*मनुष्य इस धरा धाम पर जन्म लेकर के अपने कर्मों के अनुसार समाज में स्थान पाता है , यदि उसके कर्म एवं आचरण समाज के हित में है तो वह समाज में पूज्यनीय हो जाता है वही उच्च कुल में जन्म लेकर के यदि उसका आचरण निम्न स्तरीय तथा समाज एवं मर्यादा के विपरीत होता है तो वह समाज में स्थान स्थान पर निंदित तो होता ही है साथ ही लोग उसके नाम से भी घृणा करने लगते हैं | कबीर दास जी ने लिखा भी है कि :-- "ऊंचे कुल का जनमिया करनी ऊंच ना होय ! सुबरन कलश सुरा भरा साधू निंदा सोय !!" अर्थात :- ऊंचे कुल में जन्म लेने मात्र से कुछ नहीं होता है मनुष्य के कर्म उसे उच्च एवं निम्न बनाते हैं | कर्मों से ही मनुष्य की पहचान बनती है जिस प्रकार सोने के बर्तन में यदि मदिरा रख दी जाए तो सोने का गुण निष्प्रभावी हो जाता है उसी प्रकार ऊंचे कुल में जन्म लेने के बाद भी यदि मनुष्य निंदित कार्य करता है तो वह कभी भी पूजनीय नहीं हो सकता | समाज विरोधी एवं मानवता के विपरीत कर्म करने वाला उच्च कुल में जन्म लेकर के , कठिन तपस्या करके भगवान शिव से असीम बल एवं अनेकों वरदान प्राप्त करने वाला रावण यदि आज निंदित है तो अपने कर्मों के के ही कारण | रावण में अहंकार , अधर्म , स्वार्थ एवं वासना भरी पड़ी थी | दिग दिगांतर को जीतने के बाद भी स्वर्ग तक अपनी विजय पताका फहराने वाला रावण अपने इसी अधर्म एवं अनीति के कारण उच्च कुल में जन्म लेकर भी भगवान श्री राम के हाथों असमय काल के गाल में समा गया और साथ ही अपने पूरे वंश का विनाश का कारण भी बना | कहने का तात्पर्य है कि ऊंचा कुल होना महत्वपूर्ण नहीं है , विद्वान होना महत्वपूर्ण नहीं है , महान तांत्रिक हो जाना भी उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना महत्वपूर्ण है अपने आचरण को सकारात्मक रखना परंतु यह शायद विधि का विधान है कि जब मनुष्य में ज्ञान , विज्ञान , बल एवं विस्तार हो जाता है तो वह स्वयं को ईश्वर के समकक्ष मानने लगता है और मनचाहा कार्य करने लगता है , जिसमें अनेकों प्रकार के समाज विरोधी कार्य भी उसके हाथों होने लगते हैं | लंकापति रावण इसी प्रकार का व्यक्तित्व था | कुछ लोग रावण की विद्वता एवं उसके उच्च कुल में जन्म लेने को लेकर के अनेकों प्रकार की चर्चा करते हैं परंतु वही लोग भूल जाते हैं कि उसने वेदवती से लेकर के अपनी पुत्रवधू एवं महारानी सीता तक को वासनात्मक दृष्टि से देखा जो कि उच्च कुलीन कृत्य नहीं कहा जा सकता है | रावण अपने इन्ही कुकृत्यों के कारण भर्त्सना एवं निंदा का पात्र है |*
*आज समाज में अनेकों रावण घूम रहे हैं | त्रेता युग के रावण ने वर्षों कठिन तपस्या करके ईश्वर से शक्तियां अर्जित की फिर उन शक्तियों के दुरुपयोग से अपने पाप की लंका का निर्माण किया था , परंतु आज अनेकों रावण है जो धन , पद और समाज में अनेकों उपमा रूपी शक्ति अर्जित करके उसके दुरुपयोग से पूरे समाज को ही पाप की लंका में बदल रहे हैं | आज समाज में अधर्म , अनीति चारों ओर दिखाई पड़ रहा है , व्यभिचार अपने चरम पर है यह रावण के कृत्य नहीं है तो और क्या है ? मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" आज यह कहना चाहता हूं कि हम प्रतिवर्ष विजयादशमी को रावण के पुतले को जलाते हैं परंतु यदि इस रावण रूपी वृत्ति से छुटकारा पाना है तो रावण के पुतले को नहीं बल्कि मनुष्य के भीतर बैठे हुए रावण को जलाना होगा | वह रावण जो अंदर ही लालच के रूप में , झूठ बोलने की प्रवृत्ति के रूप में , अहंकार के रूप में , वासना के रूप में बैठा हुआ है उसको ही जलाने से रावण का विनाश हो पाएगा | यह कलयुग है प्रत्येक मनुष्य के भीतर बैठे हुए रावण को मारने के लिए स्वयं भगवान नहीं आएंगे बल्कि मनुष्य को स्वयं अपने अंदर के रावण का वध करना होगा | जिस प्रकार अंधकार का विनाश एक छोटे से दीपक से हो जाता है उसी प्रकार समाज में व्याप्त इस रावण का विनाश करने के लिए एक सकारात्मक सोच की आवश्यकता है और वह सोच तभी पैदा हो पाएगी जब हम अपने आने वाली पीढ़ी को संस्कारवान बनाएंगे उन्हें नैतिकता का ज्ञान देंगे , और यह तभी संभव हो पाएगा जब हम स्वयं उनके समक्ष वह कृत्य करके एक सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करेंगे | सबसे बड़ी समस्या यह है कि त्रेतायुग के रावण के दस सिर थे परंतु हर सिर का एक ही चेहरा था परंतु आज के रावण के एक ही सिर में अनेकों चेहरे देखने को मिलते हैं | यदि हमें समाज में फैले अनेकों रावण का विनाश करना है तो उसका एक ही मार्ग है कि स्वयं संस्कारवान बने और अपनी आने वाली पीढ़ियों को भी संस्कारवान बनाएं अन्यथा आने वाला समय रावण के अत्याचारों से पुनः हाहाकार करने वाला है |*
*त्रेतायुग के रावण को मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने तीर से मारा था परंतु आज के रावण को जो मनुष्य के मन में बैठा हुआ है उसे संस्कार , ज्ञान एवं इच्छाशक्ति से ही मारा जा सकता है |*