बचपन के दिन -
कल याद आ गया मुझको भी अपना बचपन खुश हुई
बहुत पर आँख तनिक सी भर आयी
गांवों की पगडण्डी पर दिन भर दौड़ा करती
कुछ बच्चों की दीदी थी।
दादी की थी राजदुलारी
रोज़ सुनती छत पर दादाजी से परियो की कहानी
झलते रहते वो पंखा पर थक कर मैंसो जाती
घर कच्चे थे चाची लीपा करती
गोबर से आंगन मै नन्हे कदमों से उस पर थाप लगाती
फिर भी वे हँस कर लाड़ो कह कर मनुहार लगाती
खेतों पर सरसो जब खिलती मन आल्हादित हो जाती
तितली देख डर जाती
मुझसे मै उसके पीछे दौड़ लगाती
माँ कान पकड़ कर घर लाती
मुझको कहती बार बार लाड़ो तुंम लड़की हो चूल्हा चौका सीखो पर आज़ाद थी। तब आज सा दरिंदो का डर नही था
कितने प्यारे थे वो दिन जब दादी मुझको ढूढ ढूढ थक जाती
कब तक याद करू वो दिन बस आंख मेरी भर आती। त्रिशला जैन