संभाजी महाराज | ShambhaJi Maharaj in Hindi- भारत को वीरों की भूमि कहा जाता है क्योंकि यहां पर एक से बढ़कर एक वीर योद्धा जन्म लिए और बिना सिर छुकाए प्राणों की आहूति दे दी। उन्हीं वीर योद्धाओं में एक हैं छत्रपति Sambhaji Maharaj जिनका जीवन देश और हिंदुत्व के लिए समर्पित रहा। सम्भाडी ने अपने बाल्यपन से ही राज्य की राजनीतक समस्याओं का निवारण करना शुरु कर दिया था और तभी से शुरु हो गया था उनका संघर्ष जिसके बारे में हर किसी को जानना चाहिए। अपने लिए तो सभी जीते हैं लेकिन दूसरों और अपने धर्म के लिए जो अपने प्राणों के बारे में भी नहीं सोचे वही सच्चा पुरुष होता है। मराठियों को इसी बात के लिए छत्रपति शिवाजी और उनके बेटे सम्भाजी पर नाज है और आज भी शिवजी के बाद उन्हें ही पूजते हैं।
सम्भाजी का परिवार और बचपन
1657 में पुरंदर किले में सम्भाजी का जन्म हुआ था लेकिन इनके जन्म के 2 सालों के बाद इनकी मां सईबाई का देहांत हो गया था इसलिए इनका पालन पोषण इनकी दादी जीजाबाई ने किया था। सम्भाजी महाराज को छवा कहकर बुलाया जाता था जिसका मराठी मतलब शावर यानी शेर का बच्चा होता है। सम्भाजी के परिवार में दादाजी शहजी राजे भी थे इनके अलावा एक भाई राजाराम और 6 बहनें थीं। इनके पिता शिवाजी ने 3 शादियां की थीं इनसे ही ये सभी बच्चे रहे हैं। सम्भाजी का विवाह येसूबाई से हुआ था जिनसे इन्हें एक पुत्र छत्रपति साहू था। सम्भाजी 13 साल की उम्र में 8 भाषाओं का ज्ञान हो गया था, इसके अलावा घुड़सवारी, तीरदाजी भी इन्होंने इसी उम्र में सीख ली थी। सम्भाजी की सौतेली मां सोयराबाई से संबंध तब बिगड़ने लगे जब वे अपने बेटे को राज्य का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थीं उस दौरान सम्भाजी ने घर छो़ड़ दिया और मुगलों में जा मिले थे।
शिवाजी महाराज को इस बात का काफी दुख हुआ था लेकिन सम्भाजी किसी कीमत पर वापस नहीं आना चाहते थे। मुगलों के पास रहते हुए उन्हें उनका गलत व्यवहार पसंद नहीं आया और फिर वे वापस घर आ गए। वापस आर उन्होंने अपने पिता से माफी मांगी और इसके बाद सम्भाजी की मुलाकात कलश नाम के एक कवि से हुई थी । कवि के संपर्क में रहते हुए उनकी रूचि साहित्य में होने लगी। कहते हैं कि कलश से सम्भाजी की दोस्ती बहुत गहरी हो गई और जब भी सम्भाजी को कुछ समझ नहीं आता था या वे क्रोधित होते थे तब कलश ही उन्हें संभालते थे।
सम्भाजी एक शासक के रूप में
