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अभय मिश्र के बारे में

सीखना और साझा करना. बस यही औचित्य है और यही अवसर है. कुछ साथी और कुछ गुरु मिल जाये, बस यही उद्देश्य है.

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अभय मिश्र की पुस्तकें

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अभय मिश्र के लेख

याद सिर्फ सफ़र की होती है, मंजिल की नहीं!

7 अगस्त 2016
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याद सिर्फ सफ़र की होती है, मंजिल की नहीं! जानती हो- सुनो न! सुनो न! कहना, सुना देने से ज़्यादा अच्छा लगता है.... बार बार मिलने का बहाना, मिल लेने से ज़्यादा मज़ा देता है. ठीक वैसे ही, जैसे- बारिश के इंतज़ार में, लिखी नज़्म और कविता येँ, खुद, बारिश से ज़्यादा भीगी लगतीं हैं. बिलकुल जैसे- अधखिली कलि और उलझ

झूठ ही कह दो, सच हम मान लेंगे!

10 जुलाई 2016
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सुनो ज़रा !जैसे बारिश की बूँदें ढूंढें पता,गरम तपते मैदानों का.जैसे माँ के आने का देता था बता,सुन शोर पायल की आवाज़ों का.वैसे ही गर महसूस कर सको मुझे आज,बग़ल की खाली जगह पर,हर हसने वाली वजह पर,बिन बात हुई किसी जिरह पर.कह दो न,जैसे,तुम ‘झूठमूठ’ का कहते थे,और हम ‘सचमुच’ का मान लेते थे.जैसे,तुम कह देते थे

हैप्पी father’s डे तुम्हे मेरे बच्चे.

18 जून 2016
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हैप्पी father’s डे तुम्हे मेरे बच्चे.जब तुम पैदा हुए, मैं तुम्हारा ही नहीं तुम्हारी मां का भी ‘बाप’ बना.जब तुम गर्मी में झुंझला के मां के आँचल से चिपक जाते,रात भर मेरे पंखे का झोंका दे,या तुम्हारे हर एग्जाम में बाहर पहरा दे कई बार, कई बार उखडमैं अर्दली, पहरेदार बना.तुम्हारे आँखों के आंसू “इग्नोर”कर,

नहीं कोई “Open Letter”, है तो बस एक “बंद चिट्ठी”

29 मई 2016
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नहीं कोई “Open Letter”, है तो बस एक “बंद चिट्ठी”अरे पगली!जब बाप बेटे से, प्यार प्यार से, कुछ लोग और कुछ लोगों से आपस में कम और ‘सोसाइटी’ से ज्यादा जता रहे हैं,की वो कितना प्यार करते हैं,‘ईमेल’ से हो रहे इस मेल के बीच,मोबाइल में रखे हजारों ऑफर,और ‘शेयर’ हो रहे ‘सोशल पोस्ट’ के साथ, जज़्बात और उससे भरे

क्यूंकि माँ- तेरा 'सिर्फ एक' दिन नहीं हो सकता!

8 मई 2016
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अरे माँ, मॉम, मम्मी या अम्मा,कितने भी ‘मास्टर शेफ’ कि डिश खा लूँ,पर तेरी सूखी रोटी आज भी शहद लगती है,कितने भी फेमस ‘हबीब’ से मसाज करा लूँ,तेरे हाथ से की मालिश से ही,मुझे आज भी बेस्ट आँख लगती है!कितने भी बड़े ‘रामदेव’ का योगा कर लूँ,तेरे आँचल के तले ही गहरी शांति मिलती है.क्यूंकि,तू मेरे पेट का साइज़ न

सफ़ेद के रंग हज़ार ! --- अजी हाँ! होली तो हर बार खेलते हैं, या न खेलने का नाटक करते हैं. हमने भी इस बार रंगों के साथ 'शब्दों' में भी होली खेल दी है.

23 मार्च 2016
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सांस बन कर रहो !

14 फरवरी 2016
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और, लौट आई टीटू की दीदी | समाज का चलचित्र ६-वर्ष के बालक की आँखों से

2 फरवरी 2016
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और, लौट आई टीटू की दीदी | समाज का चलचित्र ६-वर्ष के बालक की आँखों से

29 जनवरी 2016
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टीटू अपनी दीदी को खोज रहा है, जो शायद किसी "सीक्रेटमिशन" पे गयी हैं. उसके बाल मन की कल्पनाशीलता को प्रदर्शित करने का प्रयास किया है इस कहानी में. हाँ, समाज का दर्पण और उसके बन्धनों का खाका खीचते हुए एक सन्देश देने की कोशिश की गयी है, पर रचनात्मक और गैर-टीचर अंदाज़ में. अगर आपको लगे की शायद ऐसा हमारे

तो इंसान हूँ मैं!

29 जनवरी 2016
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watsapp और FB के बीच,कोई दोस्त छत पे चिल्लाकेबुलाता है,तो लगता है इंसान हूँ मैं.“ऑनलाइन फ़ूड” से अलग जब,खाऊ गली से गुज़रते ज़लेबी हलवाईमहकाता है,तो लगता है इंसान हूँ मैं.डिस्काउंट कूपन और कार्डकी उहापोह में,जब मां को मारवाड़ी से २रुपये बचाता देखता हूँ,तो लगता है इंसान हूँ मैं.अगल बगल रह के भी फोन करनिपट

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