मन को कुछ विस्तार दिया है l
विजयी को ही हार दिया है ll
संबंधों के सच्चे किस्से, सबने बहुत सुनाये हैं l
फिर भी जाने क्यों दुनिया में अपने लगें पराये हैं ll
अनुमानित खुशियों में हमने, वैरी जन भी देखे हैं l
कच्चा-चिट्ठा लिखते हैं, पर छिपे हुए भी लेखे हैं ll
विवश ह्रदय स्वीकार दिया है l
मन को कुछ विस्तार दिया है ll
आँख देखती वाह्य आवरण, अंदर बहुत अंधेरा है l
सबके साथ अकेले रहकर, अनुबंधों का डेरा है ll
सत्य धर्म के पालन में, हम कितने सत्य मिटाते हैं l
दिखा नहीं पाए जो अब तक, उसको तुम्हें दिखाते हैं ll
धरती पर पतवार दिया है l
मन को कुछ विस्तार दिया है ll
रक्त सींचती धरती है जब, सूरज आग उगलता है l
पवन बहे किस ओर न जाने, कैसे दीपक जलता है?
आसमान में झुंड बनाकर, पक्षी तो उड़ जाते हैं l
एक अकेला चलता रहता, मार्ग कहीं मुड़ जाते हैं ll
पथ को ही व्यापार दिया है l
मन को कुछ विस्तार दिया है ll
लोग तुम्हारे कहने पर ही, अपना सब दे देते हैं l
उसके जो सब निकट पड़े थे, उसको भी ले लेते हैं ll
धर्म, कर्म की इस धरती पर, सबका मान कहाँ होगा l
कुछ रहस्य की बातें होंगी, अब सम्मान कहाँ होगा ll
तुमको तो अवतार दिया है l
मन को कुछ विस्तार दिया है ll
✍️ स्वरचित
अजय श्रीवास्तव 'विकल'