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क्या यूनिफार्म सिविल कोड की जरुरत है

2 फरवरी 2019

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हाल के माननीय सुप्रीम कोर्ट का तीन तलाक को असैम्बधानिक करार देने से , फिर से यूनिफार्म सिविल कोड की मांग समाज मे उठाने लगी है |

यूनिफार्म सिविल कोड क्या है ?

यह नियमो का वह सेट है जो भारत मे विभिन्न पर्सनल लॉ को समाप्त कर एक ही पर्सनल लॉ बनाएगा जो सभी धर्मो पर लागु होगा | हलाकि इस सम्बन्ध मे अभी तक सरकार की तरफ से कोई प्रारूप सामने नहीं आया है | यह एक तरह से धर्म निरपेक्ष, पंथ निरपेक्ष, लिंग-भेद रहित कानून होगा जिसपर किसी धर्म या महिला या पुरुष का विशेष का प्रभाव नहीं होगा | इसका अर्थ यह भी है की देश भर के सभी नागरिक चाहे वह किसी भी धर्म , जाती या समुदाय के हो निजी मामले का कानून भी सभी के लिए सामान रहेगा | संबिधान के ४४वे अनुच्छेद जो राज्य के निति निर्देशक तत्व के अंतर्गत आता है मे यह कहा गया है की सरकार सामान नागरिकता के लिए यूनिफार्म सिविल कोड लेन की कोशिस करेगी |

अभी अभी हमने पर्सनल लॉ की बात की तथा चुकी यूनिफार्म सिविल कोड पर्सनल लॉ की ही जगह लेगा, हमें पर्सनल लॉ के बारे मे यह जान लेने की आवश्कता है की यह क्या है ?, क्यों है?, कब से है ?

पर्सनल लॉ जिसे हम निजी कानून भी कह सकते है, वह कानून है जो किसी व्यक्ति के निजी जीवन को नियमन करता है | यह कानून मुख्यतः पारिवारिक जीवन, विवाह सम्बन्ध, सम्पति बटवारा और उत्तराधिकार के नियमो को बताता है | भारत मे अलग –अलग धर्म के लिए अलग – अलग कानून है | निजी कानूनों के मुख्य श्रोत हमारे धार्मिक ग्रन्थ और धार्मिक रीती रिवाज है | अंग्रेजो द्वारा भारत मे लिखित कानून लागु करने से पूर्व धार्मिक नियम ही कानून तथा धर्म गुरु इन नियमों के ज्ञाता मने जाते थे | धर्म गुरु ही इन मामलों मे फैसले लेते थे | ग्रंथो मे ही पारिवारिक जीवन तथा उतराधिकार सम्बंधित नियम होते थे | मनु स्मृति मे तो पारिवारिक जीवन के सभी छोटी –बड़ी बातो का उल्लेख है | मुस्लिम समुदाय मे तो “धर्म ही कानून और कानून ही धर्म है” जैसी मान्यता है | इंग्लॅण्ड मे भी सन १८५७ तक चर्च के पुजारी जज ही पारिवारिक मामलों पर फैसले लेते थे |

भारत कई धर्म तथा इन धर्मो मे अलग –अलग समुदाय और इन समुदायों मे भी अलग अलग रीती- रिवाज का अनोखा और सुन्दर समावेश वाला देश है | जब अंग्रेज भारत आये और कानून बनाने की कोशिश की तब उन्हें यह विभिद्ता ना ही समझ आई और ना ही इस भीषण उल्झन मे पड़ना चाहते थे | इसीलिए उन्होंने पर्सनल लॉ सम्बंधित मामलों के निपटारे का अधिकार पंचायत, धर्म सभा के मुखिया या समुदाय के मुखिया को दे दिया | १८५७ तक इसी तरह की व्यस्था इंग्लॅण्ड मे भी थी जहाँ न्यालय को पारिवारिक मामले सुनने का अधिकार नहीं थे | १८५७ के मट्रोमोनिअल क्लौसेस एक्ट लाकर सभी इसाईओं और यहुदिओं के पारिवारिक मामले सुनने का अधिकार न्यायालय को दे दिया गया |

