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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🐍🏹 *लक्ष्मण* 🏹🐍
🌹 *भाग - १७* 🌹
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*➖➖➖ गतांक से आगे ➖➖➖*
गंगा के किनारे निषादराज गुह से वार्ता के क्रम में कर्म की व्याख्या करते हुए *लक्ष्मण जी* कहते हैं | हे निषादराज ! कर्मों का बंधन बहुत ही दृढ़ होता है इससे वही बच पाता ही जिसने अपने मन पर नियंत्रण कर लिया है , क्योंकि मनुष्य का मन की बंधन एवं मोक्ष का कारण कहा गया है | गीता में भगवान श्री कृष्ण जी ने भी यही बताया है :-- *"मन: एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयो:"* हे निषादराज ! जो मनुष्य :--
*सत्य धर्म के जो पथिक शान्त हृदय हो जिनका ,*
*बाहरी आडंबरों पर चित्त ना लगाते हैं प!*
*प्रलय अरु उत्पत्ति जिसने जीवन में जान लिया ,*
*मन वाणी कर्म से जो अहिंसक बन जाते हैं !!*
*प्रिय अरु अप्रिय में जो किंचित न भेद करें ,*
*बनके दयालु जो जीवन बिताते हैं !*
*ऐसे जितेंद्रीय तत्वज्ञ पुण्यात्मा को ,*
*"अर्जुन" कर्म बंधन भी बांध नहीं पाते हैं !!*
*लक्ष्मण जी* कहते हैं | भैया ! जो सत्य धर्म परायण हैं , जिनके चित्त में कोई उद्वेग नहीं है , जो बाहरी बनावट से स्वयं को दूर रखते हैं , जिसने उत्पत्ति एवं प्रलय के मर्म को जानकर किसी के प्रति मन वाणी और कर्म से भी अहिंसा अपना ली हो , जो प्रिय एवं अप्रिय के भेद को न मानता हो , जो दयालु बनकर सदैव परोपकार में रत हो , ऐसे जितेंद्रिय , तत्वज्ञ एवं पुण्यात्मा को कर्मबंधन नहीं बांध पाते | *लक्ष्मण जी* ने कहा | हे भाई ! किसी ने किसी को सुख या दुख दिया यह मात्र एक भ्रम है | निषादराज ने कहा *लक्ष्मण जी* यह तो प्रत्यक्ष है | इसमें भ्रम क्या है ? यह तो स्पष्ट दिखाई पड़ता है कि किसके कारण हमें दुख मिला और किसके कारण हमें सुख | तो भ्रम कहां हैं ? *लक्ष्मण जी* कहते हैं कि हे निषादराज ! मैं बता रहा हूं कि यह भ्रम कैसे हैं | *लक्ष्मण जी* ने कहा | भाई ! सुख एवं दुख तो सपने में भी होता है तो क्या जो हम सपने में देखते हैं वह सत्य होता है ? सत्य नहीं होता है बल्कि मात्र हमको प्रतीत होता है | जिस प्रकार सपने सत्य नहीं होती उसी प्रकार ये संसार भी सत्य नहीं है | हमारे शास्त्रों में कहा है :- *"ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या"*
*लक्ष्मण जी* कहते हैं :--
*मोहनिसा सब सोवनिहारा !* *देखिअ सपन अनेक प्रकारा !!*
*एहि जग जागहिं जामिनि जोगी !*
*परमारथी प्रपंच वियोगी !!*
हे निषादराज ! सभी लोग मोह रूपी रात्रि में सोते हुए अनेकों प्रकार के सपने देख रहे हैं |\इस मोह रूपी रात्रि में योगी जन ही जागरण कर पाते हैं | योगी कौन है ? इसको बताते हुए *लक्ष्मण जी* कहते हैं कि है भैया ! योगी उसे ही माना जाना चाहिए जिसे संपूर्ण भोग विलास से वैराग्य हो गया हो | *लक्ष्मण जी* कहते हैं कि मुख्यत: इस संसार में दो प्रकार की अनुभूति होती है सुखात्मक एवं दुखात्मक | उसका कारण होती है