*परिवर्तन सृष्टि एवं प्रकृति का नियम है | यहां समय के साथ सब कुछ परिवर्तित होता रहता है | जिस प्रकार समय-समय पर ऋतुएं परिवर्तित होकर मनुष्य को जीवन जीने में सहायक होती है उसी प्रकार समय अनुकूल परिवर्तन स्वयं में मनुष्य को भी कर लेना चाहिए | जो समय के अनुसार परिवर्तन नहीं कर पाता है वह अपने जीवन में कुछ भी नहीं कर पाता | जैसा जिसका समय एवं परिस्थिति हो उसको उसी परिस्थिति में स्वयं को ढालने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि यही प्रकृति का रहस्य है | इस धरती पर प्रकृति के होने वाले परिवर्तन को मनुष्य को सहर्ष स्वीकार करना ही पड़ता है | ज्येष्ठ मास की कड़ी धूप को सहने वाला मनुष्य माघ मास के घने कुहरे का भी स्वागत करता है | कुछ लोग तो प्रकृति के इस परिवर्तन का सहर्ष स्वागत करते हैं परंतु कुछ लोग इसे स्वीकार करना विवशता समझते हैं जबकि सत्य यह है कि प्रकृति के इस परिवर्तन को जो नहीं स्वीकार कर पाता है वह प्रकृत की मुख्यधारा से कट जाता है | जीवन में आए हुए परिवर्तन को किस प्रकार स्वीकार करना चाहिए इसका उदाहरण हमें मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम के जीवन से लेना चाहिए | अयोध्या के राजकुमार होते हुए चौदह वर्षों के कठिन वनवास को सहर्ष स्वीकार करके एवं वनवास काल में प्रसन्नता पूर्वक अपने क्रियाकलाप संपादित करके मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने एक उत्तम उदाहरण प्रस्तुत किया है | विचार कीजिए अयोध्या के राजकुमार जिनका लालन-पालन सर्वश्रेष्ठ राजकीय व्यवस्थाओं के बीच में हुआ था , फूलों पर चलने की जिनकी आदत पड़ी थी वही मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम जब वनवास की यात्रा पर निकले तो उनके शरीर पर ना तो वह राजसी वस्त्र थे और ना ही पैरों में पदत्रान | इतना ही नहीं उनके मुखमंडल पर मलिनता भी नहीं थी | इससे यह परिभाषित होता है कि मनुष्य को आने वाली किसी भी परिस्थिति के अनुसार स्वयं को ढाल करके उसका स्वागत करना चाहिए | जो परिवर्तन को स्वीकार करके उसके अनुसार अपने क्रियाकलाप संपादित करता है वह इतिहास का हिस्सा बन जाता है और जो परिवर्तन को नहीं स्वीकार कर पाता वह पतित हो जाता है |*
*आज के आधुनिक युग में मनुष्य ने विकास तो बहुत कर लिया है परंतु परिवर्तनशील प्रकृति के रहस्यों को स्वयं में समाहित नहीं कर पा रहा है | अनेक लोग समय की मार से अपने धन , ज्ञान , पद एवं प्रतिष्ठा के चले जाने पर सम्भल नहीं पाते और पुराने दिनों को याद कर के अंदर ही अंदर मरते रहते हैं और उनके द्वारा ऐसा वक्तव्य भी सुनने को मिलता है कि परिवर्तित हुई व्यवस्था में जीवन जीना सरल नहीं लगता है | जो लोग परिवर्तित हुई व्यवस्था का स्वागत नहीं कर पाते हैं और अनेकों प्रकार की अनैतिक कृत्य करने लगते हैं ऐसे सभी लोगों से मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बताना चाहूंगा कि परिवर्तन को कैसे स्वीकार किया जाता है यदि यह देखना है तो एक कन्या से नारी बनी उस महिला से सीखना चाहिए जो अपने माता पिता के प्यार दुलार को छोड़ करके ससुराल जाती है और जीवन में आए हुए अभूतपूर्व परिवर्तन को सहर्ष स्वीकार करते हुए ससुराल के परिवेश में स्वयं को ढालने का प्रयास करती है | अचानक आयेइस परिवर्तन के साथ साथ वह अपना आत्म परिवर्तन भी कर लेती है | परिवर्तन वही सहर्ष स्वीकार कर सकता है जो परिस्थितियों के अनुसार आत्म परिवर्तन करने की कला जानता है | एक नारी जब अपने पिता का घर छोड़ कर जब ससुराल पहुंचती है तो सब कुछ उसके अनुकूल नहीं होता है परंतु वह स्वयं को उसी परिवेश में ढालने का प्रयास करके एक सफल जीवन जीने का उदाहरण प्रस्तुत करती है और जो इस परिवर्तन को स्वीकार नहीं कर पाती उनके परिवार टूट जाते हैं | कहने का तात्पर्य यह है कि परिवर्तनशील इस प्रकृति में मनुष्य को देश , काल , परिस्थिति के अनुसार स्वयं परिवर्तन करके उसी परिवेश के अनुसार ढाल लेना चाहिए अन्यथा जीवन कंटकमय बन जाता है |*
*परिवर्तन जीवन का अभिन्न अंग है इससे कोई भी बच नहीं पाया है इस परिवर्तन को स्वीकार करके जिसने भी परिस्थिति के अनुसार क्रियाकलाप संपादित किए हैं वही आज इतिहास का हिस्सा है |*