भारत मे सर्वप्रथम अलग पर्सनल लॉ की मांग पारसी समुदाय द्वारा एक बहुचर्चित मामले अद्रेशिर क्रुशेत्जी बनाम फिरोजाबाई के बाद आया | यह मामला १८४० से १८६० तक सुर्खियों मे रहा | फिरोजाबाई की शादी कम उम्र मे आदेर्शिर नमक युवक से होती है | बड़े होकर वह अपने पति के घर जाती है जहा उसे उसके पति द्वारा प्रताड़ित किया जाता है | मजबूर होकर वह अपने पिता के घर वापस आकर पति पर अपने अधिकारों तथा मेंटेनेंस के लिए कोर्ट मे मुकदमा करती है | चुकी उसके पिता के पक्ष के लोग वैरिस्टर थे, उसका मुकदमा ले लिया गया और फैसला भी उसी के पक्ष मे आया | बॉम्बे के सुप्रीम कोर्ट भी उसी के पक्ष मे फैसला देता है | इस फैसले के खिलाफ उसका पति प्रिवी कौंसिल इंग्लॅण्ड मे अपील करता है | उसकी दलील यह होती है की वह इसाई नहीं है इसलिए अदालतों को यह मामला सुनाने का हक ही नहीं है | प्रिवी कौंसिल उसके इस दलील से सहमत हो जाता है और बॉम्बे सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट देता है | इसी घटना के बाद अंग्रेजी सरकार ने पारसी लॉ रिफॉर्म्स कमीशन का गठन कर १८६५ मे पारसी मेट्रिमोनिअल एंड डाइवोर्स एक्ट लाइ | इस कानून के तहत पारसी समाज के वैवाहिक मामले की सुन्वाही के लिए अलग से कोर्ट्स की भी स्थापना की |

लेकिन आज के इस विवाद के पीछे तो मुख्यतः मुस्लिम पर्सनल लॉ की कुछ कमियां है | इस्लाम धर्म के नियम कुरान से निकलते है | कुरान तथा मुहम्मद के उपदेशो से निकलने वाले इस नियम को ही सरियात कानून कहा जाता है | यह नियमों का लिस्ट नहीं है बल्कि यह जीवन के सिद्धांतो के साथ साथ विवाह , डाइवोर्स, फाइनेंस, रिवाज, उपवास, प्रार्थना आदि को वर्णित करता है | इस्लाम धर्म के समुदाय मुख्यतः काजियों द्वारा नियमित किये जाते है | मुस्लिम समाज मे विवाह एक गटबंधन ना होकर यह एक सिविल कॉन्ट्रैक्ट है | जैसा की हम जानते है की कॉन्ट्रैक्ट तभी तक चलता है जब तक दोनों पक्ष की सहमती हो , लेकिन यहाँ इस कॉन्ट्रैक्ट को तोड़ने का अधिकार सिर्फ पति के पास होता है | पति बिना कोर्ट गए महज घोषणा कर तलाक दे सकता है जबकि पत्नी को इस सम्बन्ध मे कोई हक नहीं था | १९३९ मे कानून आने के बाद महिलाये भी अब कुछ मुद्दों पर कोर्ट जाकर तलाक की मांग कर सकती है | पुरुषों को एक समय मे ४ पत्नियों को रखने का अधिकार प्राप्त है जबकि स्त्री को एक समय मे केवल एक पति का हक है | इसमें कोई दो राय नहीं की यह एक महिलायो को शोषित करने वाला एकतरफा कानून है | इस कानून के खिलाफ समय समय पर आवाजे उठती रही है लेकिन हमारा दुर्भाग्य ही है की ऐसे समय जब महिलाये पुरुषों के साथ ही नहीं बल्कि उनसे आगे निकल चुकी है फिर भी हम ऐसी कानून को बदल नहीं पाए |

यूनिफार्म सिविल कोड की मांग संबिधान निर्माताओं ने भी की थी जिसकी झलक अन्नुछेद ४४ मे देखने को मिलती है | ८० के दसक मे शाह बानो के केश की वजह से यह मामला खूब सुर्ख़ियों मे रहा | नागरिकों के बिच असमानता को कम करने मे यह एक जरिया बन सकता है | इससे अंतरजातीय विवाह में हो रही अड़चने समाप्त होंगी और दो समुदाय के लोग रिस्तेदार भी बनेंगे जिससे समुदायों के बीच दूरियां कम होंगी | इस तरह देश के एकता और अखंडता को और भी मजबूत किया जा सकता है | अन्नुछेद १४ मे जिस समानता का वर्णन किया गया है ऐसे कानूनो के अभाव मे पूरा ही नहीं किया जा सकता है | संबिधान के प्रस्तावना मे वर्णित धर्मनिरपेक्ष देश की कल्पना अलग – अलग पर्सनल लॉ के रहते कैसे पूरी की जा सकती है | शाह बानो जैसी हज़ारो नारिओं को बिना किसी पालन पोषण की राशि के ही बिच सड़क पर छोड़ दिया जाता है और पूरा देश इस अन्याय को देखता है, समझता भी है की अन्याय हो रहा है, और जब सुप्रीम कोर्ट न्याय करता है तो कानून लाकर न्याय बदल दिया जाता है । हमारे समाज मे महिला विरोधी कानून आज भी मौजूद है| संबिधान कभी भी लिंग के आधार पर भेदभाव की इजाजत नहीं देता है | कुछ पर्सनल लॉ संविधान की रक्षा तो दूर, मानवाधिकार के मूल सिद्धांतो की भी क़द्र नहीं करते | यूनिफार्म सिविल कोड से ट्रिपल तलाक , खाप पंचायत और ऑनर किल्लिंग जैसी कुरीतियो पर अंकुश लगाया जा सकता है | कुछ हद तक महिलाओं की स्थिति सुधरेगी तथा उन्हें भी बराबरी का हक़ मिल सकता है ।

