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ख़ुदा की क़सम

20 अप्रैल 2022

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उधर से मुसलमान और इधर से हिंदू अभी तक आ जा रहे थे। कैम्पों के कैंप भरे पड़े थे। जिनमें ज़रब-उल-मिस्ल के मुताबिक़ तिल धरने के लिए वाक़ई कोई जगह नहीं थी। लेकिन इसके बावजूद उनमें ठूंसे जा रहे थे। ग़ल्ला नाकाफ़ी है। हिफ़्ज़ान-ए-सेहत का कोई इंतज़ाम नहीं। बीमारियां फैल रही हैं। इसका होश किसको था। एक इफ़रात-ओ-तफ़रीत का आलम था।

सन् अड़तालीस का आग़ाज़ था। ग़ालिबन मार्च का महीना। इधर और उधर दोनों तरफ़ रज़ाकारों के ज़रिए से “मग़्विया” औरतों और बच्चों की बरामदगी का मुस्तहसन काम शुरू हो चुका था। सैंकड़ों मर्द, औरतें, लड़के और लड़कियां इस कार-ए-ख़ैर में हिस्सा ले रही थीं। मैं जब उनको सरगर्म-ए-अ’मल देखता तो मुझे बड़ी तअ’ज्जुब-ख़ेज़ मसर्रत हासिल होती, या’नी ख़ुद इंसान इंसान की बुराईयों के आसार मिटाने की कोशिश में मसरूफ़ था। जो इस्मतें लुट चुकी थीं, उनको मज़ीद लूट खसूट से बचाना चाहता था। किस लिए?

इसलिए कि उसका दामन मज़ीद धब्बों और दाग़ों से आलूदा न हो? इसलिए कि वो जल्दी जल्दी अपनी ख़ून से लिथड़ी हुई उंगलियां चाट ले और हम अपने हमजिंसों के साथ दस्तरख़्वान पर बैठ कर रोटी खाए? इसलिए कि वो इंसानियत का सुई धागा लेकर जब तक दूसरे आँखें बंद किए हैं, इस्मतों के चाक रफ़ू कर दे?

कुछ समझ में नहीं आता था... लेकिन उन रज़ाकारों की जद्द-ओ-जहद फिर भी क़ाबिल-ए-क़द्र मालूम होती थी।

उनको सैंकड़ों दुशवारियों का सामना करना पड़ता था। हज़ारों खेकड़े थे जो उन्हें उठाने पड़ते थे क्योंकि जिन्होंने औरतें और लड़कियां उड़ाई थीं, सीमाब पा थे, आज इधर, कल उधर, अभी इस मुहल्ले में, अभी उस मुहल्ले में और फिर आस-पास के आदमी भी उनकी मदद नहीं करते थे।

अ’जीब अ’जीब दास्तानें सुनने में आती थीं... एक लियाज़ाँ अफ़सर ने मुझे बताया कि सहारनपुर में दो लड़कियों ने पाकिस्तान में अपने वालिदैन के पास जाने से इनकार कर दिया। दूसरे ने बताया कि जब जालंधर में ज़बरदस्ती हमने एक लड़की को निकाला तो क़ाबिज़ के सारे ख़ानदान ने उसे यूं अल-विदा कही जैसे वो उनकी बहू है, और किसी दूर-दराज़ सफ़र पर जा रही है... कई लड़कियों ने रास्ते में वालिदैन के ख़ौफ़ से ख़ुदकुशी कर ली, बा’ज़ सदमों की ताब न ला कर पागल हो चुकी थीं, कुछ ऐसी भी थीं जिनको शराब की लत पड़ चुकी थी, उनको प्यास लगती तो पानी के बजाए शराब मांगतीं और नंगी नंगी गालियां बकतीं।

मैं उन बरामद की हुई लड़कियों और औरतों के मुतअ’ल्लिक़ सोचता तो मेरे ज़ेहन में सिर्फ़ फूले हुए पेट उभरते... इन पेटों का क्या होगा? इनमें जो कुछ भरा है इसका मालिक कौन है? पाकिस्तान या हिंदोस्तान?

