*मानव जीवन में गुरु शब्द का बहुत महत्व है | जो आपको अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाय वही गुरु है | अंधकार क्या है ? इस पर हमारे मनीषियों ने बताया है कि अज्ञानता ही अंधकार है | जो अज्ञानता से निकालकर
ज्ञान का प्रकाश प्रकाशित कर दे वही गुरु है | गुरु शब्द की इतनी महत्ता है कि इसे सृष्टि में सबसे ऊँचे स्थान पर प्रतिष्ठित करते हुए पारब्रह्म की संज्ञा दी गयी है | मनुष्य जीवन में गुरु का अत्यधिक महत्व है। वेदों में मातृदेवो भव , पितृदेवो भव के बाद तीसरे स्थान पर गुरु को देवतुल्य माना गया है | गुरु को इतना महत्व देने की क्या जरूरत है ? कबीरदस जी इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं :- बलिहारी गुरु आपने , गोविंद दियो बताय ! अर्थात:- गुरु ही है जो गोविंद तक पहुँचने की राह बताता है | वही है जो गोविंद की पहचान बता सकता है | इसीलिए गुरु की बलिहारी है | यह बात समझ में आ जाए तो यह जानना कोई समस्या ही नहीं है कि गुरु को कितना महत्व देना है | गुरु के पास है वह ज्ञान जो ईश्वर तक ले जाने में सहायक होता है | ईश्वर तक जाना है एक-एक सीढ़ी चढ़ कर , और उस सीढ़ी पर ईश्वर के पहले गुरु खड़ा है | इसीलिए तुलसीदास रामचरित मानस में कहते हैं :- "बंदऊं गुरु पद कंज , कृपा सिंधु नर रूप हरि ! महामोह तम पुंज , जासु वचन रवि कर निकर !! इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए गुरु का होना अत्यंत आवश्यक है |* *आज गुरु शब्द का अर्थ ही बदलकर रह गया है | आज गुंडे - मवालियों के समाज में गुरु शब्द का प्रचलन कुछ अधिक ही हो गया है | वैसे भी आजकल जो कुछ गुरु-शिष्य परंपरा में देखने को मिल रहा है , वह हास्यास्पद है | आज प्रत्येक व्यक्ति को लग रहा है कि किसी रेडीमेड गुरु को पकड़ो , झटपट दीक्षा लो और बस निवृत्त हो जाओ | गुरु भी अपना परिवार (शिष्यों का) बढ़ाने में लगे हैं , चाहे किसी व्यक्ति में शिष्य होने की पात्रता हो या नहीं | पहले जो गुरु थे , उन्हें उचित पात्र की चिंता रहती थी | शिष्य ऐसे मिलें कि गुरु के मंत्र को आत्मसात कर सकें , उसकी साधना कर सकें और उससे समाज का , विश्व का हित करें | परंतु आज मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" देख रहा हूँ कि आज भौतिक संपदा प्राप्त करने के लिए गुरु बनाए जा रहे हैं | परमात्मा किसे चाहिए और किसे समाज की चिंता है ? पूर्व के शिष्यों के जीवन पर दृष्टिपात करें तो पाएंगे कि उनके गुरुओं ने न केवल उन्हें मार्ग दिखाया , बल्कि उनकी क्षमताओं और सार्मथ्य से उनका परिचय करा दिया | लेकिन साधना के कठिन पथ पर तो ये शिष्य खुद ही चले | गुरु को हम मानें , उसके बताए मार्ग पर चलें , लेकिन अगर हम सोचते हैं कि उसके पीछे भागने से सब कुछ मिल जाएगा , तो यह हमारी भूल है | जब तक हम स्वयं को जानने का प्रयास नहीं करेंगे , हम प्रगति नहीं कर सकते | स्वयं को जानने के लिए हमें बाहर नहीं भागना है , बल्कि अंतर्यात्रा करनी है , यह तभी होगा जब हम संसार में रहते हुए भी हम निरासक्त होना सीखें | परंतु आज जो परिवेश आश्रमों में बन चुका है , उससे तो यही प्रतीत होता है कि आज शिष्य अपने गुरुओं को भौतिक संपदा प्रदान कर प्रसन्न होते हैं | आजकल आश्रमों में फ्रिज , टी.वी. , मोबाइल फोन , जेनरेटर तथा एयर कंडीशनर जैसी वस्तुएं आम हो गई हैं | एक गृहस्थ अगर घर में आसक्त है , तो आश्रमवासी आश्रम की व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने में व्यस्त हैं |* *आज गुरु दीक्षा परमात्मा को पाने के लिए नहीं , बल्कि संसार के सुख पाने के लिए दी और ली जा रही है। जो गुरु स्वयं ही संसारी हैं , वे अपने शिष्यों को कैसे संसार रूपी चक्र से छुटकारा दिला सकते हैं। कमी गुरुओं में है या शिष्यों में , इसका उत्तर तो गुरु और शिष्य ही दे सकते हैं |*