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टूटते - बिखरते रिश्ते

19 जून 2018

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आज कल के दौड के टूटते बिखरते रिश्तो को देख दिल बहुत वय्थित हो जाता है और सोचने पे मज़बूर हो जाता है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है?आखिर क्या थी पहले के रिश्तो की खुबिया और क्या है आज के टूटते बिखरते रिश्तो की वज़ह ? आज के इस व्यवसायिकता के दौड में रिश्ते नातो को भी लाभ हानि के तराज़ू में ही तोला जाने लगा है. ज़िंदगी छोटी होती जा रही है और ख्वाइशे बड़ी होती जा रही है. मैं ये नही कहूँगी कि मैं आप को रिश्तो को संभालना सिखाऊंगी,उसको निभाने की कोई टिप बताऊँगी .मैं ऐसा बिलकुल नहीं करुँगी क्युकि " रिश्ते" समझने का बिषय बस्तु नहीं है .रिश्तो को निभाने के लिए समझ से जयादा भावनाओ की जरुरत होती है. रिश्तो के प्रति आप का खूबसूरत एहसास ,आप की भावनाये ही आप को रिश्ते निभाना सिखाता है और आज के दौड में इंसान भावनाहीन ही तो होता जा रहा है. मैं तो बस वो रिश्तो के बिखरने की बजह ढूढ़ना चाहती हूँ .

एक शिशू जब माँ के गर्भ में पलता है तो वो सिर्फ माँ के शरीर के रक्तनलिकाओं और कोशिकाओं से ही नहीं जुड़ा होता ,वो तो अपनी माँ की भावनाओ से, उसके एहसास से भी जुड़ा होता है. जिस तरह माँ के शरीर के रोग-आरोग्य का शिशु के शरीर पर असर होता है उसी प्रकार माँ के भावनाओ का असर भी बच्चे की मानसिकता पर होता है. यही नहीं माँ जिस वातावरण में रहती है उस वातावरण का भी पूरा असर बच्चे की मानसिकता पर होता है. ये एक वैज्ञानिक सत्य है जिसे लगभग सब जानते है, समझते है, मानते भी है पर अपनाते नहीं है. मेरी समझ से गलती की शुरुआत यही से होती है. एक नन्हे से बीज को एक स्वस्थ फल देने वाला पेड़ बनाने के लिए एक अच्छी ज़मीन ,अच्छी आबो-हवा और अच्छा खाद-पानी देना होता है तब वो एक स्वस्थ फल देने वाला पेड़ बनता है. तो जब एक पौधे के लिए हमे इतना सब कुछ करना होता है तो फिर क्या मानव के भ्रूण को एक स्वस्थ शिशु और एक अच्छा इंसान बनाने के लिए हमे एक स्वस्थ शरीर जहाँ वो भ्रूण पले ,जब वो भ्रूण गर्भ में एक शिशु का आकर ले रहा हो तो उससे एक शुद्ध भावना के साथ बंधे रखने की ववस्था नहीं करनी चाहिए. जब वो शिशु जन्म लेता है तो हमे उसे एक खुशियों से भरा हुआ घरेलु वातावरण नहीं देना चाहिए.अगर हम ये सब उसे नहीं दे सकते तो फिर हम उस शिशु से कैसे उमींद रख सकते है कि वो एक अच्छा इंसान बनेगा. जब वो एक अच्छा इंसान नहीं बनेगा तो भावनाओ को क्या समझेगा और जब भावनाये ही नहीं समझेगा तो रिश्तो को क्या निभाएगा .

