*सनातन
धर्म की मान्यतायें कभी भी आधारहीन नहीं रही हैं | यहाँ चौरासी लाख योनियों का विवरण मिलता है | इन्हीं चौरासी लाख योनियों में एक योनि है हम सबकी अर्थात मानव योनि | ये चौरासी लाख योनियाँ आखिर हैं क्या ?? इसे वेदव्यास भगवान ने पद्मपुराण में लिखा है :-- जलज नव लक्षाणि,स्थावर लक्ष वि्ंशति, कृमयो रूद्र संख्यक:! पक्षिणाम दश लक्षणं,त्रिन्शल लक्षाणि पशव:, चतुर्लक्षाणि मानव: !! अर्थात :- जलचर 9 लाख, स्थावर अर्थात पेड़-पौधे 20 लाख, सरीसृप, कृमि अर्थात कीड़े-मकौड़े 11 लाख, पक्षी/नभचर 10 लाख, स्थलीय/थलचर 30 लाख और शेष 4 लाख देव व मानवीय प्रजाति | कुल 84 लाख | जब परमात्मा ने इतनी सृष्टि कर डाली तो आखिर मनुष्य की उत्पत्ति करने की आवश्यकता का आभास आखिर उस परमपिता को क्यों हुआ ? इसका जबाब भी वेदव्यास जी ने "श्रीमद्भागवत" में देते हुए लिखते हैं :--सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयात्मशक्तया वृक्षान् सरीसृपपशून् खगदंशमत्स्यान् ! तैस्तैर अतुष्टहृदय: पुरुषं विधाय ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देव: !!अर्थात :- विश्व की मूलभूत शक्ति सृष्टि के रूप में अभिव्यक्त हुई और इस क्रम में वृक्ष, सरीसृप, पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, मत्स्य आदि अनेक रूपों में सृजन हुआ, परंतु उससे उस चेतना की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं हुई अत: मनुष्य का निर्माण हुआ, जो उस मूल तत्व ब्रह्म का साक्षात्कार कर सकता था | कहने का अर्थ है कि मनुष्य की उत्पत्ति ही येन केन प्रकारेण ब्रह्म का साक्षात्कार करने के लिए हुआ है | जिसे मनुष्य भूलता जा रहा है | अपने जीवन कै मुख्य उद्देश्य को भूलकर ही मनुृ्ष्य अन्यान्य योनियों में भ्रमण करता रहता है |* *आज कुछ लोग संशय में हैं कि क्या वास्तव में चौरासी लाख योनियां होती हैं ? क्या जीव को इन सभी योनियों में जन्म लेना पड़ता है ?? इस विषय पर मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" जहाँ तक जान पाया हूँ वह यह है कि जीव मानवयोनि अर्थात माँ के गर्भ में आने के बाद से लेकर मनुष्य तक बनने की
यात्रा में स्वयं को तिरासी प्रकार से परिवर्तित करता है उसके बाद वह मनुष्य बन पाता है | जब जीन माँ के गर्भ में आता है तो वह समुद्र के एककोशीय जीव की तरह बिन्दुरूप में होता है धीरे - विकास करके वह मानव बनता है | माँ के गर्भ में ही वह स्वेदज , अंडज , जरायुज एवं उद्भिज प्रक्रिया को पार करके मनुष्य बनता है | बच्चा जब जन्म लेता है, तो पहले वह पीठ के बल पड़ा रहता है अर्थात किसी पृष्ठवंशीय जंतु की तरह | बाद में वह छाती के बल सोता है, फिर वह अपनी गर्दन वैसे ही ऊपर उठाता है, जैसे कोई सर्प या सरीसृप जीव उठाता है। तब वह धीरे-धीरे रेंगना शुरू करता है, फिर चौपायों की तरह घुटने के बल चलने लगता है | अंत में वह संतुलन बनाते हुए मनुष्य की तरह चलता है | भय, आक्रामकता, चिल्लाना, अपने नाखूनों से खरोंचना, ईर्ष्या, क्रोध, रोना, चीखना आदि क्रियाएं सभी पशुओं की हैं, जो मनुष्य में स्वत: ही विद्यमान रहती हैं | यह सब उसे क्रम विकास में प्राप्त होता है |* *इससे यह सिद्ध हो जाता है कि विन्दुरूप में गर्भ में आने वाला मनुष्य स्वयं पूर्व की अन्य योनियों में परिवर्तित करके ही मनुष्य बनता है |*