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लेख-- खेल के मैदानों से दूर होता बचपन

29 अगस्त 2017

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देश में तीव्र गति से बच्चों का झुकाव आक्रमक रवैये और अन्य असामाजिक कार्यों में लग रहा है। जिसका अहम कारण बच्चों की खेल ों के प्रति बढ़ती दूरी भी है। आज के समाज में बच्चा जहां घर में माता-पिता की भाग-दौड़ भरी जिंदगी में अकेलेपन का एहसास करता है, वहीं खेलों से बढ़ती दूरी उसके मानसिकता के विकास को भी अवरुद्ध कर रहीं है। जीवन में पढ़ाई के साथ खेल कूद दोनों का महत्व है, तभी नैतिक शिक्षा की किताबों में भी खेल के महत्व पर प्रकाश डाला जाता है। आज की गतिमान जिंदगी में न बच्चों के पास खुले मैदान में खेलने का वक़्त रहा है, और न ही इस प्रतियोगिता के युग में बच्चों को खेल के प्रति सज़ग बनाया जा रहा है। बच्चों को तो किताबों तले दबा दिया गया है। जिससे उनका बचपन तो प्रभावित हो ही रहा, उसके साथ भविष्य भी गर्त की ओर बढ़ जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मन की बात के कार्यक्रम में खेलों से दूर होती आधुनिक पीढ़ी को लेकर कहा कि, एक जमाना था जब मां बेटे से कहती थी कि बेटा खेलकर घर वापस कब आयोगे? अब वक़्त की नज़ाकत कहती है, कि मां अपने बेटे से कहती है कि बेटा खेलने के लिए घर से बाहर कब जाओगे। निश्चित ही बदलते तकनीकी दौर में आज की पीढ़ी का खेल के मैदानों के प्रति अरुचि और मोहभंग बढ़ता जा रहा है, जिस तरफ़ अब सुषुप्त अवस्था भरी निगाहों से देखना भविष्य के साथ खिलवाड़ से कम नहीं। इसको लेकर प्रधानसेवक की चिंता वाजिब और नज़ाक़त के मुताबिक सही है। जब से देश संचार- प्राद्योगिकी की चपेट में आया है, तकनीक ने मैदानों की शोभा छीन ली है। देश में बच्चों की सामाजिक उपादेयता शक्ति भी कमजोर हो रहीं है, क्योंकि जो सामाजिकता का पाठ बच्चें खेल-खेल में सीख लेते थे, आज कि नई पीढ़ी उससे वंचित हो चुकी है। आज मैदानों के खेल कंप्यूटर, मोबाइल, और लैपटॉप पर खेले जा रहें हैं। इन खेलों के खेलने से इन बच्चों का मानसिक विकास भले होता हो, लेकिन सामाजिक और नैतिकता का पाठ बच्चें नहीं सीख पाते। इसके अलावा आज जो खेल दिन-रात मोबाइल-फोन पर खेले जा रहें हैं, वह बच्चों में तमाम तरीके की बीमारियों को घर बनाते जा रहीं हैं। बच्चे इन खेलों में मशगूल इतने होते हैं, कि न तो उन्हें अपने खाने का ध्यान रहता है, और न ही पीने का। अधिक समय तक आधुनिक उपकरणों की चपेट में रहने के कारण अपनी जिंदगी की मूल्यवान आंखों की रोशनी को भी अंधेरे में बदलते प्रतीत होते हैं। इन आधुनिक खेलों की चपेट का ही नतीजा है, कि आज की स्थिति में बच्चों में चिड़चिड़ापन बढ़ रहा है, और बच्चे अवसाद ग्रस्त हो जाते हैं। फ़िर यही अकेलेपन और अवसादग्रस्त की स्थिति इन्हें समाज से अलग करती हैं, और बच्चे छोटी सी उम्र में ही खूंखार रूप समाज के सामने धारण करने लगते हैं। बच्चों का मैदान से दूर होने का कारण भी उनके पास से ही शुरू होता है, पहले बच्चा जब नासमझ होता है, घर में रोता है, तो आधुनिक भाग-दौड़ की जिंदगी के संरक्षक अपने पालय को मोबाइल थमा देते हैं।। धीरे-धीरे बच्चा उसी मोबाइल-फ़ोन का आदी हो चुका होता है। इसके इतर दूसरा कारण प्रतिस्पर्धा का बढ़ता दौर भी बच्चों के जीवन से मैदान को छीन रहा है। तभी तो अब पहले जो बड़े- बुजर्गों की उक्ति थी, वह बदल गई है, जिसका स्थान अब ले लिया है, खेलोगें कूदोगे, तो बनोगे खराब, पढ़ोगे- लिखोगे तो बनोंगे महान। इसके अलावा खेलों से बढ़ती दूरी का कारण मैदानों का घटता आकर भी है। अब बढ़ती आबादी ने बड़े-बड़े घरों का रूप धारण कर लिया है। जिसके कारण खेत-खलिहान भी कम हुए हैं। गांव में तो आज भी खुली जगह बच्चों को खेलने के मयस्सर हो जाती है, लेकिन शहरों की तंग गलियों में तो बच्चों के खेल-कूद के लायक कोई माहौल ही नहीं छोड़ा गया है। इसकेे अलावा समाज की भेड़-चाल ने भी बच्चों के हाथ में जिस उम्र में खिलौने होना चाहिए, उस उम्र में बस्ते का बोझ लदा दिया जाता है। जिससे उनका शारीरिक विकास तो अवरुद्ध होता ही है, मानसिक और सामाजिक