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कोरोना से मिली सीख

28 अप्रैल 2020

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कोरोना, एक ऐसी बीमारी जो मात्र छूने से फैल रही है, जिसने पूरे विश्व को हिला कर रख दिया है । विश्व में कई देश इस महामारी के चलते लॉक डाउन हैं। इसके कारण पूरे विश्व की आर्थिक व्यवस्था चरमरा गई है। दुनियाभर में लाखों लोग इस बीमारी के शिकार हो गए हैं। आज हर किसी की नजर इससे पीड़ित लोगों के आंकड़ों पर है, हर कोई इससे हो रही तबाही और आर्थिक नुकसान की गणना करने में लगा हुआ है। परंतु बहुत कम ऐसे लोग हैं जिनका ध्यान इस लॉक डाउन के कारण प्रकृति में आए बदलाव पर गया है। लॉक डाउन के मात्र एक महीने के अंदर प्रकृति में जो बदलाव देखने को मिले वो अकल्पनीय हैं। पंजाब के जालंधर से हिमाचल की पहाड़ियों का दिखना, नर्मदा नदी के जल का मानक 25 साल में सबसे उच्च स्तर पर आना, महानगरों में आसमान में असंख्य तारे नजर आना और इस प्रकार न जाने कितने ही उदाहरण हैं, जो इस बात की पुष्टि करते हैं कि अगर मनुष्य दखलअंदाजी नहीं करें तो प्रकृति स्वयं अपना संतुलन बनाकर रखने में सक्षम है। क्या हमें इस लॉक डाउन के समय में शांत मन से इन सब बातों पर विचार करने की जरूरत नहीं है? क्या हमने कभी इस बारे में ध्यान दिया कि पिछले कई वर्षों में, जाने अनजाने में, न जाने कितने जंगल और पेड़ नष्ट हो गए जिसके कारण असंख्य बेकसूर पशु, पक्षियों की जानें गई, जिनकी ना कोई गणना है ना ही कोई आंकड़े मौजूद हैं। मां प्रकृति के लिए तो वह सभी मूक बेसहारा पशु-पक्षी, वनस्पति भी उनकी संतान है, जिस प्रकार हम मनुष्य उनकी संतान है। प्रकृति पर उनका भी उतना ही अधिकार है जितना हमारा। आज जब इस बीमारी का प्रकोप इतना फैल चुका है, तब हम चुपचाप चूहे की तरह अपने बिलों में दुबक कर बैठे हैं कि कहीं हमें यह बीमारी ना हो जाए, हम किसी भी तरह से बच जाएं। क्या अब भी हमने समझने का प्रयास किया कि मां प्रकृति हमें क्या समझाना चाहती हैं? आज हम सब घरों में रहने के लिए मजबूर हैं, घरों में कैद हैं, क्योंकि मां प्रकृति चाहती है कि हम इस बात की गंभीरता को समझें कि हम मनुष्य स्वार्थ में लिप्त होकर प्रकृति को कितना नुकसान पहुंचा रहे हैं और अपना संतुलन बनाए रखने के लिए प्रकृति को ऐसा रूद्र रूप धारण करना पड़ा। हम इंसान अपनी इंसानियत को ही भूल बैठे हैं। हमने इस बात पर तो गौर किया कि कोरोना से कितनी मौतें हुई है पर क्या इस बात पर जरा सा भी गौर किया कि अपने स्वार्थ के लिए हमने असंख्य जीव जंतुओं की हत्या की है? कभी पेड़ों को काट कर तो कभी जंगलों को नष्ट कर, हमने न जाने कितने ही पशु पक्षियों से उनका घर छीन लिया। और तो और उन्हें मारकर खाने तक लग गए। न जाने कितने ही नदी, तालाब और समुद्रों को मैला कर दिया, उद्योग और कारखानों की गंदगी को ठिकाने लगाने