और वो नौ महीनों की बार-बर्दारी... उसकी उजरत पाकिस्तान अदा करेगा या हिंदोस्तान? क्या ये सब ज़ालिम फ़ित्रत ये बही खाते में दर्ज होगा...? मगर क्या इसमें कोई सफ़ा ख़ाली रह गया है?

बरआमदा औरतें आ रही थीं, बरआमदा औरतें जा रही थीं।

मैं सोचता था कि ये औरतें मग़्विया क्यूँ कहलाई जाती थीं? इन्हें इग़वा कब किया गया है? इग़वा तो एक बड़ा रोमांटिक फे़’ल है जिसमें मर्द और औरतें दोनों शरीक होते हैं। ये तो एक ऐसी खाई है जिसको फांदने से पहले दोनों रूहों के सारे तार झनझना उठते हैं, लेकिन ये इग़वा कैसा है कि एक निहत्ती को पकड़ कर कोठरी में क़ैद कर लिया।

लेकिन वो ज़माना ऐसा था कि मंतिक़, इस्तिदलाल और फ़लसफ़ा बेकार चीज़ें थीं... उन दिनों जिस तरह गर्मियों में भी दरवाज़े और खिड़कियां बंद करते सोते थे उसी तरह मैंने भी, अपने दिल-ओ-दिमाग़ की भी सब खिड़कियां-दरवाज़े बंद कर दिए थे, हालाँकि उन्हें खुला रखने की ज़्यादा ज़रूरत उसी वक़्त थी, लेकिन मैं क्या करता, मुझे कुछ सूझता नहीं था।

बरआमदा औरतें आ रही थीं, बरआमदा औरतें जा रही थीं।

ये दरआमद और बरआमद जारी थी... तमाम ताजिराना ख़ुसूसियात के साथ!

और सहाफ़ी, अफ़साना निगार और शायर अपने क़लम उठाए शिकार में मसरूफ़ थे... लेकिन अफ़सानों और नज़्मों का एक सैलाब था जो उमड़ा चला आ रहा था। फिल्मों के क़दम उखड़ उखड़ जाते थे। इतने सैद थे कि सब बौखला गए थे।

एक लियाज़ाँ अफ़सर मुझसे मिला, कहने लगा, “तुम क्यों गुमसुम रहते हो?”

मैंने कोई जवाब नहीं दिया।

उसने मुझे एक दास्तान सुनाई।

मग़्विया औरतों की तलाश में हम मारे मारे फिरते हैं। एक शहर, एक गांव से दूसरे गांव। फिर तीसरे गांव, फिर चौथे। गली गली, मुहल्ले मुहल्ले... कूचे कूचे... बड़ी मुश्किलों से गौहर-ए-मक़सूद हाथ आता है।

मैंने दिल में कहा, “कैसे गौहर... गौहर-ए-नासुफ्ता... यासुफ़्ता?”

“तुम्हें मालूम नहीं, हमें कितनी दिक्क़तों का सामना करना पड़ता है, मैं तुम्हें एक बात बतलाने वाला था... हम बॉर्डर के उस पार सैंकड़ों फेरे कर चुके हैं। अ’जीब बात है कि मैंने हर फेरे में एक मुसलमान बुढ़िया को देखा... अधेड़ उम्र की थी... पहली मर्तबा मैंने उसे जालंधर की बस्तियों में देखा, परेशान हाल... माऊफ़ दिमाग़, वीरान वीरान आँखें। गर्द-ओ-ग़ुबार से अटे हुए बाल, फटे हुए कपड़े, उसे तन का होश था न मन का। लेकिन उसकी निगाहों से ये साफ़ ज़ाहिर था कि किसी को ढूंढ रही हैं।