11 जून, 1665 में पुरंदर की संधि में शिवाजी ने इस बात की सहमति दी कि उनका पुत्र मुगल सेना को अपनी सेवाएं देगा। जिस कारण 8 साल के सम्भाजी ने अपने पिता के साथ बीजापुर सरकार के खिलाफ औरंगजेब का साथ दिया था। शिवाजी और सम्भाजी औरंगजेब के दरबार में गए और वहां उन्हें नजरबंद होने का आदेश दे दिया गया, लेकिन वे दोनों वहां से भाग निकले। छत्रपति शिवाजी महाराज की मृत्यु के बाद सम्भाजी के ऊपर शोक का पर्वत टूट पड़ा था। मगर इस स्थिति में सम्भाजी ने बड़े पुत्र होने के नाते राज्य का कार्यभार संभाला। कुछ लोगों ने शिवाजी महाराज के छोटे पुत्र को सिंहासन पर बैठाने का प्रयास किया लेकिन ऐसा हो नहीं पाया क्योंकि सेनापति हंबीरराव मोहिते से शिवाजी महाराज ने वादा लिया था कि ऐसा ना होने दें। 16 जनवरी, 1681 को सम्भाजी महाराज का राज्याभिषेक हुआ। मगर इसके बाद भी कुछ लोग उन्हें महाराजा नहीं मानते थे और निरंतर प्रयास करते थे कि उन्हें इस पद से हटा दिया जाए। सम्भाजी ने अपने सलाहकार के रूप में कवि कलश को चुन लिया लेकिन मराठी सैनिकों को ये पसंद नहीं आया। ऐसा इसलिए क्योंकि कवि कलश गैर-मराठी थे और यहीं से महाराजा सम्भाजी के खिलाफ कई नीतियां बनने लगी थी। इन सबकी वजह से सम्भाजी के शासन काल में खास उपलब्धियां हासिल नहीं हो पाई लेकिन वे बहुत कुछ अपने राज्य के लिए करना चाहते थे।
औरंगजेब का महाराष्ट्र पर हमला
शिवाजी महाराज के निधन के बाद मुगल सम्राट औरंगजेब खुद स्वराज्य खत्म करने के लिए महाराष्ट्र आया। उसने साल 1982 में 5 लाख सेना, 40 हजार हाथी, 70 हजार घोड़े और 35 हजार ऊंट लेकर आया था। उसकी सेना इतनी विशाल थी कि 3 मील तक सब फैला था। औरंगजेब की ताकत संभाजी राजे की तुलना में बहुत ज्यादा थी और उसकी सेना दुनिया की विशाल सेा में शामिल थी। संभाजी महाराज के नेतृ्व में मराठों ने बहुत बहादुरी के साथ युद्ध किया और औरंगजेब को एक भी किला जीतने नहीं दिया। औरंगजेब कई सालों तक महाराष्ट्र में रहा लेकिन मराठों को राज्य जीतने में सफल नहीं हो पाया। साल 1687-89 के दौरान जब मराठा सैनिक कमजोर पड़ने लगे तब सम्भाजी और कवि कलश को उन्होंने बंदी बना लिया। औरंगजेब ने दोनों से धर्म परिवर्तन करने के लिए कहा लेकिन उन्होने मना कर दिया और फिर अपने भगवान को याद करते हुए कहा कि धर्म की सुरक्षा के लिए वे पना जीवन खत्म कर सकते हैं। सम्भाजी ने कभी औरंगजेब या मुगलों के आगे सिर नहीं झुकाया।
सम्भाजी को औरंगजेब के आगे झुकाना
मुगल शासकों में ये बात फैल गई थी कि Sambhaji Maharaj ने औरंगजेब के आगे हार मान ली है क्योंकि सम्भाजी को बंदी बना लिया गया था वहां पर उन्हें मुगलों के कैंपों के बीच बांध दिया गया और वहां पर आने वाले हर मुगलाई उनके ऊपक थूकते और अपमानित करते थे। 5 दिनों तक ऐसा ही चलता रहा इसके बाद सम्भाजी ने कहा कि या तो उन्हें युद्ध करने के लिए छोड़ दें या फिर मौत दे दें। मुगलों के डर से उनके सैनिक भी खामोश ही थे और इस तरह 5 दिनो के बाद वे लोग औरंगजेब के दरबार पहुंचे। दरबार में सम्भाजी को आता देखकर औरंगजेब सिंहासन से उतरा और कहा कि शिवाजी के पुत्र को बंदी बनाना किसी बड़ी उपलब्धी से कम नहीं है इसके लिए वो घुटने के बल बैठकर अललाह को याद करने लगा। तभी पास खड़े कवि कलश ने सम्भाजी से कहा कि आलमगीर खुद अपने सिंहासन से उठकर आपके आगे नतमस्तक कर रहा है। विपरित परिस्थिति होने के बाद भी कवि कलश ने वीरता के साथ कहा कि औरंगजेब अपने दुश्मन सम्भाजी राजे के सामने घुटने टेक रहा है।
