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गरिमापूर्ण भाषा को लेकर कोई चिंता नहीं है संजय निरुपम ने नरेंद्र मोदी को अनपढ़-गंवार कहा।

17 सितम्बर 2018

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गरिमापूर्ण भाषा को लेकर कोई चिंता नहीं है
संजय निरुपम ने नरेंद्र मोदी को अनपढ़-गंवार कहा।

- संजय अमान

७० और ८० यहाँ तक की ९० के दसक की राजनीति में भाषा को ले कर मर्यादाएं होती थी। पद की और व्यक्ति की अपनी गरिमा थी मगर ज्यो - ज्यो हम विकास करते गए सभ्यता का विकास होता गया हम सत्ता के लिए भाषाओ को ताक पर रखते चले गए ताजा उदहारण संजय निरुपम ने पेश किया है उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कोअनपढ़-गंवार कहते हुए उनकी डिग्री को लेकर सवाल उठाए। कांग्रेस नेता ने कहा कि स्कूल-कॉलेजों में पढ़ने वाले बच्चों को पीएम की डिग्री के बारे में पता ही नहीं है। निरुपम एक बार फिर विवादों में घिरते दिख रहे हैं. इस बार वह पीएम मोदी को लेकर दिए अपने एक बयान को लेकर विवादों में हैं. दरअसल, उन्होंने महाराष्ट्र सरकार के उस फैसले का, जिसमें राज्य के स्कूल में प्रधानमंत्री पर बनी फिल्म दिखाने की बात कही की है, विरोध करते हुए पीएम मोदी को अनपढ़ बता दिया और कहा कि पीएम मोदी से स्कूल के बच्चे कुछ नहीं सीख सकते . संजय निरुपम के इस बयान पर भाजपा नेताओं ने कड़ा विरोध जताया है. भाजपा की महाराष्ट्र इकाई की प्रवक्ता शाइना एनसी ने तो संजय निरुपम को ‘‘मानसिक तौर पर विक्षिप्त’’ तक करार दे दिया है। खैर यह कोई पहली घटना नहीं है कांग्रेस के नेताओ ने प्रधानमंत्री पर पहले ही अभद्र बयान दिया है और अपनी अपनी राजनीतिक संस्कृति का परिचय दिया है। अपने बयानों को ले कर कुख़्यात रहे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मणिशंकर अय्यर ने भी दिसंबर 2017 में गुजरात चुनाव के समय पीएम मोदी के बारे में 'नीच' शब्द का इस्तेमाल किया था और उन्हें पार्टी से निलंबित कर दिया गया था. उस समय पहले चरण का चुनाव चल रहा था और पीएम मोदी सहित पूरी बीजेपी ने इसको मुद्दा बना लिया था. जिससे कांग्रेस बैकफुट पर आ गई थी. क्या अब संजय निरुपम को भी पार्टी से कॉंग्रेस निकलेगी ? '' नीच '' शब्द से ज्यादा भंयकर '' अनपढ़ , ज़ाहिल , गवार , कहना है यह शब्द बिलकुल बर्दास्त नहीं किया जाना चाहिए। नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री है और संजय निरुपम ने प्रधानमंत्री पद की गरिमा को धूमिल करने और उसकी गरिमा को धक्का पहुंचाने का काम किया है।
एक सभ्य समाज और सभ्य राजनीति के लिए यह जरुरी है की हम अपनी भाषाओ पर काबू रखते हुए बोले वह भी प्रधानमंत्री जैसे पद पर बैठे किसी भी व्यक्ति के बारे में बोलने से पहले सोचे क्योकि आप खुद स्वम् समाज और देश के एक जिम्मेदार व्यक्ति है आप की भाषा का प्रभाव समाज पर पड़ता है।
संजय निरुपम खुद एक पत्रकार और सांसद रहे है मौजूदा में वह कांग्रेस में एक बड़े पद पर मुम्बई के मुखिया है। काम से काम उनसे प्रधानमंत्री के बारे में यैसी भाषा की उम्मीद हम नहीं कर सकते है।
आज सोशल मीडिया में निरुपम का बयान ट्रोल हो रहा है , यैसे बयानों से आखिर कर कांग्रेस को क्या लाभ है उनका ही नुकशान हो रहा है। ८० और ९० के दशक में हम यैसे राजनीतिक बयानों से बचे हुए थे यदा कदा ही यैसे बयान देखने को मिलते थे मगर यैसे निष्ठुर बयान बही होते थे खासकर प्रधानमंत्री के लेकर पद की अपनी गरिमा होती है पद की गरिमाओं को ध्यान में रख कर राजनीतिक पार्टिया बोला करती थी।
मगर अब वह अटल बिहारी वाजपेयी की राजनीतिक परिपाटी समाप्त हो चुकी है।
बोलने की अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर हम कुछ भी बोल रहे है इससे यह साबित होता जा रहा है कि किसी भी प्रकार से हमें सत्ता प्राप्त करना है चाहे उसके लिए तमाम मर्यादाओ को ताक पर ही क्यों न रखना पड़े।
बहरहाल निरुपम ने भाषा की कमान से तीर छोड़ा है उसकी चारो तरफ निंदा हो रही है। सवाल तो यह भी पैदा होता है की क्या हम इतने ओछे होते जा रहे है कि प्रधानमंत्री को ही कटघरे में खड़ा कर के गालियाँ देना शुरू कर दे ये हम किस राजनीतिक संस्कृति का परिचय दे रहे है। चुनाव में हार जीत तो लगा ही रहता है हर पार्टी राजनीति शतरंज की बिसात पर मोहरे बिछाती है मगर कम से कम हमे जो मर्यादाए निर्धारित है उनका ख्याल रखना चाहिए।
२०१९ का चुनाव आ रहा है क्या कांग्रेस यैसी ही भाषा का उपयोग कर के चुनाव लड़ेगी? प्रश्न तो खड़े होते ही है। जनता सब समझ रही है कोंग्रस और भाजपा दोनों की राजनीति को। कबीरदास जी ने कहा था कि - ऐसी बानी बोलिए मन का आपा खोय औरन को शीतल करे आपहुं शीतल होय। मगर अब यैसा नहीं हो रहा है।
आज जिस तरह की अमर्यादित भाषा का प्रयोग जीवन के हर क्षेत्र क्षेत्र में बढ रहा है। चाहे वह साहित्य हो, सिनेमा, समाज, व्यापार,मीडिया, राजनीति, कार्य स्थल इत्यादि कोई भी जगह क्यों न हो। यह बेहद चिंता का विषय है। आज की पीढ़ी जिस तरह से सनसनी और आक्रामक भाषा का प्रयोग कर रही है। बिना यह सोचें कि किसी की भावनाओं पर क्या फर्क पड़ेगा। यह पढे लिखे समाज के लिए चिंता का विषय होना चाहिए लेकिन देखने में यह आ रहा है कि - अब लोगों में गरिमापूर्ण भाषा को लेकर कोई चिंता नहीं है।

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