लेकिन यहाँ यह भी बताना जरुरी है की भारत की रंग बिरंगी सभ्यता, संस्कृति और रीति रिवाज वाला अनूठा समागम स्थल है, जिससे इस देश को दुनिया में एक अलग पहचान मिलती है । यही विविधता में एकता ही हमारी खाशियत रही है । एक धर्म में अलग - अलग समुदाय, इन समुदायों की अलग - अलग सांस्कृतिक विरासत ऐसा अद्भुत नज़ारा दुनिया के किसी और सभ्यता में देखने को नहीं मिलेगा । विश्व के लिए आज भी यह एक आश्चर्य का विषय बना हुआ है की हम इतने भिन्न होकर भी एकता में कैसे खड़े है । जहाँ हर २५-३० किलोमीटर पर बोलिया बदल जाती है । कही दूल्हा पूजा जाता है तो कही दुल्हन को देवी लक्ष्मी बनाकर घर में स्वागत किया जाता है । रश्मो रिवाज की ऐसी खूबसूरत रंगबिरंगी गुलिश्तां को समाप्त कर एकरंग में सिर्फ इसलिए कर दिया जाये क्योकि इस गुलिस्तां के कुछ फूल के कुछ पंखुडिया ख़राब है । समय के साथ साथ हर कानून में बदलाव हुए है , और आगे भी होते रहेंगे । क्या धर्मनिरपेक्षता सिर्फ एक जैसे कानून लागु कर ही पाया जा सकता है । क्या यूनिफार्म सिविल कोड महिलाओं को बराबरी के हक़ की गारंटी देगा । अगर महज कानून बना देने से हक़ मिलते, तो आज हिन्दू लड़कियों को लड़को के बराबर उत्तराधिकार का कानून बनाने के १५ साल बाद भी भ्रूण हत्या जैसे अपराध नहीं होते । अगर यूनिफार्म सिविल कोड आता है तो अल्पसंख्यों पर बहुसंख्यको का कानून थोपने का खतरा भी आ सकता है । जो संबिधान यूनिफार्म सिविल कोड लाने की सलाह देता है वही संबिधान हर नागरिक हो अपना धर्म मानाने का मौलिक अधिकार भी देता है ।

इस मामले में मैं भारत सरकार के लॉ कमीशन ने सरकार द्वारा मांगे गए सुझाव में यह साफ़ कर दिया की यूनिफार्म सिविल कोड भारत में इस समय के लिए न ही आपेक्षित है और न ही जरुरत है । उसने अपने सुझाव में यह भी कहा की एक सुदृण लोकतंत्र में विभिन्नता हमेशा भेदभाव को बढ़ावा नहीं देता है । कमीशन का यह भी मानना है की सांस्कृतिक विभिन्नता को महज समानता लाने के लिए नहीं नष्ट नहीं कर देना चाहिए । विभिन्नता होकर पहले भी हम एक थे, एक है और एक ही रहेंगे । धार्मिक और प्रांतीय विविधता महज बहुसंख्यकों की आवाज की बजह से न समाप्त हो जाये । यूनिफार्म सिविल कोड का विरोध करने का यह मतलब नही है की धर्म के आड़ में हो रहे कुकृत्यों और अत्याचारों को चलने दिया जाये । इस मामले में स्थिति बेहतर बनाने के लिए चरणवद्ध सुधार की आवश्यकता है ।

प्रथम चरण में धर्म के आड़ में हो रहे सभी तरह के भेदभावो को पहचान कर उसे गैरकानूनी घोषित करने की आवश्यकता है । और मुझे ख़ुशी है की इस ओर सरकार ने ट्रिपल तलाक़ बिल पास कर पहला कदम उठाय है ।दूसरे चरण में सभी पर्सनल लॉ को धीरे धीरे एक लेवल में लाया जाये । फिर तीसरे चरण में समय की मांग अनुसार यूनिफार्म सिविल कोड लाया जा सकता है जिसमे शायद समलैंगिक विवाह जैसी चीजों को भी शामिल करना पड़े कोई भी कानून सही मायने में तभी लागु हो सकेगा जब जनता उसे समझकर स्वीकार करे, वरना कानून सिर्फ किताबो में रह जाता है । अतः इन सुझावों को योजनाबद्ध तरीके से किर्यान्वय के लिए सामाजिक जागरूकता और सहमति की भी आयश्यकता है ।

कुल मिलाकर "इतने संगठिक राष्ट्र को समरूपता की जरुरत नहीं है "

अंत में

नारी हूँ मैं, नारी हूँ, मुझे चाहिए बस थोड़ा सम्मान ।

समानता के नाम पर, मुझे बनाओ नहीं सामान ।।

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