ब्राह्मण विरोधी राजनीति जिसकी जड़ 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ज्योतिबा फुले के सत्यशोधक समाज के रूप में रखा गया था, और जिसका राजनीतिक स्वरूप 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में जस्टिस पार्टी के द्वारा रखा गया था, वह आंदोलन अपने उतरार्द्ध में मूल स्वरूप से ही भटक गया। ब्राह्मण विरोध राष्ट्र-विरोध में परिवर्तित हो गया और राष्ट्र विरोध, हिन्दू सभ्यता विरोधी स्वरूप अपना लिया। ई. वी. आर., बी. आर. अम्बेडकर, जस्टिस पार्टी उन व्यक्तित्वों और राजनीतिक दलों ने ब्राह्मण विरोधी आंदोलन की शुरूआत सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व व ब्रिटिश व्यवस्था में गैर ब्राह्मणों को प्रशासनिक व प्रतिनिधात्मक व्यवस्था में अधिक से अधिक क्षेत्र सुरक्षित करने की मांग के आधार पर किया था। ब्रिटिश शासन ने इनकी मांगों पर विचार भी किया और इन्हें वह अधिकार भी दिये। जस्टिस पार्टी का गठन जिस अनुपातिक प्रतिनिधित्व के नाम पर ब्राह्मण विरोध से शुरू हुआ था, वह मांग 1920 में ही ब्रिटिश व्यवस्था द्वारा मांग ली गई थी। मद्रास प्रांत के गवर्नर परिषद में जो तीन सदस्य चुने गये वो गैर ब्राह्मण जातिय के ही थे। प्रशासनिक व्यवस्था में भी उनके लिए जगह सुरक्षित कर दी गई और 1920 में जस्टिस पार्टी की सरकार भी मद्रास प्रांत में बनी थी। अम्बेडकर ने 1930-32 के रम्जे मैकडोनाल्ड के संप्रदायिक निर्णय’ में दलित ों के लिए पृथक निर्वाचन व्यवस्था के आधार पर ‘71 स्थान’सुरक्षित करवाया था। वे कांग्रेस और गांधी को ब्राह्मणवादी संस्था का पोषक समझते थे। दलितों के लिए पृथक निर्वाचन व्यवस्था सांप्रदायिक निर्णय की माँग से गांधी सहमत नहीं थे। उनका मानना था कि दलित हिन्दू समाज के अंग हैं, सामाजिक व आर्थिक स्थिति से उनकी स्थिति कमजोर है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वो हिन्दू नहीं हैं। गांधी, अंबेडकर और ब्रिटिश व्यवस्था की इस सोच का विरोध कर रहे थे। अंततः अंबेडकर और गांधी के बीच ‘पूना समझौता’के द्वारा ब्रिटिश साजिश को हिन्दू समाज को बाँटने की कोशिश को नाकाम कर दिया गया। कांग्रेस और गांधी ने दलित समाज को हिन्दू समाज से अलग नहीं होने की शर्त पर 71 की जगह 148 स्थानों पर दलितों के लिए निर्वाचन व्यवस्था में स्थान सुरक्षित करवाया (जेफरलोट, पृ. 101)। फिर भी यह ब्राह्मण विरोधी आंदोलन पेरियार और अम्बेडकर का राष्ट्र विरोधी आंदोलन क्यों हो गया; यह विचारणीय प्रश्न है। ब्रिटिश निष्ठा, पाकिस्तान प्रेम में कैसे परिवर्तित हो गयी ? यह भी विचारणीय प्रश्न है। यद्यपि अम्बेडकर अपने विचारों में बहुत स्पष्ट थे और उन्होंने गांधी को 1930 के दशक में अपना विरोध प्रकट करते हुए कहा था कि दलितों के लिए भारत में ऐसी कोई जगह नहीं है जो उसकी मातृभूमि है। अतः वह किसी भी राष्ट्रीय प्रेम पर आधारित विचारधारा का विरोध करते हैं। 1939 में मुम्बई प्रांत की विधान सभा में अपने विचारों को स्पष्ट करते हुए कहा था कि यदि मेरे व्यक्तिगत स्वार्थ व राष्ट्र के हित का प्रश्न उठता हो तो मैं हमेशा राष्ट्रहित को वरीयता प्रदान करूंगा। परन्तु मैं इस देश के नागरिकों के मन में कोई आशंका नहीं रहने देता कि यदि दलित समाज के हित व राष्ट्रहित के बीच यदि किसी एक हित को वरीयता देने की बात आएगी तो हम दलित हित के पक्षधर होंगे (जेफरलोट, पृ. 94)। यद्यपि यह बात फुले और अम्बेडकर के विचारों से स्पष्ट थी कि केम्ब्रिज इतिहासकारों की तरफ भारत को एक राष्ट्र नहीं मानते थे। जैसाकि अम्बेडकर स्वयं फुले की बातों का समर्थन करते हुए कहते हैं कि ‘लोगों’ का वह समूह जो हजारों जातियों में विभाजित है एक राष्ट्र कैसे हो सकता है (जेफरलोट, पृ. 