गुस्से में आग बबूला औरंगजेब ने उन दोनों दो तहखाने में डालने के लिए कह दिया। इसके बाद तहखाने में कुछ कैदियों ने सम्भाजी से कहा कि अगर वे उसके सामने झुक जाएं और अपना सम्राज्य औरंगजेब के नाम कर दें तो मुगल सम्राट उन्हें माफ करके छोड़ देंगे। मगर सम्भाजी ने ऐसा करने से मना कर दिया, उन्होंने कहा कि वे मर सकते हैं लेकिन किसी के सामने झुक नहीं सकते हैं।
इस तरह हुई सम्भाजी की मृत्यु
औरंगजेब की दो शर्तें थीं, एक सम्भाजी इस्लाम कबूल कर लें और दूसरी कि वो सारा साम्राज्य उन्हें सौंपकर कहीं दूर चले जाएं। सम्भाजी ने मुगलों की हंसी उड़ाते हुए कहा कि वे मुस्लिमों की तरह मूर्ख नहीं हैं जो ऐसे मानसिक विक्षिप्त व्यक्ति के समाने घुटने टे दें। फिर सम्भाजी ने अपने आराध्य महादेव को याद किया और कहा कि धर्म-अधर्म के भेद को देखने और समझने के बाद वे अपना जीवन हजार बार हिंदुत्व और राष्ट्र को समर्पित करते हैं। इस तरह वे कभी औरंगजेब के आगे नहीं झुके क्योंकि उन्हें अपने हिंदुत्व होने पर गर्व था और इस बात से क्रोधित औरंगजेब ने सम्भाजी पर कोढ़े बरसाने का आदेश दिया और फिर उसके ऊपर नमक छिड़का जाए। जब ऐसा किया जा रहा था तब सम्भाजी की आंखों से आंसू निकल रहा था और वे सिर्फ ओम नम: शिवाय का जाप कर रहे थे। इसके बाद सम्भाजी की जीभ काटकर कुत्तों को खिलाने का आदेश दिया गया लेकिन औरंगजेब भूल गया था कि नो जीभ काटकर भी सम्भाजी के दिल और दिमाग से महादेव का नाम नहीं मिटा सकता।
इसके बाद जब सम्भाजी एक टक औरंगजेब को देख रहे थे तब उनकी आंखें भी निकाल ली गईं। उनके ऊपर औरंगजेब हर दिन अत्याचार करवाता और शरीर का एक भाग कटवा देता था। इस तरह से 2 हफ्ते के बाद 11 मार्च, 1689 में उनका सिर धड़ से अलग कर दिया गया और उनका कटा हुआ सिर महाराष्ट्र के कस्बों के चौराहे पर टांग दिया गया। अपने अंतिम क्षणों तकर भगवान शिव का जाप करने वाले बहादुक राजा के इस बलिदान से हिंदू मराठाओं में अपने राजा के सम्मान में आज भी उन्हें याद किया जाता है। संभाजी की कुर्बानी बेकार नहीं गई और उन्हें पूजते हुए बाला साहेब ठाकरे ने भी कई अच्छे काम किए और हिंदुत्व को बचाने में अपनी उम्र बिता दी और इसके बाद आज भी उनकी सत्ता को लोग संभाल रहे हैं। संभाजी जो चाहते थे वो हो रहा है और भारत में हिंदुत्व को ही प्रधानता दी जाती है तभी तो यहां सबसे ज्यादा हिंदू निवास करते हैं।