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अध्यात्म

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ईश्वर किसी एक धर्म , किसी एक पंथ या किसी एक मार्ग का गुलाम नहीं। अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ मानने से ज्यादा अप्रासंगिक मान्यता कोई और हो हीं नहीं सकती । परम तत्व को किसी एक धर्म या पंथ में बाँधने की कोश

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🍀🏵️🍀🏵️🍀🏵️🍀🏵️🍀🏵️🍀🏵️ *‼️ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼️* 🚩 *सनातन परिवार* 🚩 *की प्रस्तुति* 🌼 *वैराग्य शतकम्* 🌼 🌹 *भाग - चौथा* 🌹🎈💧🎈💧🎈💧🎈💧🎈💧🎈💧*खलोल्लापाः सोढाः कथमपि तदा

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*सनातन धर्म में सबसे बड़ा धन शरीर को माना गया है | जिस प्रकार बिना आकार के निराकार कहा जाता है उसी प्रकार जब मनुष्य का शरीर रूपी धन नष्ट हो जाता है तो उसके लिए निधन शब्द का प्रयोग किया जाता है | धर्म की अनेक कठिन साधनाओं को साधने के लिए शरीर का स्वस्थ होना बहुत आवश्यक है इसीलिए लिखा गया है :- "शरीर

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🍀🏵️🍀🏵️🍀🏵️🍀🏵️🍀🏵️🍀🏵️ *‼️ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼️* 🚩 *सनातन परिवार* 🚩 *की प्रस्तुति* 🌼 *वैराग्य शतकम्* 🌼 🌹 *भाग - तीसरा* 🌹🎈💧🎈💧🎈💧🎈💧🎈💧🎈💧*उत्खातं निधिशंकया क्षितित

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जीवन यापन के लिए बहुधा व्यक्ति को वो सब कुछ करना पड़ता है , जिसे उसकी आत्मा सही नहीं समझती, सही नहीं मानती । फिर भी भौतिक प्रगति की दौड़ में स्वयं के विरुद्ध अनैतिक कार्य करते हुए आर्थिक प्रगति प्राप्त करने हेतु अनेक प्रयत्न करता है और भौतिक समृद्धि प्राप्त भी कर लेता है ,

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*ईश्वर द्वारा बनाई गई है सृष्टि बहुत ही रहस्य पूर्ण है | यहां पग पग पर रहस्य भरे पड़े हैं जिनको सुलझाने में मानव जीवन भी कम पड़ जाता है | जीवन एवं मरण का रहस्य अपने आप में अद्भुत रहस्य है | बड़े बड़े ज्ञानी विद्वान इस रहस्य को नहीं समझ पाते हैं और जो इस रहस्य को समझ गया वही परम ज्ञानी कहा जाता है |

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*इस सृष्टि में अनेकानेक जीवों के मध्य सर्वोच्च है मानव जीवन | जीवन को उच्च शिखर तक ले जाना प्रत्येक मनुष्य का जीवन उद्देश्य होना चाहिए ` किसी भी दिशा में आगे बढ़ने के लिए मनुष्य को मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है चाहे वह सांसारिक पहलू हो या आध्यात्मिक , क्योंकि शिक्षकों एवं गुरुजनों का मार्गदर्शन तथा

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*जीव इस संसार में अनेक योनियों में भ्रमण करता हुआ जब मानव योनि प्राप्त करता है तो उसका परम लक्ष्य होता है मोक्ष प्राप्त करना अर्थात आवागमन से छुटकारा प्राप्त करना | आवागमन छुटकारा पाने के लिए हमारे धर्म ग्रंथों में अनेक अनेक उपाय बताये गये हैं | जप - तप , साधना , उपासना आदि अनेकों प्रकार के साधन य

जीवित हो अगर, तो जियो जीभरकर...जीते तो सभी हैं पर सभी का जीवन जीना सार्थक नहीं है। कुछ लोग तो जिये जा रहे हैं बस यों ही… उन्हें खुद को नहीं पता है कि वे क्यों जी रहे हैं? क्या उनका जीवन जीना सही मायनें में जीवन है। आओ सबसे पहले हम जीवन को समझे और इसकी आवश्यकता को। जिससे कि हम कह सकें कि जीवित हो अगर

तनाव मुक्त जीवन ही श्रेष्ठ है……आए दिन हमें लोंगों की शिकायतें सुनने को मिलती है….... लोग प्रायः दुःखी होते हैं। वे उन चीजों के लिए दुःखी होते हैं जो कभी उनकी थी ही नहीं या यूँ कहें कि जिस पर उसका अधिकार नहीं है, जो उसके वश में नहीं है। कहने का मतलब यह है कि मनुष्य की आवश्यकतायें असीम हैं….… क्योंकि

