अमितेश कुमार ओझा
समाज की यह बड़ी विडंबना है कि हर दौर में पुरानी पीढ़ी को नई पीढ़ी अधिक
स्वतंत्र व गैर - जिम्मेदार लगती है। हम अक्सर बुजुर्गों से सुनते
हैं... भैया ... आजकल के ये लड़के...। इनकी तो न ही पूछो तो ठीक....
लेकिन सवाल उठता है कि क्या पुरानी पीढ़ी की नई पीढ़ी के प्रति यह सोच
उचित है। बेशक आज की नई पीढ़ी कंप्यूटर व इंटरनेट की सुविधा से लैस है।
जो मनुष्य के लिए किसी वरदान से कम नहीं। नई पीढ़ी में अपने भविष्य व
करियर को ले अधिक जागरुकता देखी जा रही है। यह किसी भी मायने में गलत
नहीं कही जा सकती है। सच यही है कि कोरी भावुकता की जगह व्यावहारिक
दृष्टिकोण अपना कर ही नई पीढ़ी अपना लक्ष्य हासिल कर सकती है। आज अच्छे –
खासे कमाते – खाते नौजवान को परिवार की ओर से शादी का प्रस्ताव आने पर यह
कहते हुए इन्कार करते सुना जाता है कि ... अभी मैं कम से कम दो साल
शादी नहीं करना चाहता... प्लीज मुझे परेशान न करो...। लेकिन बमुश्किल दो
दशक पहले तक किसी नौजवान से इस जवाब की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।
खेल ने – खाने की उम्र में शादी और जिम्मेदारियों की चक्की में पिसने
वालों में मैने अपने माता – पिता को भी शामिल पाया है। कोई बड़े आराम से
कह सकता है कि इसमें कौन सी बड़ी बात है। लेकिन अपने माता – पिता की
तकलीफों और उनके अंतहीन संघर्षों का साक्षी रहने से मैं कह सकता हूं कि
यह विडंबना किसी त्रासदी से कम नहीं। बेशक आज की पीढ़ी न कहना सीख गई है।
इसमें किसी को गलत लगता है तो यह उसकी प्राब्लम है। लेकिन सच पूछा जाए तो
नई पीढ़ी से न नहीं सुन पाने की बीमारी के चलते पुराने दौर में युवाओं के
बेशुमार सपनों को कुचला गया है। इस मायने में नई पीढ़ी भाग्यशाली कही जा
सकती है क्योंकि अब साधारण परिवार के अभिभावक भी युवाओं की भावनाओं को
समझने का प्रयत्न करते हैं। पहली की तरह उन पर अपनी मर्जी नहीं थोपना
चाहते। इस लिहाज से देखें तो युवा पीढ़ी पहले के बनिस्बत अधिक परिपक्व
कही जा सकती है। आज यह देख कर सुखद आश्चर्य होता है कि अनेक बांग्लाभाषी
युवाओं के रिंग व कॉलर टयून में हिंदी गाने बजते हैं तो हिंदी भाषी
युवाओं के मोबाइल में बांग्ला गाने। यह बदलते दौर की नई पीढ़ी है। जो हर
अच्छाई को आत्मसात करने के लिए तैयार है। राष्ट्रीय व सामाजिक
जिम्मेदारियों के प्रति भी आज के नौजवान कहीं अधिक सजग है। बस तरीका
थोड़ा सा बदल गया है। कुछ दिन पहले एक नर्सिंग होम में आंखों – देखी का
अनुभव कर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ। दरअसल उस अस्पताल में एक महिला अपने
अबोध बेटे को सीने से चिपकाए सुबक रही थी। बाइक पर बैठने जा रहे एक
नौजवान ने इसकी वजह जानने चाही। बताया गया कि उस महिला के पास बेटे की
दवा खरीदने के लिए पैसे नहीं है। उस युवक ने झट उसके हाथ से डाक्टर की
प्रेसकीप्शन ले ली औऱ वहीं दवा खरीद कर उसे थमा दिया। साथ ही अपना
विजिटिंग कार्ड भी दिया कि और कोई सहायता चाहिए तो निसंकोच संपर्क करे।
इतना कह कर वह अपनी बाइक पर सवार होकर चुपचाप वहां से चला गया। बगैर
किसी भावुकता व प्रदर्शन के उसने एक अबला नारी की मौन सहायता कर समाज को
एक बड़ा संदेश दिया। कोरी भावुकता को नौजवान पीढ़ी कतई बर्दाश्त नहीं
करती। आज के युवा के लिए भविष्य चुनने और शांतिपूर्ण जीवन जीने की आजादी
ही सर्वोपरि है।
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लेख क बी.काम प्रथम वर्ष के छात्र हैं।