94)। लेकिन यह भी आश्चर्यजनक है कि जिस दलित जाति की बात अम्बेडकर करते थे वह भी हजारों जातियों का समूह है और वह भी ऐसा समूह जो पूरे भारत में कहीं पिछड़ी जातियों में आता हैं तो कही दलित जातियों में। आदिवासी अपनी पृथक संस्कृति और पहचान बनाये रखने में विश्वास रखते हैं उत्तर और दक्षिण के दलितों की सोच, संस्कृति, भाषा व परम्पराएँ भी अलग-अलग हैं। इसके वाबजूद एक ‘दलितस्तान’ की मांग करना कहाँ तक उपयुक्त था, यह भी विचारणीय प्रश्न हैं। लेकिन उसका जवाब खुद अम्बेडकर द्वारा संवैधानिक सभा में बहस के समय में बहस दिया गया था जब उन्होंने कहा, “ मै जानता हूँ कि आज हम लोग सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक रूप से विभाजित समूह के रूप में हैं, एक ऐसे समूह के रूप में जो एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी के रूप में खड़े हैं। और एक प्रतिद्वंद्वी समूह का नेता मै स्वयं हूँ। लेकिन महाशय मैं आप सभी को यह स्पष्ट रूप से कहना चाहता हूँ कि आने वाला समय और परिस्थिति इस देश को एक होने से नहीं रोक सकता। विभिन्न जाती य व वर्ग के होने के बावजूद कुछ ऐसा है हमारे बीच जो हम सभी को एक करता है। मुझे कोई संशय नहीं है कि मुस्लिम लीग जो विभाजन के लिए आंदोलन कर रही है उसे एक दिन अहसास होगा कि विभाजित भारत से बेहतर एक संयुक्त भारत मुसलमानों को बेहतर भविष्य प्रदान कर सकता है (जफरलोट, पृ. 100)। रामास्वामी का ‘आत्मसम्मान’ आंदोलन का स्वरूप कालांतर में ‘राष्ट्र अपमान’ आंदोलन में कैसे परिवर्तित हो चुका, यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है ब्राह्मण विरोध या ब्राह्मणवादी व्यवस्था का विरोध वस्तुतः संसाधनों में हिस्सेदारी व राजनीतिक व सामाजिक क्षेत्रों में आधिपत्य की लड़ाई थी। जो जातिवादी व्यवस्था के विरोध व जातिगत भेदभाव के खिलाफ प्रारंभ हुई। बढ़ते-बढ़ते सामाजिक-प्रशासनिक व आर्थिक क्षेत्रों में भागीदारी तक आई। फिर जब राजनीतिक, स्वरूप ग्रहण किया तो व्यक्तिगत स्वार्थ और महत्त्वाकांक्षा ने उसे राष्ट्र विरोध, सभ्यता विरोध और नस्लवादी भेदभाव का स्वरूप प्रदान कर दिया। स्वतंत्र भारत में नस्लीय व जातीय आधार पर यदि किसी वर्ग के साथ खुलेआम भेदभाव किया गया, तो वह तमिलनाडु का ब्राह्मण वर्ग था, और किसी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल ने ऐसी बात की तो वह प्रमुख रूप से द्रविड़ मुनेत्र कड़गम पार्टी थी, जिसके एक धड़े का नेतृत्व आज स्वयं एक ब्राह्मण महिला कर रही है। स्वतंत्र भारत में तमिलनाडु प्रांत में ब्राह्मणों के साथ भेदभाव व नस्लीय टिप्पणी इस सीमा तक पहुँच गयी कि यह अल्पसंख्यक समूह अपने गांव छोड़कर दूसरे प्रांतों में पलायन कर गये या इसका एक भाग विदेशी जमीन पर अपने अस्तित्व की तलाश करने लगा। यह भी विचारणीय बिन्दु है कि जब राजनीतिक व सामाजिक ‘रूप से वहाँ ब्राह्मणों की कोई भूमिका नहीं रही, फिर भी वहाँ जातीय दंगे व समस्या क्यों बनी हुई हैं। 40 से अधिक वर्षों से वहाँ गैर ब्राह्मणों की पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम शासन कर रही है। फिर भी न तो वहाँ के लोगों की धार्मिक आस्था समाप्त हु्ई न ही वहाँ जातीय समस्या। आज वहाँ समस्या है तो दलितों व पिछड़े वर्ग के बीच सत्ता संघर्ष की समस्या है तो अपने परिवार के बीच सत्ता संघर्ष की जिस की नींव ब्राह्मण हत्या की घोषणा के साथ हुई थी उसी दल के अध्यक्ष के घर भाई हत्या की धोषणा की जा रही है। कश्मीर हो या तमिलनाडु, स्वतंत्र भारत में जातीय आधार पर किसी वर्ग के साथ यदि भेदभाव हुआ है तो वह ब्राह्मण वर्ग रहा है। इन भेदभाव के पीछे यदि कोई तर्क है तो वह है भारतीय राज्य का लचीलापन।