मुझे... बहन ने बताया कि ये औरत सदमे के बाइ’स पागल हो गई है। पटियाला की रहने वाली है। उसकी इकलौती लड़की थी जो उसे नहीं मिलती। हमने बहुत जतन किए हैं उसे ढ़ूढ़ने के लिए मगर नाकाम रहे हैं। ग़ालिबन बलवों में मारी गई है लेकिन ये बुढ़िया नहीं मानती।

दूसरी मर्तबा मैंने उस पगली को सहारनपुर के लारियों के अड्डे पर देखा, उसकी हालत पहले से कहीं ज़्यादा अबतर और ख़स्ता थी। उसके होंटों पर मोटी मोटी पपड़ियां जमी थीं, बाल साधुओं के से बने थे। मैंने उससे बातचीत की और चाहा कि वो अपनी मौहूम तलाश छोड़ दे। चुनांचे मैंने उससे बहुत संगदिल बन कर कहा, “माई तेरी लड़की क़त्ल कर दी गई थी।”

पगली ने मेरी तरफ़ देखा, “क़त्ल...? नहीं।”उसके बाद लहजे में फ़ौलादी तयक्कुन पैदा हो गया। “उसे कोई क़त्ल नहीं कर सकता... मेरी बेटी को कोई क़त्ल नहीं कर सकता।”

और वो चली गई, अपनी मौहूम तलाश में...

मैंने सोचा एक तलाश और फिर मौहूम!... लेकिन पगली को क्यों इतना यक़ीन था कि उसकी बेटी पर कोई कृपान नहीं उठ सकती। कोई तेज़ धार या छुरा उसकी गर्दन की तरफ़ नहीं बढ़ सकता। क्या वो अमर थी या उसकी ममता अमर थी... ममता तो ख़ैर अमर होती है। फिर क्या वो अपनी ममता ढूंढ रही थी... क्या उसने उसे कहीं खो दिया...?

तीसरे फेरे पर फिर मैंने उसे देखा। अब वो बिल्कुल चीथड़ों में थी, क़रीब क़रीब नंगी। मैंने उसे कपड़े दिए। लेकिन उसने क़ुबूल न किए। मैंने उस से कहा, “माई मैं सच कहता हूँ, तेरी लड़की पटियाला ही में क़त्ल कर दी गई थी।”

उसने फिर उसी फ़ौलादी तयक्कुन के साथ कहा, “तू झूट कहता है।”

मैंने उससे अपनी बात मनवाने की ख़ातिर कहा, “नहीं मैं सच कहता हूँ, काफ़ी रो पीट लिया है तुम ने... चलो मेरे साथ मैं तुमको पाकिस्तान ले चलूँगा।”

उसने मेरी बात न सुनी और बड़बड़ाने लगी। बड़बड़ाते बड़बड़ाते वो एक दम चौंकी। अब उसके लहजे में तयक्कुन फ़ौलाद से भी ज़्यादा ठोस था, “नहीं, मेरी बेटी को कोई क़त्ल नहीं कर सकता!”

मैंने पूछा, “क्यों?”

बुढ़िया ने होले-होले कहा, “वो ख़ूबसूरत है... इतनी ख़ूबसूरत कि उसे कोई क़त्ल नहीं कर सकता... उसे तमांचा तक नहीं मार सकता।”

मैं सोचने लगा, “क्या वाक़ई वो इतनी ख़ूबसूरत थी...? हर माँ की आँखों में उसकी औलाद चंदे-आफ़ताब-ओ-चंदे-माहताब होती है... लेकिन हो सकता है कि वो लड़की दर-हक़ीक़त ख़ूबसूरत हो... मगर इस तूफ़ान में कौन सी ख़ूबसूरती है जो इंसान के खुरदुरे हाथों से बची है। हो सकता है पगली इस ख़याल-ए-ख़ाम को धोका दे रही है। फ़रार के लाखों रास्ते हैं... दुख एक ऐसा चौक है जो अपने गिर्द लाखों बल्कि करोड़ों सड़कों का जाल बुन देता है।”

