्ष हाथ नहीं फैलाया है। बस फर्क इतना हैं कि मैं जब अखबार बांट रहा होता हूं, तो ये फटे- चिथड़े अखबार सड़कों पर से बिन-बटोर रहे होते हैं। कितने निश्छल हैं ये बच्चे , इस बनावटी- दिखावटी दुनिया से बिल्कुल अलग। क्या आपने कभी इनके चेहरे पर उदासी देखी है। इन्हें बीमार पड़ता भी मैंने नहीं देखा है । अपने
देश में इन दिनों स्वच्छता अभियान को लेकर क्या-क्या नहीं हो रहा है। बड़े राजनेता और अधिकारी तक झाड़ू थामे फोटो शूट करवा रहे हैं। मानों फैशन शो के माडल हो एवं रैम्प पर अपना जलवा बिखेर रहे हों। फिर भी वे जब तब अस्वस्थ हो ही जाते हैं। लेकिन, गंदगी के ढ़ेरों में पलने- बढ़ने वाले इन बच्चों को देखिये तो जरा , प्रकृत ने किस तरह से इनकी रोग प्रतिरोधक शक्ति मजबूत कर रखी है। यदि स्वाभिमान की
बात करूं तो हम ढ़ूढ़ते रह जाएंगे फिर भी इनमें से किसी बच्चे को किसी गैर के समक्ष हाथ फैलाते कभी नहीं देखेंगे। ये तो स्वयं ही अपने अभिभावकों को सहारा देते हैं। ये निठल्ले नहीं हैं उन पढ़े लिखे बेरोजगार युवकों की तरह जो अपने खून पसीने की कमाई खाने की जगह जरायम की दुनिया में पांव रख देते हैं। ये बच्चे उन सफेदपोशों की तरह भी नहीं है, जो गरीबी हटाओ या फिर अच्छे दिन लाने का बस वादा ही करते रहते हैं, ना ही समाज सेवा के नाम पर जनता का पैसा डकारने वाले जनसेवक हैं वे। ये मासूम ना ही सफेद खादी के पोशाक में लकदक हैं । वे तो मैले-कुचैले वस्त्र पहने मिलते हैं , अपने नगर की गलियों में, फिर भी वह दागदार नहीं है । ऐसी ही महिलाएं और उनके बच्चों की टोली को मैं अकसर ही अपने मुसाफिरखाने के सामने सड़क उस पार हंसी ठिठोली करते देखता हूं। सभी सामने की दुकान से चाय संग बिस्कुट खाते दिखते हैं, क्यों कि सुबह के सात बजते- बजते इनकी झोली में जो कुछ आया ,वहीं इस दिन की उनकी कमाई है। दिन में वे इसे किसी कबाड़ी को बेच देंगे। वैसे, इन दिनों इनके हाथ कुछ तंग हैं, कारण यह है कि प्लास्टिक की थैलियों सहित बहुत सी अन्य सामग्री पर सरकार ने प्रतिबंध जो लगा दिया है। बस दुख मुझे इस बात का है कि ये बच्चे पढ़े लिखे नहीं हैं । ये बेईमानों को भी साहब कह कर बुलाएंगे। वैसे तो कोई बड़ी डिग्री मेरे पास भी नहीं है। लेकिन, मैंने अपने परिश्रम से इसकी कमी पूरी की है। सो, आज अनेक लोग मेरे लिये सम्मान सूचक सम्बोधित का प्रयोग करते हैं । वे मुझसे चाहते हैं कि समाज की सही तस्वीर हम प्रस्तुत करें। अतः ऐसे लोगोंं के और कुछ न कर सकते हो यदि हम , तो इतना तो दुआ कर ही सकते हैं इनके लिये कि " मंज़िल न दे चराग न दे हौसला तो दे, तिनके का ही सही तू मगर आसरा तो दे..." हम एक पत्रकार हैं, इसीलिये हमारा लेखन कार्य चुनौतियों से भरा होता है। हमें कल्पनाओं की उड़ान भरने की अन्य रचनाकारों की तरह अनुमति नहीं है। हमें तो धरातल पर पांव टिका कर अपनी बातों को पूरे प्रमाण एवं तार्किक ढ़ंग से पाठकों के समक्ष रखना होता है। सत्य को सामने लाने की हमारी नैतिक जिम्मेदारी है। ऐसे में हम अच्छे रचनाकार किस तरह से बन सकते हैं। पत्रकारिता में हमें तो भूत और वर्तमान को ध्यान में रख कर ही भविष्य पर अपने विचार रखने को शिक्षा दी गयी है। हां, अब पेड न्यूज का जमाना है। सो, हमारी लेखनी भी जब तब फिसलती रहती है। कभी संस्थान के लिये, तो कभी अपने लिये हमलोग अनाड़ी को खिलाड़ी बनाने के लिये अखबारों के कालम रंगा करते हैं। लेकिन, यह ब्लॉग नहीं दर्पण है मेरे लिये, अतः मेरी जो सम्वेदनाएँ हैं, भावनाएं हैं वे जज़्बाती न हो, इस पर सदैव ही मैं अंकुश लगाते रहने का प्रयास करता हूं। अपने अंधकारमय जीवन में प्रकाश के लिये एक दीपक की तलाश में हूं, जो कभी मेरे बिल्कुल करीब होता है , तो कभी दूर जाता दिखता है। मानो लुकाछिपी
खेल रहा हो मुझसे ,कुछ इस तरह से यह भी ... " ये पल पल उजाले, ये पल पल अंधेरे - बहुत ठंडे ठंडे, हैं राहों के साये यहाँ से वहाँ तक, हैं चाहों के साये - ये दिल और उनकी, निगाहों के साये - मुझे घेर लेते, हैं बाहों के साये " यह
लेख मेरा उन जेंटलमैनों (भद्र पुरुष)के लिये है , जो ऐसे स्वाभिमानी बच्चों को देख न जाने क्यों नाक भौं सिकोड़ने लगते हैं। मैं जानता हूं आप उनमें से नहीं हैं। एक सच्चे रचनाकार का सम्वेदनशील हृदय सदैव जो भावनाओं से भरा होता है।