पुराने ज़माने में एक औरत जब गर्ववती होती थीं तो उसके खान-पान,रहन -सेहन पर पूरा ध्यान दिया जाता था.उसे अधाय्तम से भी जोड़े रखा जाता था. बच्चा जब जन्म लेता था तो उसे प्यार और सहोद्र से भरा वातावरण मिलता था.बच्चा दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-मामा, बुआ-मौसी जैसे रिश्तो से घिरा होता था.ये सारे रिश्ते उसे अलग-अलग भावनाओ से जोड़ते और अलग-अलग तरीको से उसे ज्ञान भी देते थे.दादा-दादी से प्यार दुलार पाते थे, अपनी फ़रमाइशे भी मनवाते थे और बड़ो का आदर - सम्मान करना सीखते थे. माँ-बाप से एक सुरक्छित देख-भल पाते थे और अनुशासन सीखते थे. चाचा-मामा उन्हें खेल-खिलोने देते थे और साझेदारी सिखाते थे. इस तरह ये सारे रिश्ते मिलकर उन्हें पालते और एक अच्छा इंसान बनाते थे. इस तरह शिशु को बचपन से ही अपने सारे रिश्तो का भान हो जाता था. उन्हें दादा-दादी का आदर करना भी आता था और लाड लगा कर अपनी फ़रमाइसे भी पूरी करवाना आता था. उन्हें ये एहसास होता था की माँ मेरे लिए कितना दर्द सह कर रात-रात भर जाग कर मेरी देखभाल करती है. बाप अपनी सारी इक्छाओ को अधूरा छोड़ मेरी हर ख़ुशी को पूरा करता है. ये एहसास ही उनके दिल में इन रिश्तो के प्रति वो भावनाये देता था जिनसे उसे रिश्तो को निभाने की प्रेरणा मिलती थी. उसे इन रिश्तो के प्रति अधिकार और कर्तव्य का भी बोध हो जाता था. वो अपने माँ-बाप को दादा-दादी की सेवा करते हुए देखते थे तो उन्हें भी अपने माँ बाप की सेवा करना अपना कर्तव्य लगता था .जिसे उस वक़्त पुण्य का काम समझा जाता था.

अब आते है आधुनिकता के युग में. आधुनिक युग में अगर सबसे ज्यादा परिवर्तन हुआ तो नारियो में हुआ ." नारी" जो हमेशा से एक सुसंस्कृत परिवार और एक सभ्भय समाज की नीव रही है. नारियो ने इस युग में अपने आप को सुशिकछित और स्वालम्बी बनाया है जो उनकी सब से बड़ी उपलब्थी है और प्रशंसा के काबिल भी है. नारियो ने अपना सम्मान तो पा लिया लेकिन अपनी सबसे बड़ी और कीमती धरोहर " संस्कार" को खोती चली गई .नारियो ने घर की दहलीज़ पार कर बाहर की दुनिया में अपने आप को स्थापित तो कर लिया परन्तु घर खाली करती चली गई.घर बाहर दोनों की दोहरी भूमिका निभाते निभाते वो एक भरे पुरे सयुक्त परिवार को खो बैठी.उनकी आज़ादी की चाह ने धीरे-धीरे प्यार और रिश्तो के हर बंधन को खोल दिया. इसका असर आने वाली पीढ़ियों पर कैसे पड़ा अब इस पर विचार करते है. आज़ादी की चाह ने सबसे पहले सयुक्त परिवार को एकल परिवार का रूप दिया.क्योकि जहाँ सास-ससुर रहेंगे वहाँ थोड़ा तो बंधन और अनुशासन में रहना ही पड़ेगा.देवर-जेठ जैसे रिश्ते होंगे तो थोड़ा कर्तव्य भी निभाना ही पड़ेगा. नए युग की नारियो ने अपने इस दोहरी जिम्मेदारी को निभाने की पूरी कोशिश की लेकिन उनकी सिर्फ एक लालसा " और आज़ादी" की चाह ने उन्हें ये जिम्मेदारी और रिश्तेदारी निभाने नहीं दिया और परिवार बिखरते चले गए. एकल परिवार में माँ के शरीर की सही देख-भाल न होने के कारण भूण को एक स्वस्थ शिशु बन कर विकशित होने के लिए एक निरोगी काया न मिली और अध्यत्मिकता वातावरण तो आज के समाज से बिलुपत ही हो गया है .इन कारणों से बच्चे को ना स्वस्थ शरीर मिला ना अच्छी मानसिकता. दादा-दादी का सांनिध्य ना मिलने के कारण बच्चो ने आदर सम्मान करना नहीं सीखा .बच्चो की फ़रमाइशे बेहिसाब होती है जो पहले के रिश्ते मिलकर पूरी करते थे जो अकेले माँ-बाप का पूरा करना मुश्किल था तो बच्चे जिद्दी हो गए. बच्चो के जिद्दी होने का एक कारण और भी था माँ-बाप अपने बच्चो के हर रिश्ते की कमी को स्वयं पूरा करना चाहते है और पूरा करते भी है. जिसका बुरा प्रभाव ये हुआ की बच्चे " ना" सुनना ही नहीं चाहते है और जिद्दी होते चले जा रहे है. परिवार में चाचा-मामा आदि रिश्ते नहीं होने के कारण बच्चो ने साझेदारी भी नहीं सीखा.एक बच्चे चलन बन जाने के कारण अपने से छोटो को प्यार करना भी उन्हें नहीं आया. इस अपने माँ- बाप को दादा-दादी की सेवा करते भी नहीं देखा तो उन्हें भी अपने माँ-बाप की परवाह नहीं रही. हम रिश्तो के प्रति उनके दिल में कोई भावना ही नहीं दे पाए तो फिर हम कैसे उमींद कर सकते है कि वो कोई रिश्ते निभाये .उनके लिए हर रिश्ता " give and take " बन कर रह गया,