बॉर्डर के उस पार कई फेरे हुए... हर बार मैंने उस पगली को देखा। अब वो हड्डियों का ढांचा रह गई थी। बीनाई कमज़ोर हो चुकी थी, टटोल कर चलती थी, मगर उसकी तलाश जारी थी बड़ी शद-ओ-मद से। उसका यक़ीन उसी तरह मुस्तहकम था कि उसकी बेटी ज़िंदा है, इसलिए कि उसे कोई मार नहीं सकता।

बहन ने मुझसे कहा कि “उस औरत से मग़ज़ मारी फ़ुज़ूल है। उसका दिमाग़ चल चुका है, बेहतर यही है कि तुम उसे पाकिस्तान ले जाओ और पागलख़ाने में दाख़िल करा दो।”

मैंने मुनासिब न समझा कि मैं उसकी मौहूम तलाश जो उसकी ज़िंदगी का वाहिद सहारा थी, मैं उस से छीनना नहीं चाहता था। मैं उसे एक वसीअ-ओ-अ’रीज़ पागलखाने से, जिसमें वो मीलों की मसाफ़त तय करके, अपने पांव के आबलों की प्यास बुझा सकती थी, उठा कर एक मुख़्तसर सी चार दीवारी में क़ैद कराना नहीं चाहता था।

आख़िरी बार मैंने उसे अमृतसर में देखा। उसकी शिकस्ता हाली का ये आलम था कि मेरी आँखों में आँसू आ गए। मैंने फ़ैसला कर लिया कि मैं उसे पाकिस्तान ले जाऊंगा और पागलखाने में दाख़िल क़रा दूँगा।

वो फ़रीद के चौक में खड़ी अपनी नीम अंधी आँखों से इधर उधर देख रही थी। चौक में काफ़ी चहल पहल थी... मैं बहन के साथ एक दुकान पर बैठा एक मग़्विया लड़की के मुतअ’ल्लिक़ बातचीत कर रहा था, जिसके मुतअ’ल्लिक़ हमें ये इत्तिला मिली थी कि वो बाज़ार-ए-सबूनियाँ में एक हिंदू बनिए के घर मौजूद है। ये गुफ़्तुगू ख़त्म हुई तो मैं उठा कि उस पगली से झूट-सच कह कर उसे पाकिस्तान जाने के लिए आमादा करूँ कि एक जोड़ा उधर से गुज़रा... औरत ने घूंघट काढ़ा हुआ था... छोटा सा घूंघट। उसके साथ एक सिख नौजवान था। बड़ा छैल छबीला, बड़ा तंदुरुस्त और तीखे तीखे नक़्शों वाला।

जब ये दोनों उस पगली के पास से गुज़रे तो नौजवान एक दम ठिटक... दो क़दम पीछे हट कर औरत का हाथ पकड़ लिया, कुछ इस अचानक तौर पर कि लड़की ने अपना छोटा सा घूंघट उठाया। लट्ठे की धुली हुई सफ़ेद चादर के चौखटे में मुझे एक ऐसा गुलाबी चेहरा नज़र आया जिसका हुस्न बयान करने से मेरी ज़बान आ’जिज़ है।

मैं उनके बिल्कुल पास था, सिख नौजवान ने उस हुस्न-ओ-जमाल की देवी से उस पगली की तरफ़ इशारा करते हुए सरगोशी में कहा, “तुम्हारी माँ!”

लड़की ने एक लहज़े के लिए पगली की तरफ़ देखा और घूंघट छोड़ लिया और सिख नौजवान का बाज़ू पकड़ कर भींचे हुए लहजे में कहा, “चलो!”

और वो दोनों सड़क से उधर ज़रा हट कर तेज़ी से आगे निकल गए... पगली चिल्लाई, “भाग भरी... भाग भरी।”

वो सख़्त मुज़्तरिब थी... मैंने पास जा कर पूछा, “क्या बात है माई?”