विकास भी नहीं हो पाता। हमारे संस्कृति और सभ्यता सिखाती है, कि समाज बच्चों को नैतिकी का पाठ सिखाता है, लेकिन अब तो विकास की चाहत और अपने बच्चों की दूसरे बच्चों से तुलना ने बच्चों को किताबों के भीतर ही समेटकर रख दिया है, उस रवायत को हमारे समाज को त्यागना होगा। हमारे सभ्यता और संस्कृति में कितने उद्धरण हमें मिलते हैं, जो मात्र किताबी कीड़ा बनकर देश और समाज को ऊचाइयों के तख़्त पर नहीं पहुँचाया है। फ़िर आज भी आवाम को अपने बच्चों को खेल के प्रति भी सजग करना होगा। आज के हमारे परिवेश से और मासूमों की जद से हमारे बचपन के खेल गायब हो रहें हैं, क्योंकि हमारी उम्र भी ज्यादा नहीं है, फ़िर इतने कम समय मे अगर यह स्थिति है, फिर आने वाले वर्षों में डब्बा स्पाइस, लुका छिपी, लगंड़ी, कबड्डी, खो-खो आदि प्राचीन खेलों का तो इतिहास नहीं मिलेगा। आज एक ओर इन खेलों का अस्तित्व सिमट रहा है, वहीं ब्लू व्हेल जैसे खतरनाक खेल बच्चों की जिंदगी के साथ खेल खेल रहा है। ऐसे में अब वक़्त की नजाकत को देखते हुए हमारे परिवार, समाज और देश को अपनी पुरानी खेल परम्परा की ओर लौटना होगा, जिससे हमारे देश की संस्कृति और सभ्यता के परिचायक खेल भी बचें रहें, उसके साथ बच्चों में बढ़ती असामाजिक प्रवृत्ति को भी क़ाबू में किया जा। इसके साथ देश की एकता और भाईचारे को बनाए रखने के लिए भी खेल भावना का विकसित होना जरूरी है। खेल को खेल की भावना से ही खेला जाना चाहिए। पिछले दिनों क्रिकेट जो देश की रगों में बसता है। उसने यह साबित करने पर मजबूर कर दिया कि टीम के लिए कोच बड़ा है, या कप्तान। अगर थोड़ा धार्मिक और परंपारिक लहजे में विचार किया जाएं, तो हमारे देश में गुरू की भूमिका महती होती है, लेकिन बीते दिनों जिस तरीके की तकरार कप्तान और कोच में निकलकर आई। वह दुखद स्थिति पैदा करती है। हमारे देश की यह बिडंबना ही कही जा सकती है, कि अपने को सर्वोत्तम समझने की भूल सभी करते है। क्रिकेट के स्तर में आ रही गिरावट और दूर हो रही खेल भावना को देखकर यही समझ में आता है, कि देश की व्यवस्था को अन्य खेलों को भी प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए, जो कि आजादी के बाद से दृष्टिगत नहीं किए गए। ऐसा नहीं है, कि हमारे देश में मात्र क्रिकेट की प्रतिभा है, देश में किदांबी श्रीकांत, सानिया नेहवाल, विश्वनाथन आनन्द आदि अन्य खेलों की विराट शख्सियत भी है। जिन खेलों को देश में कभी भी सुहानी आंखों से नहीं देखा गया। जब बीते कुछ वर्षाें के बीच में क्रिकेट में फिक्सिंग और खेल भावना क्षीण हुई है, तो वही दूसरी ओर अन्य खेलों में खिलाडियों ने अभावों के बीच बुलंदियों को छूआ है। उसको देखते हुए देश में अन्य खेलों से जुड़ी प्रतिभाओं को निखारने के लिए प्रयास करना चाहिए। पैसे और एकाधिकार के कारण मात्र क्रिकेट पर बढ़ावा देना अन्य प्रतिभाओं के साथ खिलवाड़ है। भले ही देश में क्रिकेट का जलवा कयाम है, किन्तु बीते कुछ समय के भीतर बैडमिंटन और अन्य खेलों से संबंधित खिलाडियों के प्रदर्शन ने सिद्ध किया है, कि शायद अगर देश में अन्य खेलों की तरफ उदासीनता का माहौल पैदा न होता, तो देश में प्रतिभा की कमी नहीं है। हमारा देश अगर ओलंम्पिक में पदक तालिका में कभी शीर्ष स्थान पर नहीं आया, तो शायद इसका कारण लोकतांत्रिक व्यवस्था की बेरूखी ही उसका कारण रहीं, क्योंकि राजनीति क सांठ-गांठ क्रिकेट के माध्यम से ही धन उगाही में लगा हुआ है। अब देश के प्रधानमंत्री देश का नाम रोशन करने वाले अन्य खेलों के खिलाड़ियों का नाम सियासी मंचों पर भी लेने लगे है। इसके साथ कुछ महीने पहले मन की बात में किदांबी श्रीकांत की तारीफ भी की। अतः यही कहा जा सकता है, कि क्रिकेट की तरह अगर अन्य खेलों को देश में महत्व और आर्थिक सहायता अगर प्रदान की जाएं, तो अन्य खेल भी देश में पनप सकते है, और खिलाड़ी देश का भविष्य बन सकते है। जो रवायत लगता हैं, आने वाले दिनों में दिख सकती हैं। इसके साथ अगर सरकार अन्य खेलो को प्रोत्साहन दे, तो शायद लोगों में भी खेलों के प्रति सजगता का माहौल देखने को मिल जाए।

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