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प्रकृति

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प्रकृति तेरे अनेक रूपकभी बदरिया को बरसायेकभी चमकाये जेठ  की धूप कभी कंपकंपाती रूह की शीतप्रकृति तेरे अनेको है रूप।बसत में वसुंधरा आहे हरी चादरग्रीष्म में छाई उदासी भरा रुखापनवर्षा में बादल ब

उठा कुदालपेड़ लगागर चाहिए छाँवन जलें पाँवगर चाहिए हवादूर रहे दवागर चाहिए फलस्वस्थ रहें हर पलगर चाहिए जलबना रहे हमारा कलगर चाहिए साँसऔर जीवन की आसगर चाहो चंहु ओर मंगलबढ़ाओ खूब जंगलगर चाहो शीतल पवनलगाओ जम

सुन्दर झरने झर झर करते,कल कल करती है नदियां,पहाड़ों कि चोटी शोभा बढ़ती,फुल कि महकती है बगिया,कितनी सुन्दर है शान प्रकृति की,मनुष्य को है वरदान प्रकृति का।            &nbs

धर्म ग्रंथ कहते हैं, ऋषि मुनि, वर्ष हजारों तक जीते थे।कंदमूल फल खाते थे और,नदियों का पानी पीते थे।योग तपोबल से देवों के ,दर्शन वो पाया करते थे।उनके लिए अवतरित हो,भगवान स्वयं आया करते थे।।रामायण औ

पूरा वातावरण प्रदूषित,भोजन, हवा, नाद या पानी।कोई क्षेत्र नहीं छोड़ा,जिस जगह न की हमने मनमानी।।अब भूकंप अगर आए तो,हम कुदरत को कोस रहे हैं।और बाढ़ आए तो पावन नदियों को दे दोष रहे हैं।।इतना किया अनर

लिया जन्म जिस धरती पर,उस धरती पर ही भार हैं।जिन तत्वों से ये तन पाया,वे ही बने शिकार हैं।।पावक,पवन,भूमि,जल,अम्बर,आज सभी व्यापार हैं।शोषण इतना हुआ प्रकृति का,चहुं दिश हाहाकार है।।जो धरती से मिला हमे,हम

प्रतिबंधों से लाभ मिला ये,धरती अम्बर शुद्ध हो गए।जंतु विचरते मुक्त, प्रदूषण मार्ग सभी अवरुद्ध हो गए।।रात चांदनी होती है अब,अम्बर में तारे दिखते हैं।नदियां, झीलें, ताल, सरोवर,स्वच्छ स्रोत सारे दिख

जब भी जलवायु परिवर्तन की बात होती है । ना जाने कहाँ से उस विशाल अजगर की कहानी ज़ेहन में तैरने लगती है ,जो इतना विशाल था जितना स्वयं में एक टापू हो। जिसकी सुषुप्त अवस्था में उसके तन पर हरे भरे मैदान को

अवैध निर्माण ~निर्माण एक रचनात्मक प्रक्रिया है । घर का निर्माण , भवन का निर्माण , सृष्टि का निर्माण हो या व्यक्तित्व का निर्माण । नींव  से लेकर अपनी परिणति प्राप्त करने तक यह एक वृहद कर्मयज्ञ का

जिंदगी का सुहाना सफर हो,प्रेम की बरसात हो जीवन में।हर रिश्ते से प्रेम करें ।कोई राग द्वेष ना हो जीवन में।।प्रकृति के हर रुप से,सदा हम प्यार करें।छटा अनुपम बिखेरती है प्रकृति,हर रूप का हम दीदार करें।गि

पर्वत से सीखो ऊँचा उठकर,ऊँचा ही होते जाना,सागर सी गहराई रखना,जीवन में लहराते जाना।नदी से सीखें बहते-बहते,सबको जीवन देते जाना,झरने से सीखें कल-कल बहकर,आगे ही बढ़ते जाना।फूल दे रहे सीख हमें ये,जीवन में स

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सुखि गइलें पोखरा आ जर गइलें टपरी , ए बदरी । कउना बात पे कोहाइ गइलू ए बदरी । देखा पेड़वा झुराई गइलें ए बदरी । बनरा के पेट पीठ एक भइलें घानी । कहा काहें होत बाटे राम मनमानी । गोरुअन के बेटवा क पेटवा ह

अचम्भित है बालमन,कैसे बनता है इन्द्रधनुष,कहाँ से आता है,कहाँ जाता है,कौन लाता है,कौन बनाता है।कौन है ,जो चलाता है कूँची,और भरता है रँग,ये प्रकृति है,या भगवान।  आगे जब पढ़ता हूँ विज्ञान,तो मिल

बचपन में मैंने इक बंज़र धरती पर पौधा बोया था  धरती मां से पेड़ बड़ा होने को हमनें बोला था ,, बंजर मिट्टी में इक अंकुर था फूटा भरकर पानी बरगद़ के पत्तों में मैंनें अंकुर को सींचा ,, तब जाकर डाली निकल

"पौधों से प्यार" पौधों से जिसको भी होता है प्यार उनकी सेवा को वह रहता है तैयार कभी न उतरने वाला होता यह खुमार सेवा में उनकी बन्दा सहता मौसम की मार कहते कैसे इसको जुनून नहीं समझते कि ये देते

एक अकेला चांद कहां तक, तम से मुक्ति दिलाएगा।तारों की टिम टिम संग, कैसे  राह  गगन  में  पाएगा।।...सूरज की किरणों सा जिसमें,तेज नहीं,आलोक नहीं।कैसे वह भू को, अम्बर को, आलोकित  क

चाँद!आजतुम -बहुत सुंदर दिख रहे हो।जानते हो - कैसे?विचारों केघने बादलों के बीच,मन के आकाश पर,लुक-छिप करते,इशारों के अनकहेपन जैसे!!रुई के नरम टुकड़ों से,तुम ऐसे झाँक रहे हो-जैसेघने जंगल की,ऊँची वनस्पतिय

"जीवन का आधार" पर्यावरण रखो स्वच्छ प्रदूषण को मिटाकर हो जाए धरती निर्मल और स्वर्ग सी सुन्दर लगे सुखमय साँस साँस जीवन हो बड़ा मनोहर प्रकृति को प्यार से दोस्त बनाओ जीवन भर उसका स्नेह पाओ प्रकृत

खेतों में जब फूल रही पीली सरसों वे गाँव देखे हमें हुए जैसे बरसों

"आह्वान" गर मैं होती एक कवयित्री कर देती रचना इस छवि की कैसा सुन्दर मनभावन सावन करता जैसे मन का आह्वान ठंडी ठंडी चली पुरवैया डोल न जाए मेरी नैया मैं निहारुँ इस छवि को रोक न पाऊँ अपने मन को फू

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