वो काँप रही थी, “मैंने उसको देखा है... मैंने उसको देखा है।”

मैंने पूछा, “किसे?”

उसके माथे के नीचे दो गढ़ों में उसकी आँखों के बेनूर ढेले मुतहर्रिक थे, “अपनी बेटी को, भाग भरी को!”

मैंने फिर से कहा, “वो मर खप चुकी है माई।”

उसने चीख़ कर कहा, “तुम झूट कहते हो!”

मैंने इस मर्तबा उसको पूरा यक़ीन दिलाने की ख़ातिर कहा, “मैं ख़ुदा की क़सम खा कर कहता हूँ, वो मर चुकी है।”

ये सुनते ही वो पगली चौक में ढेर हो गई।
 

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रचनाएँ
सआदत हसन मंटो की बदनाम कहानियाँ
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सआदत हसन मंटो की बदनाम कहानियाँ है कि मंटो की यथार्थ और घनीभूत पीड़ा के ताने-बानो से बुनी गयी हैं। 'बू', 'खुदा की कसम', 'बांझा' काली सलवार, समेत कई ढ़ेर सारी कहानियां हैं। इनमें कई कहानियां विवादित रही। 'बू' ने तो उन्हें अदालत तक घसीट लिया था।
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शफ़क़त दोपहर को दफ़्तर से आया तो घर में मेहमान आए हुए थे। औरतें थीं जो बड़े कमरे में बैठी थीं। शफ़क़त की बीवी आईशा उन की मेहमान नवाज़ी में मसरूफ़ थी। जब शफ़क़त सहन में दाख़िल हुआ तो उस की बीवी बाहर निकली

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मियां साहब! बहुत देर के बाद आज मिल बैठने का इत्तिफ़ाक़ हुआ है। बेगम साहिबा! जी हाँ! मियां साहब! मस्रूफ़ियतें... बहुत पीछे हटता हूँ मगर नाअह्ल लोगों का ख़याल करके क़ौम की पेश की हुई ज़िम्मेदारिय

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बावर्चीख़ाना की मटमैली फ़िज़ा में बिजली का अंधा सा बल्ब कमज़ोर रोशनी फैला रहा था। स्टोव पर पानी से भरी हुई केतली धरी थी। पानी का खोलाओ और स्टोव के हलक़ से निकलते हुए शोले मिल जुल कर मुसलसल शोर बरपा कररह

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बासित बिल्कुल रज़ामंद नहीं था, लेकिन माँ के सामने उसकी कोई पेश न चली। अव्वल अव्वल तो उसको इतनी जल्दी शादी करने की कोई ख़्वाहिश नहीं थी, इसके अलावा वो लड़की भी उसे पसंद नहीं थी जिससे उसकी माँ उसकी शादी

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एक का नाम मिसेज़ रिचमेन और दूसरी का नाम मिसेज़ सतलफ़ था। एक बेवा थी तो दूसरी दो शौहरों को तलाक़ दे चुकी थी। तीसरी का नाम मिस बेकन था। वो अभी नाकतख़दा थी। उन तीनों की उम्र चालीस के लगभग थी। और ज़िंदगी क

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मेरा क़ियाम “बटोत” में गो मुख़्तसर था। लेकिन गूनागूं रुहानी मसर्रतों से पुर। मैंने उसकी सेहत अफ़्ज़ा मुक़ाम में जितने दिन गुज़ारे हैं उनके हर लम्हे की याद मेरे ज़ेहन का एक जुज़्व बन के रह गई है जो भुलाये

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क़ुदरत का उसूल

20 अप्रैल 2022
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क़ुदरत का ये उसूल है कि जिस चीज़ की मांग न रहे, वो ख़ुद-बख़ुद या तो रफ़्ता रफ़्ता बिलकुल नाबूद हो जाती है, या बहुत कमयाब अगर आप थोड़ी देर के लिए सोचें तो आप को मालूम हो जाएगा कि यहां से कितनी अजनास ग़ाय