के लिए, चाहे फिर उस पानी से कितने ही पशु पक्षियों की मौत हो, हमें क्या? वातावरण को दूषित किया प्रदूषण से। एक ही घर में न जाने कितने वाहन हैं, हर इंसान के अपने अलग-अलग, सबको अपनी सहूलियत चाहिए। पिता अपनी अलग गाड़ी में, बेटा अपनी अलग गाड़ी में, फिर चाहे वह एक ही जगह क्यों ना जा रहे हो। सोचिए एक घर की स्थिति ऐसी है तो कितने घर, कितनी गाड़ियां, कितना ट्रैफिक और कितना प्रदूषण। आज अनगिनत रोगों से इंसान मर रहे हैं, चर्म रोग कितने बढ़ गए हैं और कितनी ही नई-नई बीमारियां सामने आ रही है। एक नवजात शिशु जब जन्म लेता है तो उसके आसपास कैसी दूषित और जहरीली वायु उसे घेरे रखती है, ऐसे में क्या उसका विकास सही ढंग से हो पाएगा? पैदा होने से लेकर बड़े होने तक दूषित हवा में घुले हुए जहरीले पदार्थ उसकी श्वास नली से अंदर जा रहे हैं, क्या वो उसके मानसिक और शारीरिक विकास के लिए सही है? आजकल छोटे-छोटे बच्चों में भी बीमारियां तेजी से बढ़ती जा रही हैं। हृदयाघात, बीपी, शुगर, डायबिटीज, डिप्रेशन, यह सब तो आम होती जा रही है। यहां तक कि हम लोगों ने इन सबको जीवन के हिस्से के रूप में स्वीकार कर लिया है। यह कैसा विकास है मानव जीवन का? इतना सब कुछ होने के बाद भी हम रुकने को तैयार नहीं हैं। और रुके भी क्यों? हमने थोड़ी ठेका लिया है प्रकृति का.... हमें लगता है मैं अकेला क्या कर लूंगा / कर लूंगी? मेरे अकेले के करने से क्या होगा, सब माने तो बात है! सब थोड़ी करेंगे? ऐसी सोच ही हमें डुबाती जा रही है। आज हमें सोचने की जरूरत है कि हम कहां थे और कहां आ गए? सेहत की बात करें तो हमारे पूर्वज हमसे कहीं आगे थे। उनमें हमसे कहीं ज्यादा ताकत थी, वह हमसे ज्यादा स्वस्थ, तंदुरुस्त और निरोगी थे। पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसा क्या हो रहा है कि आने वाली पीढ़ी का जीवनकाल और स्वास्थ्य गिरता चला जा रहा है? पहले के लोग 100 साल जी जाया करते थे और अंतिम समय तक भी अपना काम खुद करते थे और आज हम 50 साल में भी उनके जितना करने में असमर्थ हैं.... ऐसा क्यों? क्या कभी गौर किया? क्योंकि जो खाना वह खाते थे वह शुद्ध होता था और जिस वायु में वह सांस लेते थे उसमें शुद्धता थी, जो जीवन वह जीते थे वह प्रकृति से जुड़ा हुआ था। सुबह सूर्योदय से पहले उठकर जल्दी काम पर जाना और समय पर घर आना, परिवार के साथ समय बिताना और सूर्यास्त से पहले खाना खाकर जल्दी ही सो जाना। उनको किसी घड़ी की जरूरत नहीं पड़ती थी क्योंकि वे प्रकृति की घड़ी के अनुसार चला करते थे। वे सिर्फ अपना और अपने परिवार का ही नहीं बल्कि अपने पड़ोसियों का, समाज का, गांव का, यहां तक कि अन्य पशु पक्षी और प्रकृति का भी पूरा ध्यान रखते थे। परंतु उसके विपरीत हमें सिर्फ खुद से मतलब रह गया है बाकी दुनिया जाए भाड़ में...... शायद इसीलिए अब हम धीरे-धीरे खुद उस भाड़ का हिस्सा बनते जा रहे हैं।

