*मानव जीवन में गुरु का कितना महत्त्व है यह आज किसी से छुपा नहीं है | सनातन काल से गुरुसत्ता ने शिष्यों का परिमार्जन करके उन्हें उच्चकोटि का विद्वान बनाया है | शिष्यों ने भी गुरु परम्परा का निर्वाह करते हुए धर्मध्वजा फहराने का कार्य किया है | इतिहास में अनेकों कथायें मिलती हैं जहाँ परिवार / समाज से उपेक्षित बालक भी यदि गुरुसत्ता के सम्पर्क में आ गया है तो वह सफलता के उच्चशिखर पर पहुँच गया है | अपनी सौतन के कारण राज्य से निराश्रित / निष्कासित महाराज उत्तानपाद की प्राणप्रिया महारानी सुनीति के पुत्र बालक ध्रुव को उसकी विमाता सुरुचि ने जब भरे दरबार में महाराज की गोद से उठाकर पृथ्वी पर पटका तो अपनी माता से शिक्षा लेकर वह पाँच वर्षीय बालक "परमपिता" की गोद में बैठने का स्वप्न लेकर घनघोर जंगल की ओर चल पड़ा | ऐसे उपेक्षित / निराश्रित अबोध बालक को भी गुरुसत्ता का आश्रय देवर्षि नारद के रूप में प्राप्त हुआ | नारद जी ने बालक पर दया करके उसे भगवत्प्राप्ति का साधन बताया ! जिसके बल पर बालक ध्रुव ने कठिन तपश्चर्या से भगवान की गोद में बैठने का अवसर प्राप्त करके अनेकों दुर्लभ वरदान भी प्राप्त किये | परंतु बालक ध्रुव ने इसका सारा श्रेय नारद जी को ही दिया , कि यदि गुरुरूप में नारद जी न मिले होते तो शायद यह सुरदुर्लभ अवसर न प्राप्त हो पाता | यहाँ सब कुछ पा लेने के बाद भी बालक ध्रुव देवर्षि नारद को भूला नहीं अपितु जीवन भर नारद जी को गुरु का सम्मान एवं उनकी पूजा करता रहा | कारण यह रहा कि ध्रुव जी सुपात्र थे | इसीलिए कहा गया है कि ज्ञान सदैव सुपात्र को ही देना चाहिए , क्योंकि यदि कुपात्र को आपने ज्ञान दिया तो वह उसी ज्ञान के बल पर आपकी ही क्षति करने का प्रयास करने लगता है |* *आज के परिवेश में जो जहर घुलता जा रहा है वह भविष्य के लिए अत्यंत घातक सिद्ध होने वाला प्रतीत हो रहा है | आज अनेक ऐसी घटनायें देखने को मिल रही है जहाँ मंदिर के बाहर रो रहे बालक को मंदिर के महंथ या पुजारी द्वारा आश्रय देकर पढा - लिखा कर विद्वान बनाकर अपवे भविष्य का उत्तराधिकारी भी घोषित कर दिया जाता परंतु शिष्य प्रतीक्षा नहीं कर पाता जिसका परिणाम होता है शिष्य द्वारा गुरु की हत्या करके गद्दीनशीन होने का प्रयास करना आज आम बात होती जी रही है | यह अलग बात है कि वह गद्दी पर बैठ नहीं पाता बल्कि सारे सुख - ऐश्वर्य उससे रूठ जाते हैं और वह कारागार में चला जाता है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" विचार करता हूँ कि मनुष्य की मानसिकता को आखिर हो क्या रहा है | समाज व परिवार से उपेक्षित बालक को अपने पास चार - पांच वर्ष तक पुत्र की तरह रखकर उसे योग्य बनाने का प्रयास किया जाता है वही बालक जब कुछ सीख जाता है तो अपने गुरु की ही बुराई समाज में करके आगे बढने का प्रयास करने लगता है | यह स्थिति देखकर आखों में बरबस आँसू आ जाते हैं | ऐसे शिष्यों को समाज कभी भी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता है | यह अलग बात है कि ने अपने मन से विद्वान बने घूमा करते हैं | यह मानसिकता का ही दुष्परिणाम है कि शिष्य अपने भूतकाल को भूल जाता है | किसी ने कहा भी है कि उपकार भी मनुष्य की मानसिकता देखकर करना चाहिए अन्यथा इस युग में जिसे तैरना सिखाओ वही आपको डुबोने का प्रयास करता रहता है |*