क्या मृत्यु से डरना चाहिए……?अगर हम बात मृत्यु की करते हैं तो अनायास आँखों के सामने किसी देखे हुए मृतक व्यक्ति के शव का चित्र उभरकर आ जाता है। मन भी न चाहते हुए शोकाकुल हो उठता है। आखिर ऐसी मनस्थिति के पीछे क्या वजह हो सकती है…? जबकि आज के परिवेश में घर के अंदर भी हमें दिन में ही ऐसी लाशों को देखने क

क्या कहेंगें आप...?हम सभी जानते हैं कि प्रकृति परिवर्तनशील है। अनिश्चितता ही निश्चित, अटल सत्य और शाश्वत है बाकी सब मिथ्या है। बिल्कुल सच है, हमें यही बताया जाता है हमनें आजतक यही सीखा है। तो मानव जीवन का परिवर्तनशील होना सहज और लाज़मी है। जीवन प्रकृति से अछूता कैसे रह सकता है…? जीवन भी परिवर्तनशील ह

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जीवन क्या है..? या मृत्यु क्या है..? क्या कभी आपने इसे समझने की चेष्टा की है..? नहीं, जरूरत ही नहीं पड़ी। मनुष्य ऐसा ही है.. तो क्या सोच गलत है...जी बिल्कुल नहीं, ये तो मनुष्यगत स्वभाव है। जरा उनके बारे में सोचिए जिन्होंने हमें ज्ञान की बाते

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🌹🌹🌹🌺मध्य रात्रि 🌺🌹🌹🌹 🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺प्रचण्ड एषणा हृदय में, मन मैंने बनाया है।एक विराट शुभ विचार मन में समाहृत है।।भव्य स्वर्णिम मण्डप स्वप्न में हटात् आ दिखता है।विशाल स्तंभ केन्द्र में- बहुआयामिय आलोकित है।।भिन्न-भिन्न अद्भुत आकृतियाँ यत्र-तत्र दृष्टिगोचर हैं।।सदाशिव महादेव-त्रिनेत

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*सनातन धर्म के सद्ग्रन्थों एवं ऋषि - महर्षियों के विचारों में एक तथ्य एवं दिशा निर्देश प्रमुखता से प्राप्त होता रहा है कि मनुष्य जीवन पाकर के सबसे पहले मनुष्य को स्वयं के विषय में जानने का प्रयास करना चाहिए | क्योंकि जब तक मनुष्य स्वयं को नहीं जान पाएगा तब तक वह ब्रह्मांड को जानने का कितना भी प्रया

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*इस धराधाम पर मनुष्य सभी प्राणियों पर आधिपत्य करने वाला महाराजा है , और मनुष्य पर आधिपत्य करता है उसका मन क्योंकि मन हमारी इंद्रियों का राजा है | उसी के आदेश को इंद्रियां मानती हैं , आंखें रूप-अरूप को देखती हैं | वे मन को बताती हैं और मनुष्य उसी के अनुसार आचरण करने लगता है | कहने का आशय यह है कि समस

*परमपिता परमात्मा ने इस समस्त सृष्टि में जीवों की रचना की , जीवन देने के बाद जीवात्मा को एक निश्चित समय के लिए इस पृथ्वी लोक पर भेजा | जिस जीवात्मा का समय पूर्ण हो जाता है वह किसी न किसी बहाने से इस धरा धाम का त्याग कर देता है | नश्वर श

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*मानव शरीर ईश्वर की विचित्र रचना है , इस शरीर को पा करके भी जो इसके महत्व को न जान पाये उसका जीवन निरर्थक ही है | मानव शरीर में वैसे तो प्रत्येक अंग - उपांग महत्वपूर्ण हैं परंतु सबसे महत्वपूर्ण है मनुष्य की वाणी | वाणी के विषय में जानना बहुत ही आवश्यक है , प्राय: लोग बोले जाने वाली भाषा को ही वाणी म

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*इस धरा धाम पर मनुष्य माता के गर्भ से जन्म लेता है उसके बाद वह सबसे पहले अपने माता के द्वारा अपने पिता को जानता है , फिर धीरे-धीरे वह बड़ा होता है अपने भाई बंधुओं को जानता है | जब वह बाहर निकलता है तो उसके अनेकों मित्र बनते हैं , फिर एक समय ऐसा आता है जब उसका विवाह हो जाता है और वह अपने पत्नी से पर

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अध्यात्मपरक मन:चिकित्सामनःचिकित्सक अनेक बार अपने रोगियों के साथ सम्मोहन आदि कीक्रिया करते हैं | भगवान को भी अपने एक मरीज़ अर्जुन के मन का विभ्रम दूर करकेउन्हें युद्ध के लिये प्रेरित करना था | अतः जब जब अर्जुन भ्रमित होते – उनके मनमें कोई शंका उत्पन्न होती – भगवान कोई न कोई झटका उन्हें दे देते | यही क

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