हम इंसान कब अपने कर्तव्यों को समझेंगे? यह प्रकृति हम सब का घर है, हम सब का फर्ज है इसके प्रति। जानवर तो आज भी प्रकृति के हिसाब से ही चल रहे हैं मगर हम इंसान, जिनके पास ज्यादा बुद्धि है और जिन्हें कर्तव्य दिया गया है इसकी देखभाल करने का वह उसको नष्ट करने में लगे हैं। क्या हम जानवरों से भी ज्यादा गए बीते हो गए हैं? आखिर कब जागेंगे हम? आज सरकार ने पॉलिथीन के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया है और न जाने कितने ही जागरूकता अभियान चलाए जा रहे हैं परंतु फिर भी हम धड़ल्ले से उसका इस्तेमाल कर रहे हैं, जिसे खाकर अनेकानेक जानवर मर रहे हैं, पर हमें क्या? और वैसे भी मेरे अकेले के बंद करने से क्या होगा? सरकारे बोले तो बोलती रहे हमें क्या? हमें समझना होगा कि यह सिर्फ सरकार की जिम्मेदारी नहीं *यह हम सबकी जिम्मेदारी है।* हमें अपने साथ साथ हमारे साथ रह रहे पशु पक्षी पेड़ पौधे और प्रकृति के सभी जीवो का ध्यान रखना होगा। मानव जीवन बहुत ही मुश्किल से मिलता है और इसके साथ हमें कई दायित्व भी मिलते हैं जिन्हें हमें समझना होगा। जब तक हम नहीं समझेंगे तब तक यह प्रकृति हमें सिखाने के लिए कुछ ना कुछ रास्ता ढूंढ लेगी। कभी बाढ़ के रूप में तो कभी सूखे के रूप में, कभी भूकंप के रूप में तो कभी सुनामी के रूप में। हमने हमेशा से ही मां प्रकृति को रुष्ट किया है तो हमारा यह फर्ज है कि हम अपनी गलतियों से सीखे और उन्हें मनाने की पूरी कोशिश करें। आओ आज हम सब मिलकर यह कसम खाएं कि हर एक इंसान, बच्चों से लेकर बड़ों तक, इन बातों पर पूरी तरह अमल करेगा और पूरी सद्भावना के साथ मां प्रकृति को पुनः विकसित करने में सहयोग करेगा। क्योंकि, आज एक कोरोना आया है, कल न जाने और कितनी ही बीमारियां आएंगी, अगर प्रकृति के साथ इस खिलवाड़ को रोका ना गया तो! क्या हम अपनी आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए यह बीमारियां छोड़कर जाना चाहते हैं? क्या हम यह सौगात देंगे हमारे आने वाली पीढ़ियों को? सोचिए! क्या यह सही है? अगर नहीं तो कदम बढ़ाइए और इस धरती को पुनः स्वर्ग बनाने में अपना सहयोग दीजिए। मां प्रकृति को हमने अनेक जख्म दिए हैं, अब बारी है उन पर मलहम लगाने की, क्षमा मांगने की और अपनी गलतियों को सुधारने की, ताकि उन्हें संतुलन में आने के लिए कोई रौद्र रूप धारण न करना पड़े।

पेड़ लगाकर, अपने गली मोहल्ले में रह रहे जानवरों को रोटी और पानी देकर, पक्षियों को दाना-पानी उपलब्ध करवा कर, प्रकृति से खुद को जोड़ने की कोशिश करें। पॉलीथिन का उपयोग बंद करें, जल और वायु प्रदूषण का ध्यान रखें और जिससे भी जो भी प्रयास संभव हो सके वह करें। जब हर व्यक्ति इन बातों पर गौर करेगा और सब अपने-अपने स्तर पर छोटे-छोटे प्रयास करेंगे तो निश्चित ही बड़ा बदलाव देखने को मिलेगा और प्रकृति का संतुलन बना रहेगा।

हमें इस कोरोना ने बहुत कुछ सिखाया है, आइए हम सब मिलकर धरती को पुनः स्वर्ग बनाएं।

*"कोरोना का रोना नहीं अपितु उससे मिली सीख को अपनाएं।*

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