*इस मानव जीवन को प्राप्त करके प्रत्येक मनुष्य की कामना होती है पुत्र प्राप्त करने की क्योंकि हमारे धर्म ग्रंथों में बताया गया है कि बिना पुत्र के सद्गति नहीं मिलती | यदि माता-पिता का अपने पुत्र के प्रति कर्तव्य बताया गया है तो पुत्र का भी अपने माता-पिता के प्रति कर्तव्यों का उल्लेख हमारे सनातन साहित्यों में मिलता है | मनुष्य अपने जीवन काल में अनेको प्रकार के धर्मों का पालन करता है परंतु एक पुत्र का सबसे बड़ा धर्म होता है अपने माता पिता के अनुकूल रहते हुए उनकी आज्ञा एवं सम्मति को ही सर्वोपरि रखते हुए कार्य करना | इस परंपरा को स्वयं मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम , श्रवण कुमार , नचिकेता आदि ने अपने समस्त सुख - ऐश्वर्य को त्याग करके पालन किया है | इसी क्रम में एक पितृभक्त का नाम और आता है जिसे लंका का युवराज इंद्रजीत मेघनाद कहा जाता है | मेघनाद इतना बड़ा पितृभक्त था कि उसने अपने पिता की सम्मति एवं उनकी इच्छा के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया क्योंकि वह जानता था कि पुत्र का एक ही धर्म है :- अपने पिता के चरणो में अपने समस्त सुख , ऐश्वर्य , विलासिता एवं यदि आवश्यक हो जाए तो अपने प्राणों का भी बलिदान कर देना | इसी तथ्य को मानते हुए यह जानकर भी कि राम एवं लक्ष्मण नारायण के अवतार हैं मेघनाद ने अपने पिता के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया | इतिहास में अनेकों ऐसे पुत्र देखने को मिलते हैं जिन्होंने अपने सुख का त्याग अपने माता-पिता के लिए कर दिया | महाभारत में वेदव्यास जी लिखते हैं कि :-- "निदेशवर्ती च पितु: पुत्रो भवति धर्मत:" अर्थात :- धर्म के अनुसार पुत्र पिता की आज्ञा के अधीन होता है , जो पुत्र अपने पिता की आज्ञा को नहीं मानता वह सद्गति नहीं प्राप्त कर सकता | जिस माता-पिता के रज वीर्य से यह दुर्लभ मानव शरीर मिला है उनकी सेवा करने के अतिरिक्त कोई भी सेवा प्रमुख नहीं होती | माता-पिता से बढ़कर इस सष्टि में कोई दूसरा नहीं है इसका उदाहरण आदिपूज्य भगवान गणेश ने स्वयं माता-पिता की परिक्रमा करके है प्रस्तुत किया है | इसलिए पुत्र का एक ही धर्म होता है अपने माता-पिता के लिए अपना सर्वस्व निछावर कर देना |*
*आज आधुनिक शिक्षा का प्रभाव माना गया या कलयुग का | आज समाज में अनेकों माता पिता ऐसे हैं जो अपना सारा सुख अपने पुत्र के लिए निछावर कर देने के बाद भी पुत्र से तिरस्कृत होकर जीवन जीने को विवश हैं | आज अनेक लोग ऐसे भी हैं जो मेघनाद की पितृभक्ति पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा करते हैं | ऐसे सभी लोगों को मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" यह बता देना चाहता हूं कि मेघनाद ऐसा सुपुत्र था जिसने अपने पिता को अधर्म के मार्ग पर जाता हुआ देखकर भी उनका साथ नहीं छोड़ा क्योंकि वह जानता था कि "पितुर्यश्च न स पुत्र: सतां मत:" अर्थात जो पुत्र पिता के अनुकूल नहीं रहता है उसे श्रेष्ठ पुत्रों की श्रेणी में नहीं रखा जाता है | परंतु आज जो अपने माता पिता को अपने जीवन में कोई सुख नहीं दे पाते हैं वे मेघनाद की पितृभक्ति पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करते हैं | उनको इतिहास से शिक्षा लेनी चाहिए कि पुत्र कैसा होना चाहिए | पिता पुत्र का संबंध शारीरिक रूप से जुड़ा होता है किसी भी स्थिति में पुत्र को पिता का साथ नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि पिता जन्मदाता है उसी के माध्यम से पुत्र इस संसार में आता है | इसलिए प्रत्येक पुत्र का कर्तव्य होता है अधर्म मार्ग पर जा रहे अपने पिता को यथोचित सलाह देकर कि धर्म की ओर मोड़ने का प्रयास करें , यदि पिता धर्म को न मानकरके अधर्मी होकर किसी संकट में पड़ जाय तो ऐसी स्थिति में पुत्र का एक ही धर्म होता है कि संकट में पड़े हुए पिता की आज्ञा के अनुकूल कार्य करे | परंतु आज के पुत्रों ने इतिहास को बदलकर रख दिया है | जिस माता-पिता ने धर्म का पालन करते हुए उनका लालन-पालन किया उन्हीं माता-पिता को आज के पुत्र अपने सुख के लिए वृद्धाश्रम में छोड़कर चले आ रहे हैं | माता-पिता को तिरस्कृत करके या उन्हें संकट में पड़ा देखकर त्याग करके अनेक धार्मिक अनुष्ठानों के माध्यम से सद्गति प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले पुत्रों को कितनी अच्छी संगति मिलेगी यह यक्ष प्रश्न है |*
*पुत्र वही होता है जो अपने पिता के लिए अपना सब कुछ निछावर कर दे अन्यथा अनेक धर्म कर्म करने के बाद भी पुत्र को सद्गति नहीं मिल सकती |*