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ख़त और उसका जवाब

20 अप्रैल 2022
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मंटो भाई ! तस्लीमात! मेरा नाम आप के लिए बिलकुल नया होगा। मैं कोई बहुत बड़ी अदीबा नहीं हूँ। बस कभी कभार अफ़साना लिख लेती हूँ और पढ़ कर फाड़ फेंकती हूँ। लेकिन अच्छे अदब को समझने की कोशिश ज़रूर करती हूँ

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ख़ुदा की क़सम

20 अप्रैल 2022
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उधर से मुसलमान और इधर से हिंदू अभी तक आ जा रहे थे। कैम्पों के कैंप भरे पड़े थे। जिनमें ज़रब-उल-मिस्ल के मुताबिक़ तिल धरने के लिए वाक़ई कोई जगह नहीं थी। लेकिन इसके बावजूद उनमें ठूंसे जा रहे थे। ग़ल्ला न

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ख़ुशबू-दार तेल

20 अप्रैल 2022
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“आप का मिज़ाज अब कैसा है?” “ये तुम क्यों पूछ रही हो अच्छा भला हूँ मुझे क्या तकलीफ़ थी ” “तकलीफ़ तो आप को कभी नहीं हुई एक फ़क़त मैं हूँ जिस के साथ कोई न कोई तकलीफ़ या आरिज़ा चिमटा रहता है ” “य

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मम्मी

20 अप्रैल 2022
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नाम उसका मिसेज़ स्टेला जैक्सन था मगर सब उसे मम्मी कहते थे। दरम्याने क़द की अधेड़ उम्र की औरत थी। उसका ख़ाविंद जैक्सन पिछली से पिछली जंग-ए-अ’ज़ीम में मारा गया था, उसकी पेंशन स्टेला को क़रीब क़रीब दस बरस से

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इश्क़-ए-हक़ीक़ी

20 अप्रैल 2022
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इ’श्क़-ओ-मोहब्बत के बारे में अख़लाक़ का नज़रिया वही था जो अक्सर आ’शिकों और मोहब्बत करने वालों का होता है। वो रांझे पीर का चेला था। इ’श्क़ में मर जाना उसके नज़दीक एक अज़ीमुश्शान मौत मरना था। अख़लाक़ तीस

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यज़ीद

20 अप्रैल 2022
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सन सैंतालीस के हंगामे आए और गुज़र गए। बिल्कुल उसी तरह जिस मौसम में ख़िलाफ़-ए-मा’मूल चंद दिन ख़राब आएं और चले जाएं। ये नहीं कि करीम दाद, मौला की मर्ज़ी समझ कर ख़ामोश बैठा रहा। उसने उस तूफ़ान का मर्दाना

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उल्लू का पट्ठा

20 अप्रैल 2022
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क़ासिम सुबह सात बजे लिहाफ़ से बाहर निकला और ग़ुसलख़ाने की तरफ चला। रास्ते में, ये इसको ठीक तौर पर मालूम नहीं, सोने वाले कमरे में, सहन में या ग़ुसलख़ाने के अंदर उसके दिल में ये ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो किसी

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अब और कहने की ज़रुरत नहीं

20 अप्रैल 2022
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ये दुनिया भी अ’जीब-ओ-ग़रीब है... ख़ासकर आज का ज़माना। क़ानून को जिस तरह फ़रेब दिया जाता है, इसके मुतअ’ल्लिक़ शायद आपको ज़्यादा इल्म न हो। आजकल क़ानून एक बेमा’नी चीज़ बन कर रह गया है । इधर कोई नया क़ानून बनता

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नया क़ानून

20 अप्रैल 2022
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मंगू कोचवान अपने अड्डे में बहुत अक़लमंद आदमी समझा जाता था। गो उसकी तालीमी हैसियत सिफ़र के बराबर थी और उसने कभी स्कूल का मुँह भी नहीं देखा था लेकिन इसके बावजूद उसे दुनिया भर की चीज़ों का इल्म था। अड्ड

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