परिस्थिति , और किसी भी परिस्थिति का कारण होता है हमारा कर्म , यह कर्म होता है कर्ता भाव से | मनुष्य स्वयं को कर्ता मान लेता है | मनुष्य के भीतर स्वयं के लिए दो प्रकार की भावनाएं होती हैं | भोक्तृत्व एवं कतृत्व , अर्थात भोक्ताभाव एवं कर्ताभाव | जब मनुष्य अपनी बुद्धि ( ज्ञानेंद्रिय ) से तादात्म्य करता है तब भोक्ताभाव उत्पन्न होता है और कर्मेन्द्रियों से कर्म जब होता है तो कर्ताभाव की अनुभूति होती है |भोक्ताभाव में ही इच्छा प्रकट होती है , यही इच्छा मनुष्य को कर्म करने की प्रेरणा देती है | मनुष्य की यही इच्छा हीी समस्या का मूल कारण है | भोक्ता भाव से इच्छा , इच्छा से कर्म एवं कर्म से कर्मफल बनता है और वही परिस्थित बनकर मनुष्य के समस्त सुख दुख देने के लिए उपस्थित होता है |
*लक्ष्मण जी* कहते हैं निषादराज ! यह भोक्ता भाव है तो बहुत प्रबल परंतु मिथ्या ही है | मनुष्य भोक्ता भाव को ही अपना स्वरूप मान लेता है जबकि वह स्वरूप नहीं होता है | स्वरूप क्या है :-- *"अहेयम् अनुपादेयम् यत् तत् स्वरूपम्""* अर्थात जिस चीज को बाहर से न लाया गया हो जो आप छोड़ ना सकें " वहीं स्वरूप है | इस प्रकार तो कर्ताभाव ही मनुष्य का स्वरुप कहे जाने के योग्य है | इसलिए हे निषादराज ! किसी को किसी के सुख एवं दुख का कारण मान लेने का कारण यही है कि मनुष्य अपने स्वरूप को न जानकर मोह की राशि में फंसा हुआ है | *लक्ष्मण जी* कहते हैं हे निषादराज ! यह जो कर्म का मर्म हमने आपसे बतलाया है यह सब साधारण मनुष्यों के लिए ही है यह नियम श्रीराम के ऊपर नहीं लगता क्योंकि :--
*राम ब्रह्म परमारथ रूपा !*
*अविगत अलख अनादि अनूपा !*
*सकल विकार रहित गतभेदा !*
*कहि नित नेति निरूपहिं वेदा !!*
हे निषादराज ! श्री राम की महिमा बड़ी अपरम्पार है , श्री राम एवं माता जानकी इन कर्म बंधनों से परे परब्रह्म परमात्मा है | इनका अवतार तो विशेष उद्देश्य अर्थात भूमि , भक्त , ब्राम्हण , गौ एवं संतों का संताप हरण करने के लिए ही होता है | यह जो तुम देख रहे हो यह तो प्रभु की लीला है ,प्रभु की कोई भी लीला उन्हें सुख या दुख नहीं प्रदान कर सकती | इसलिए हे निषादराज ! तुम्हें विषाद एवं सन्ताप नहीं करना चाहिए , क्योंकि यह विषय हम सांसारिक जीवो के लिए है | प्रभु की इन लीलाओं को देखकर हमें शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए , अपने किए हुए कर्मों को अपना न मानते हुए प्रभु चरणों में ही समर्पित कर देना चाहिए | हे निषादराज ! इस प्रकार हमें कभी किसी दूसरे को अपने सुख एवं दुख का कारण नहीं मानना चाहिए |
निषादराज ने कर्मयोगी *लक्ष्मण जी* के चरणों में प्रणाम करके कहा | *भैया लक्ष्मण* आप धन्य हैं ! आपके मुखारविंद से कर्मयोग की यह अद्भुत शिक्षा पाकर आज मैं भी धन्य हो गया | इस प्रकार वार्ता करते हुए वह ज्ञानमयी रात्रि व्यतीत हो गई |
*!! इति लक्ष्मण गीता !!*
*शेष अगले भाग में:----*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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