ये तो थी आधुनिक युग की बाते,अब तो इंटरनेट युग है और इस ज़माने की लड़किया तो ये शर्त रखकर ही शादी करती है कि - " हमारे साथ आप के माता-पिता नहीं रहेंगे" मैंने पहले ही इस बात का उल्लेख किया है कि - " एक औरत ही सुसंस्क़ृत परिवार और सभ्य समाज की नीव होती ह".पुरुष की भागीदारी इसमें द्वितीय किरदार के रूप में होती है.औरत में ही कर्तव्यपराण्यता, प्यार, सेवा, संस्कार, और त्याग जैसी भावनाये होती है. भारत का इतिहास ऐसी नारियो की गाथाओ से भरा पड़ा है. मेरा हर नारी से निवेदन है कि वो अपने उत्थान और सम्मान के साथ-साथ अपने संस्कार को भी सजोये रखे .वो संस्कार जिसके कारण भारतवर्ष में नारियो को पूजा जाता है. वरना एक-एक करके हमारे जीवन से हर रिश्ता और उसके प्यार की मिठास खोती चली जाएगी और इसके कसुरवार सिर्फ हम होंगे आनेवाली पीढ़ी नहीं.


रेणु

रेणु

प्रिय कामिनी जी -- आपने बहुत ही ईमानदारी से भौतिकवाद से दरक रहे रिश्तों की कहानी लिख दी | हम लोग भाग्य शाली हैं कि हमने उस समय में आखें खोली जब रिश्तों का वही रूप था जिसका जिक्र अपने अपने लेख में किया है | आज मान्यताएं भी बदल गयी और लोग भी | कितना अच्छा हो लोग इन रिश्तों की एहमियत समझें | लड़कियों को समझना चाहिए कि आज वे किसी के माता पिता को साथ रखना नहीं चाहती जब वे कल इसी भूमिका में होंगी तो उन्हें कौन साथ रखेगा ? नारी ही तो पुरुष में करुणा और स्नेह का भाव जगाती है | आखिर शरीर भी कब अपना है | इसका धर्म निरंतर गलना है | सुंदर , सार्थक आलेख |

17 अगस्त 2018

दिल्ली

दिल्ली

ययथार्थपर लेख

20 जून 2018

मंजरी सिन्हा

मंजरी सिन्हा

बहुत अच्छा लेख है |

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