“विचार और व्यवहार में सामंजस्य न होना ही धूर्तता है, मक्कारी है।" मुंशी प्रेमचंद की जयंती पर उनका यह उद्घोष मुझे फिर से याद हो आया। सो, मैंने अपने ब्लॉग पर एक बार दृष्टि डाली। अंतरात्मा से सवाल पूछा कि संघर्ष के प्रतीक, जीवन एवं
अपनी रचना दोनों से ही और हम जैसों की लेखन शक्ति के ऊर्जा स्रोत के कथनानुसार मैं इस पथ पर कहां तक पहुंच पाया हूं ? कहीं राह फिर तो नहीं भटक गया न । मेरे विचार से सदैव अपने मन से ऐसे प्रश्न पूछते रहना चाहिए। मन को दर्पण जो कहा जाता है। यदि उपदेशक, समाज सुधारक और पत्रकार की भूमि में हम हैं। तो हमें अपनी कथनी, करनी और लेखनी पर ध्यान देना होगा। रह -रह कर इन्हें टटोलना होगा। बड़ा ही संघर्ष भरा काम है यह हम सभी के लिये। मेरा मानना है कि उपदेश बनने से पहले एकांत में स्वयं को भली भांति परख लेना चाहिए। उन्हीं बातों को कहना चाहिए, जिनके करीब हम स्वयं हैं। ऐसा में न तो हमें आत्मग्लानि की अनुभूति होगी और न ही उस पर से पर्दा गिरने का भय होगा। जहां तक मैं अपनी
बात कहूं, तो इन तीन दशक में अकेलेपन के दंश से उभर कर अब जब मैं एकांत चिन्तन का अभ्यास कर रहा हूं, तो जिन प्रलोभन से स्वयं को ऊपर उठा सका हूं,उनमें धन और भोजन के प्रति अनाकर्षक तो है ही साथ ही वाणी को काफी संयमित कर लिया हूं। मेरा एकांत मुझे जीवन के उस चरम सुख की ओर ले जा रहा है,जहां मैं स्वयं के साथ संवाद कर सकता हूं किसी अन्य की आवश्यकता यहां बिल्कुल नहीं है। न किसी हमसफर की , न ही
मनोरंजन की वस्तुएं चाहिए। मैं स्वयं को शून्य में समाहित कर देना चाहता हूं। लम्बे जीवन संघर्ष ने अतंतः इस पथिक को वह राह दिखलाया है, जिसका अनुसरण कर स्वयं की व्याकुलता पर नियंत्रण पाने की स्थिति बनती दिख रही है। यदि आप भी अपने अकेलेपन को एकांत में बदल देंगे, तब कष्टों के बावजूद भी मेरी ही तरह से बदलाव आपमें नजर आएंगा। परंतु अभी भी मेरे लिये मन और नेत्र पर नियंत्रण पाना कठिन है। सो, मैं अपने एकांत को भंग करने के लिये ऐसे स्थानों पर नहीं जाना चाहता,जहां मोह के साधन उपलब्ध हो। किसी समारोह में , विवाह- बारात में और किसी के घर भोजन -जलपान के बुलावे आदि पर बिल्कुल भी नहीं जाना पसंद करता हूं। पत्रकार होने के बावजूद भी नहीं। लेकिन, अकसर यही देखने को मिलता है बड़े से बड़े उपदेशक धन, मठ-आश्रम और आत्मप्रशंसा ये तीन लोभ नहीं त्याग पाते हैं। बिना बुद्ध , गांधी और लालबहादुर शास्त्री बने ही , वे ज्ञानगंगा बहाते रहते हैं। ऐसे कतिपय उपदेशकों से भी हमें सजग रहने की जरुरत है,जो बड़े- बड़े भव्य दरबार में विराजमान होकर हमें सादगी से रहने की नसीहत देते हैं। जिनके इर्द-गिर्द धनवानों का जमावड़ा ही लगा रहता है। पर जहां के कृष्ण में मित्र सुदामा के प्रति वह प्रेम नहीं दिखाई पड़ता। उस वैभवपूर्ण वातावरण में हम जैसे आमआदमी कहां आनंद की खोज कर सकते हैं। वहां तो हमारी भी इच्छा होगी न कि काश! हम भी लक्ष्मी पुत्र होते, तो प्रवचनकर्ता के करीब होते। हमें भी मंच पर आरती उतारने का अवसर मिलता। मंच पर चढ़ कर उपदेशक का चरण वंदन कर पाता और उनके संग अपना फोटो फेसबुक पर शेयर कर पाता। फिर यहां भी कहां है, समानता का अधिकार बताएं तो जरा ? इसीलिये मैं एकांत को ही सबसे बड़ा उपदेशक, मार्गदर्शन एवं हितैषी मानता हूं। यहां मन को भटकाने वाला कोई साधन नहीं है। व्याकुल मन को यहां विश्राम अवश्य मिलता है। परंतु यह एकांत भी इतनी आसानी से कहां मिलता है। मुझे अब जाकर यह एकांत प्राप्त हुआ है, नहीं तो वर्षों अकेलेपन से संघर्ष किया था। एक बात और इसी एकांत में मुझे आत्मचिंतन का भी अवसर मिला। स्मृतियों को खंगाला तो बचपन से लेकर आज तक की गयीं ढेरों गलतियों का एहसास हुआ। जिन्हें लेकर कष्ट भी हुआ मुझे। परंतु आत्मचिंतन के संदर्भ में माहत्मा गांधी द्वारा 26/12/1938 को जमनालाल बजाज को लिखे पत्र का यह अंश पढ़ कर मन को शांति भी मिली। बापू ने उस पत्र में लिखा है - " मनुष्य को अपने दोषों का चिंतन न कर के, अपने गुणों का करना चाहिए, क्योंकि मनुष्य जैसा चिंतन करता है, वैसा ही बनता है , इसका अर्थ यह नहीं है कि दोष देखे ही नहीं, देखे तो जरूर ,पर उसका विचार कर के पागल न बने "